व्रतेन प्राप्यते दीक्षा

August 1998

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आत्मज्ञान या शाश्वत जीवन का बोध व्रताचरण के द्वारा होता है। ऊपर चढ़ने की जरूरत पड़ती है तो सीढ़ी लगते है एक डंडे को हाथ से पकड़ कर दूसरे पर पैर रखते हुए ऊपर आसानी से चढ़ जाते हैं। जीवन में क्रमिक रूप से छोटे-छोटे व्रतों से प्रारम्भ करके अंत में महाव्रत की परिधि प्राप्त करना अन्य साधनों की अपेक्षा अधिक सरल है। शास्त्रकार का कथन है-

व्रतेन प्राप्यते दीक्षा दक्षिणा दीक्षाप्राप्यते। तया च प्राप्यते श्रद्धा श्रद्धया सत्यमाप्यते॥

अर्थात् उन्नत जीवन की योग्यता मनुष्य को व्रत से प्राप्त होती है। इसे दीक्षा कहते है। दीक्षा से दक्षिणा अर्थात् जो कुछ कर रहे हैं, उसके सफल परिणाम मिलता हैं। सफलता के द्वारा आदर्श और अनुष्ठान के प्रति श्रद्धा जाग्रत होती है। और श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।सत्य का अर्थ का मनुष्य के जीवन -लक्ष्य से है। यह एक क्रमिक विकास की पद्धति है। व्रत जिसका प्रारम्भ और सत्य प्राप्ति ही जिसका अंतिम निष्कर्ष है।

व्रत का आध्यात्मिक अर्थ। उन आचरणों से है जो शुद्ध सरल और सात्विक हों और उनका पालन विशेष मनोयोगपूर्वक किया गया है। यह देखा गया है कि व्यावहारिक जीवन में सभी लोग अधिकांश सत्य बोलते है और सत्य का ही आचरण भी करते है किन्तु कुछ क्षण ऐसे आ जाते हैं जब सच बोल देना स्वार्थ और इच्छापूर्ति में बाधा उत्पन्न करता है उस समय लोग झूठ बोल देते हैं या असत्य आचरण कर डालते है। निजी स्वार्थ के लिए सत्य की अवहेलना कर देने का तात्पर्य यह हुआ कि आपकी निष्ठा उस आचरण में नहीं हैं। इसे ही यों कहेंगे कि व्रतशील नहीं है।

बात अपने हित की हो अथवा दूसरे की, जो शुद्ध और न्यायपूर्ण हो उसका निष्ठापूर्वक पालन करना ही व्रत कहलाता है। संक्षेप में आचरण-शुद्धता को कठिन परिस्थितियों में भी छोड़ना व्रत कहलाता है। संकल्प का छोटा रूप व्रत है। संकल्प की शक्ति व्यापक होती है और व्रत उसका एक अध्याय होती है। वस्तुतः व्रत और संकल्प दोनों एक ही समान है।

विपरीत परिस्थितियों में भी हँसी-खुशी का जीवन बिताने का अभ्यास व्रत कहलाता है। इससे मनुष्य में श्रेष्ठ कर्मों के संपादन की योग्यता आती है। थोड़ी-सी कठिनाइयों में कर्म-विमुख होना मनुष्य की अल्पशक्ति का बोधक है, जो कठिनाइयों में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहे, ऐसी शक्ति व्रत में होती है।

नियम -पालन में आत्म-विश्वास और अनुशासन की भावना आती है। जीवन के उत्थान और विकास के लिये वह दोनों शक्तियाँ अनिवार्य है। आत्मशक्ति या आत्म-विश्वास के अभाव में मनुष्य छोटे-छोटे भौतिक प्रयोजनों में लगा रहता हैं अनुशासन के बिना जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। शक्ति और चेष्टाओं का केन्द्रीकरण न हो पाने के कारण कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं बन पाती। आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित करना और उन्हें मनोयोगपूर्वक जीवन-ध्येय की ओर लगाये रखना आचरण में नियम-बद्धता से ही पाता है। नियमितता, व्यवस्थित जीवन का प्रमुख आधार है। आत्मशोधन की प्रक्रिया इसी से पूरी होती है।

उतरोतर मुत्कर्ष जीवने लब्धुमुत्सुकः। प्रतिजाने चरिज्ज्यामि व्रतमात्मविशुद्धये॥

मैं जीवन में उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता हूँ। या कार्य पवित्र आचरण या आत्मा को शुद्ध बनाने से ही पूरा होता है, इसलिये मैं। व्रताचरण की प्रतिज्ञा लेता हूँ।

व्रत-पालन से आत्मविश्वास के साथ संयम की वृत्ति भी आती है।

आत्म-विश्वास शक्तियों का संचय बढ़ाता है और संयम से शक्तियों का अपव्यय रुकता है। इस तरह जब विपुल शक्ति का भण्डार आत्मकोश में भर जाता है, तो आत्मा अपने आप प्रकट हो जाती है। शक्ति के बिना आत्मा को धारण करने की क्षमता नहीं आती। व्रत शक्ति का स्रोत है, इसलिए आत्मशोधन की वह प्रमुख आवश्यकता है। अपनी शक्ति और स्वयं का ज्ञान मनुष्य को न हो तो व जीवन में किसी तरह का उत्थान नहीं का सकता। शक्ति आती है, तभी आत्मविश्वास की भावना का उदय होता है और मनुष्य विकास की ओर तेजी से बढ़ता चला जाता है।

व्रत जीवन की त्रुटियों और भूलों को सुधार कर मनुष्य को शुद्ध बनाता है। असंयमित जीवन के कारण जो अनियमितताएँ और अशुद्धियाँ आ जाती है उनका एक सफल उपचार है व्रताचरण। गाँधी जी का प्रारम्भिक जीवन बिलकुल अस्त्र-व्यस्त रहा है इसलिये उन दिनों में वे कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाये। पहला व्रत उन्होंने ३६ वर्ष की अवस्था में धारण किया। ब्रह्मचर्य से उनकी प्रसुप्त शक्तियाँ जागी और उनका जीवनक्रम व्यवस्थित होने लग। व्यवस्थित जीवनचर्या और आंतरिक शक्तियों के जागरण से महात्मा गाँधी असाधारण कार्य कर सके। महापुरुषों का जीवन सदैव व्रतशील रहा है आत्म-निर्माण के साधकों को भी सफलता के लिए आचरण की शिक्षा ग्रहण करनी ही पड़ती है।

जीवन की सफलता के लिए जिन-जिन विचारकों ने अपने अनुभव दिये हैं, उन सबने पहले उसे कसौटी पर कसा होता हैं। उन नियमों की सत्यता के लिए हमें लम्बे परीक्षण की आवश्यकता नहीं हैं। इसमें समय बर्बाद करने की अपेक्षा यह अधिक श्रेष्ठ है कि उदाहरण और विवेक के द्वारा नियमों की परख कर लें और उन्हें प्रयोग करने लगें, इतने से ही हम अपने श्रेष्ठ जीवन का निर्माण कर सकते हैं।

पूर्व जन्मों के संस्कारों के थोड़े से अपवाद हो सकते है, किन्तु अधिकांश लोगों के लिये आत्मज्ञान प्राप्त करने का जो एक सरल रास्ता निश्चित किया हुआ है, वह है-व्रतों के पालते रहने की नियमितता। मनुष्य के जीवन में आत्मरक्षा -वृत्ति से लेकर समाज-वृत्ति तक जो मर्यादाएँ निश्चित हैं, उन्हीं के भीतर रहकर ही आत्मविकास करने में सुगमता होती है। एक व्यक्ति के लिए नहीं, सामूहिक हितसाधना का कार्यक्रम इसी प्रकार पूरा होता है। व्यक्ति का निजी स्वार्थ भी इसी में सुरक्षित है कि सबके लिये समान व्रत का पालन करे। दूसरों को धोखे में डालकर आत्म-कल्याण का मार्ग प्राप्त नहीं किया जा सकता। साथ-साथ चलकर लक्ष्य तक पहुँचने में जो सुगमता और आनन्द है, वह अकेले चलने में नहीं है। अनुशासन और नियमपूर्वक चलते रहने से समाज में एक व्यक्ति के भी हितों की रक्षा हो जाती है और दूसरों की उन्नति का मार्ग भी अवरुद्ध नहीं होता।

सृष्टि का संचालन नियमपूर्वक चल रहा है। सूर्य अपने निर्धारित नियम के अनुसार चलता रहता है, चंद्रमा की कलाओं का घटना -बढ़ना सदैव एक-सा रहता है। सारे के-सारे ग्रह -नक्षत्र अपने निर्धारित पथ पर ही चलते हैं, इसी से सारा संसार ठीक-ठीक चल रहा है। यदि ये अपनी-अपनी मर्यादाएँ छोड़ दे तो आपस में टकराकर विश्वनाथ के दृश्य उपस्थित कर दें। अग्नि, वायु, समुद्र, पृथ्वी आदि सभी अपना-अपना व्रत धारण किये हुए हैं। नियमों की अवज्ञा करना उन्होंने शुरू कर दिया होता तो सृष्टि-संचालन का कार्य कभी का रुक गया होता। अपने कर्तव्य का अविचल भाव से पालन करने के कारण ही देव-शक्तियाँ अमृतभोगी कहलाती है। इन्हीं नियमों का पालन करते हुए मनुष्य की आध्यात्मिक प्रतिक्रिया है। पूर्णता प्राप्त करने की कामना मनुष्य का प्राकृतिक गुण है किन्तु हम जीवन को अस्त्र-व्यस्त बनाकर लक्ष्य-विमुख हो जाते हैं। हर कार्य की शुरुआत छोटी कक्षा से होती है, तब कहीं श्रेष्ठता की ओर बढ़ पाते हैं आत्मज्ञान के महान लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रारम्भिक कक्षा व्रत -पालन ही है, इसी से हम मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकते हैं। व्रताचरण से ही मनुष्य महान बनता है, यह पाठ जितनी जल्दी सीख लें, उतना ही श्रेयस्कर है।

काशी विश्वनाथ मन्दिर में एक बार शिवरात्रि के दिन आकाश से एक सोने का थाल उतरा। उसमें लिखा कि शंकर भगवान में जिसका सच्चा प्रेम होगा, उसी को यह थाल मिलेगा। काषभ्राज ने ढिंढोरा पिटवाकर, बहुतेरे लोगों को इकट्ठा किया और सच्चे प्रेमी का आह्वान किया।

सर्वप्रथम एक शास्त्रीजी सामने आये। उन्होंने कहा-मैं नित्य रुद्राभिषेक करता हूँ और दर्शन करने के बाद ही भोजन करता हूँ। अतएव थाल मेरे हाथ में दीजिए। थाल शास्त्रीजी के हाथ में आते ही पीतल का हो गया। इससे शास्त्रीजी लजा गये। इसके बाद काशी स्वयं आये और कहने लगे- मैंने विश्वनाथ जी पर सोने का कलश सच्चे प्रेम से चढ़ाया था और शिवरात्रि को दर्शन करने के लिये सच्चे भाव से आया हूँ। राजा के हाथ रखने पर थाल लोहे का हो गया। इससे वे भी शरमा गये, तदनंतर एक बड़े सेठजी आये और कहा-विश्वनाथ जी की जलधारी मैंने ही बनवायी है। फर्श पर रुपये मैंने ही चढ़ाये हैं और हजारों कोस की दूरी से प्रेमवश मैं यहाँ आया हूँ। इसलिए थाल का वास्तविक अधिकारी मैं हूँ। उसे देने पर भी थाल का वही हुआ। हजारों थाल के इच्छुक निराश हो गये।

उसी समय एक किसान,जो बहुत समय से श्री विश्वनाथ जी के दर्शन का इच्छुक था, किन्तु पैसा न होने से प्रायः खेतों में काम पर लगा रहता, इसलिए नहीं आ सकता था। लेकिन आज वह बड़े परिश्रम से कुछ पैसे बचाकर और खाने के लिए सत्तू बाँधकर आ रहा था, क्योंकि बहुत- लोगों को सोने का थाल लेना था, तब भला उस दरिद्रनारायण को कौन पूछता? इस किसान ने उस गरीब को लोटे से पानी पिलाया, सत्तू खाने को दिया और पास की धर्मशाला में पहुँचा आया। इसके बाद वह किसान काशी विश्वनाथ के मन्दिर में गया। महादेव जी की पूजा करके जब वह बाहर निकल रहा था, तब आकाशवाणी हुई-महादेव जी का सच्चा भक्त आया है। इसलिए थाल इसी को दे दो।

इस वाणी सुनते ही थाल पुजारी के हाथ से सरका और उस किसान के हाथ में सुवर्ण रंग में चमकने लगा। यह देखकर सब चकित रह गए।

दरिद्रनारायण की सेवा ही सच्ची ईश्वर-उपासना है।


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