मनुष्य की निजी आवश्यकताएँ और इच्छाएँ हैं। उनकी पूर्ति के लिए वह प्रयत्न करता है और प्रयत्न करने पर अभीष्ट की प्राप्ति भी होती है, पर वह जो कुछ पाता है, वह उसका अपना उपार्जन ही नहीं होता - उसे जुटाने में समाज का भारी योगदान रहता है। यदि वह न रहे तो एकाकी मनुष्य पेट भरने और तन ढँकने की आवश्यकता भी शायद ही पूरी कर पावे। बुद्धि तो उसमें बहुत है, पर शरीर इतना अशक्त है कि वह बिन दूसरों के सहयोग के अपनी बढ़ी - चढ़ी इच्छाओं की पूर्ति किसी भी प्रकार नहीं कर सकता। इस दृष्टि से वह अन्य जीवों की तुलना में काफी पिछड़ा हुआ है।
गाय, हिरन, लोमड़ी, खरगोश आदि के बच्चे जन्म लेने के कुछ ही देर बाद अपने पाँवों पर खड़े हो जाते हैं। माता का दूध अपने प्रयत्न से पीने लगते हैं ओर कुछ ही दिनों में चल - फिर कर घास आदि ढूँढ़ने और पेट भरने लगते हैं। मनुष्य के बच्चे में यह योग्यता बहुत वर्ष बीतने पर भी नहीं आती। माता दूध न पिलाये तो वह भूखा ही मर जाएगा। अपने पुरुषार्थ से माता को या उनके स्तन को ढूँढ़ने में समर्थ न होगा। सोने, खाने, नहाने, मल - मूत्र विसर्जन जैसे छोटे कामों के लिए भी बहुत दिनों तक उसे अपने अभिभावकों पर निर्भर रहना होता है। अपने पैरा पर खड़े होने की अपना गुजारा आप करने की योग्यता तो कहीं पन्द्रह-सोलह वर्षों में आती है।
आजीवन साथ रहने के लिए प्रस्तुत सुयोग्य पत्नी - मनुष्य का अपना उपार्जन नहीं होती। माँ - बाप उस लड़की को सुयोग्य बनाते ओर उदारतापूर्वक ब्याह कर देते हैं। यह सामाजिक योगदान है। अन्य प्राणी कामोद्देश्य के लिए क्षणिक दाम्पत्य - जीवन बनाते और बिछुड़ जाते हैं। मनुष्य को जो सुव्यवस्थित दाम्पत्य जीवन मिला है, उसमें समाज का अनुग्रह ही मुख्य है। भोजन के लिए अन्न, पहनने के लिए वस्त्र, निवास के लिए घर, शिक्षा के लिए विद्यालय, आजीविका के लिए उद्योग, यात्रा के लिए वाहन, बीमारी के लिए दवा, क्या यह सब उपलब्धियाँ मनुष्य की निजी कमाई हैं, यदि समाज सहयोग प्राप्त न हो तो कितना ही परिश्रम करके उस स्तर की वस्तुएँ प्राप्त नहीं हो सकतीं, जितनी कि हम में से प्रत्येक मिलती हैं। बोलना, लिखना, पढ़ना जो मनुष्य ने सीखा है, उसमें माँ - संगी- साथियों का ही नहीं, असंख्य पीढ़ी के पूर्वजों को योगदान है। सामाजिक, शासकीय, वैज्ञानिक, बौद्धिक सुविधाओं में जो असाधारण लाभ प्राप्त किया जा सका है ओर जिनके बल पर मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि बना है, वह सब कुछ एक प्रकार से समाज का ही अनुदान है। निजी पुरुषार्थ तो उन उपलब्धियों में नगण्य ही समझा जाना चाहिए।
जिस समाज का इतना उपकार और अनुदान लेकर मनुष्य सुख-सुविधाएँ प्राप्त करता है, उसका वह ऋणी है। इस ऋण को चुकाना कृतज्ञता की, प्रत्युपकार की ओर सामाजिक श्रृंखला - परम्परा बनाये रखने की दृष्टि नितान्त आवश्यक है। यदि लोग समाज के कोष से लेते तो रहें, पर उसका भण्डार भरने की बात न सोचें तो वह सामूहिक कोष खाली हो जाएगा। समाज खोखला ओर दुर्बल हो जाएगा, उसमें व्यक्तियों की सुविधा बढ़ाने एवं सहायता करने की क्षमता न रहेगी। फलतः मानवीय प्रगति का पथ अवरुद्ध हो जाएगा। प्राप्त तो करें, पर उसे लौटाए नहीं की नीति अपना ली जाए तो बैंक दिवालिये हो जाएँगे, सरकार खोखली रह जाएगी, जमीन का उपार्जन बन्द हो जाएगा, व्यापार की श्रृंखला ही बिगड़ जाएगी। इस संसार में लो और दो की नीति पर सारी व्यवस्था चल रही है। लो के लिए इंकार की परंपरा यदि चल पड़े तो सारा क्रम ही उलट जाएगा, तब हमें असामाजिक आदिम−युग की ओर वापस लौटना पड़ेगा।
मनुष्य की बुद्धि और श्रमशीलता का आधा भाग, और आधा भाग सामाजिक अनुदान का माना गया है। तदनुसार तत्त्वदर्शियों ने यह व्यवस्था बनाई है कि उसे अपनी जीवनसम्पदा का आधार भाग अपनी शरीरयात्रा के लिए रखना चाहिए और आधा सामाजिक उत्कर्ष के लिए लगा देना चाहिए। पेट भरना, तन ढँकना, निवास, शिक्षा, चिकित्सा, गृहस्थ, उपार्जन, मनोरंजन आदि वैयक्तिक सुविधा - साधनों के लिए उसकी क्षमता का आधे से अधिक भाग खर्च न होना चाहिए। आधा तो समाज- सेवा के लिए सुरक्षित ही रहना चाहिए।
आश्रम धर्म की व्यवस्था भारतीय संस्कृति में इसी दृष्टि से की गयी है। आयुष्य का एक - चौथाई भाग खेल-कूद तथा ज्ञान और शरीर की वृद्धि के लिए यह ब्रह्मचर्य हुआ, एक - चौथाई विवाह, संतान, परिवार, उपार्जन, यश-वैभव मनोरंजन आदि के लिए यह गृहस्थ हुआ। इतना भाग निजी सुख-सुविधा के लिए है। शेष आधार वानप्रस्थ और संन्यास के रूप में लोकमंगल के लिए आत्मिक उत्कृष्टता अभिवर्द्धन के लिए नियुक्त होना चाहिए। जीवन - सम्पदा का यही श्रेष्ठतम विभाजन है। भारतीय धर्म और संस्कृति की यह एक अति-महत्वपूर्ण व्यवस्था है, जिस पर उसकी महान सामाजिक व्यवस्था की आदर्श परिपाटी निर्भर रही है।
सामाजिक उत्कृष्टताओं के अभिवर्द्धन, सत्परंपराओं के संचालन और विकृतियों के निवारण के लिए निरन्तर प्रयत्न किया जाना आवश्यक है। यह प्रयोजन सुयोग्य, अनुभवी और निस्पृह लोगों के द्वारा ही पूरा हो सकता है। अनेक सत्प्रवृत्तियों के गतिशील रहने से ही समाज की श्रेष्ठता और महानता सुदृढ़ रह सकती है। इस कार्य के लिए ढलती आयु के व्यक्तियों को अपना जीवन समर्पित करना चाहिए। उसे उदारता, दान, परमार्थ, धर्म, पुण्य कुछ भी कहा जा सकता है। ऋण चुकाना या कर्तव्यमान भी इसे कह सकते हैं। कहा कुछ भी जाए, यह है नितान्त आवश्यक। यह परंपरा चलते रहने से ही सुयोग्य समाजसेवियों की आवश्यकता पूरी हो सकती है और सामाजिक महानता अक्षुण्ण रह सकी है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को शास्त्र-मर्यादा या ईश्वरीय - आज्ञा के रूप में ढलती आयु में वानप्रस्थ ग्रहण करके अपना श्रम, समय और मनोयोग लोककल्याण के लिए लगाने का निर्देश किया गया है।
शास्त्रकारों ओर आप्तपुरुषों ने पग-पग पर इस परंपरा के पालन का निर्देश किया है। धर्मग्रन्थों में हर जगह इसी प्रकार के निर्देश की भरमार है।
गृहस्थथस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः। अपतयस्यैव चापत्यं पदाऽरण्यं समाश्रयेत्। (शंखस्मृति)
जब गृहस्थ का भार बड़ा लड़का संभाल ले, बाल सफेद होने लगें, तब मनुष्य को वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए।
उर्षित्वैव गृहे विप्रोद्वितीयादाश्रमात् परम। वलीपलतिसंयुक्तस्तृतीयन्तु समाश्रयेत॥ (संवर्त स्मृति १७)
जब गृहस्थ पालन करने के उपरांत चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जाएँ, बाल सफेद होने लगे तो तीसरेपन में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए।
एवं वनाश्रमे तिष्ठन् पातयंश्चैव किल्विषम्। चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् संन्यासबिधिना द्विजः॥ (हरीत स्मृति ६, १२)
गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए। इससे समस्त मनोविकार दूर होते हैं और वह निर्मलता आती है, जो संन्यास के लिए आवश्यक है।
महर्षिपितृदेवानाँ गत्वऽऽनृण्यं यथाविधि। पुत्रे सर्व समासज्य वसेन्माध्यस्थ्यमास्थितः॥ (मनु. ४/२५७)
ढलती आयु में पुत्र को गृहस्थ का उत्तरदायित्व सौंप दे। वानप्रस्थ ग्रहण करे और देव, पितर तथा ऋषियों का ऋण चुकावे।
उत्पाद्य पुत्राननृणाँश्च कृत्वावृत्तिं च तेभ्योऽनुविधाय काँचित्। स्थाने कुमारीः प्रतिपाद्य सर्वा अरण्यसंस्थोऽथ मुनिर्बुभूषेत्॥ (महा, उद्योग ३७/३९)
पुत्रों को उत्पन्न कर उन्हें ऋण के भार से मुक्त करके उनके लिए किसी जीविका का प्रबन्ध कर दें, अपनी सभी कन्याओं का योग्य वर के साथ विवाह कर दे तत्पश्चात् वन में मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे।
दूरदर्शिता ओर बुद्धिमत्ता इसमें है कि संतान के समर्थ होने पर अपने शरीर के क्षरण पर भी विचार करे और ढलती आयु में वानप्रस्थ ग्रहण करे। आत्मशुद्धि के लिए यह कदम बढ़ाना आवश्यक है। पापों का शोधन, ऋणों से मुक्ति और आत्म-कल्याण का प्रयोजन पूरा करने के लिए वानप्रस्थ ग्रहण करना ही चाहिए।
गृहस्थः पुत्रपौत्रादीन् दृष्टवा पलितात्मनः। भार्य्यो पुत्रेषु निः निक्षिप्य सहवा प्रविशेद्वनम्॥
तपो हि यः सेवति वन्यवासः समाधियुक्तः प्रयन्तारात्मा। विमुवतपापो विमलः प्रशान्तः स याति दिव्यं पुरुषं पुराणम्॥ (हरीत स्मृति)
जब बाल सफेद होने लगे और पुत्र घर संभालने योग्य हो जाए तो वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए। ढलती आयु में तपश्चर्या आरंभ कर देनी चाहिए। इससे पाप और ऋण घुलते हैं, आत्मा को शान्ति मिलती है और दिव्य पुरुष की स्थिति प्राप्त होती है।
वयः परिणतों राजन्कृतकृत्यो गृहाश्रमी। पुत्रेषु भार्या निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा॥ १८ (विष्णु पुराण)
जब गृहस्थ धर्म का पालन करते - करते अवस्था ढल जाए, तब अपनी स्त्री के पालन का भार पुत्रों को सौंप या उसे भी अपने साथ लेकर वन को प्रस्थान करें।
अथ जनको हवैदेही याज्ञवल्क्य- अथ जनको हवैदेही याज्ञवल्क्य-
मुपसमेत्योवाच। भगवनसंन्यासम- नुबूहीति। स होवाच याज्ञवल्यो ब्रह्मचर्य समाप्य गृही भवेत। गृही भूत्वावी भवेत् वनी भूत्वा प्रव्रजेत। (जाबालोपनिषत् 31/1)
एक दिन राजा जनक महर्षि याज्ञवल्क्य के पास गये और कहा - भगवन् संन्यास की शिक्षा दीजिए। इस आश्रम, फिर गृहस्थाश्रम इसके बाद वानप्रस्थ होना चाहिए, इसके उपरांत ही संन्यास है।
जब तक इस वानप्रस्थ परंपरा का निर्वाह भारतीय समाज में ठीक तरह होता रहा, तब तक यहाँ की सामाजिक स्थिति अति उच्चकोटि की बनी रही और उससे प्रभावित होकर घर-घर में नर- रत्न उत्पन्न होते रहे, जिन्होंने समस्त विश्व में श्रेष्ठता की मर्यादाओं को स्थापित करने में महान योगदान दिया। जब से संकीर्ण और स्वार्थी होते चले गये, समाज का ऋणभार लेने की निर्लज्जता अपना बैठे, मरते समय तक पैसा और बेटे - पोतों की बात सोचने वाले क्षुद्रस्तर पर आ गये, फिर समाज को सुयोग्य और निस्वार्थ प्रतिभाएँ मिलती ही कहाँ और उनके बिना सामाजिक स्तर ऊँचा रहता ही कैसे? इस अभाव की पूर्ति के बिना कोई राष्ट्र और समाज प्रखर और महान रह ही नहीं सकता।
इस अभाव की पूर्ति की जानी चाहिए। जनसाधारण का दृष्टिकोण बदला जाना चाहिए। सारा जीवन पैसे और परिवार के लिए ही लगाया जाना सामाजिक अपराध घोषित किया जाना चाहिए। हर व्यक्ति को यह अनुभव करना चाहिए कि आधा जीवन गौ-ग्रास है। वह समाजसेवा की अवधि है। उसका अपहरण करके निजी सम्पदा पढ़ते रहना, पोतों की टहल - चाकरी करते रहना गौ के मुख से ग्रास को छीनने के बराबर है, जो कि एक महापाप है।