जिन प्रेम कियो तिनहिं प्रभु पायो

February 1996

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ईश्वरीय सत्ता को रसवत बताते हुए शास्त्रकारों ने उसकी प्राप्ति का एक सुगम मार्ग बताया है- प्रेम ! प्रेम यदि वास्तविक और उच्चस्तरीय हो तो भक्त को भगवान की सहायता मिलकर रहती है । कठिनाइयों, विपत्ति और बाधाओं वह हर प्रकार से भक्त का मार्ग दर्शन करते हैं। ईश्वरानिरागियों के जीवन में घटने वाली घटनायें इस बात की साक्षी है कि तादात्म्य यदि दिव्य हुआ, तो दैवी सत्ता का सहयोग भी अद्भुत ढंग से प्राप्त होता है। घटना रामकृष्ण परमहंस के एक ग्राही शिष्य दुर्गा चरण नाग से संबंधित है। बात जिन दिनों की है उन दिनों पूर्वी बंगाल में बारदी के ब्रह्मचारी विशेष ख्याति थी ब्रह्मचारी का ताराकान्त गंगोपाध्याय नाम का एक शिष्य था । उसका नाग महाशय के यहाँ बराबर आना जाना था। एक बार बहुत आग्रह से उसने नाग महाशय को ब्रह्मचारी के पास आने के लिए राजी कर लिया। नासग महाशय बड़े साध्य पुरुष थे। वे कही भी किसी से मिलने जाते, तो भेट के रूप में कुछ फल आदि अवश्य ले जाते ।बरदी जाते भी फल - मिष्ठान साथ ले गये।

उनकी वेश भूषा अत्यन्त दीन हीनों जैसी थी। रूखे बाल, खुश्क शरीर और दुर्बल काया में वे एकदम भिखारी जैसे प्रतीत होते थे । नग्न पाँव और देह में लिपटी जीर्ण - शीर्ण धोती इस अनुमान को और अधिक ठोस आधार प्रदान करते । इस हाल में जब वे ब्रह्मचारी के समक्ष उपस्थित हुए तो उसने उनकी दरिद्रता का उपहास उड़ाया और उपहार में लाई सारी वस्तुएँ एक गाय के सामने फेंक दी। नाग महाशय सर नीचा किये बैठे रहे उन्हें शान्त और अनुद्विग्न देख ब्रह्मचारी और भी उत्तेजित हो उठा एवं रामकृष्ण की निन्दा करने लगा। अब और अधिक वे बरदाश्त नहीं कर सके। क्रोध पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था इतने पर ब्रह्मचारी चुप नहीं हुआ। भर्त्सना जारी रही । गुस्से के मारे उनका चेहरा एकदम लाल हो गया । शरीर में मानो चिंगारियाँ सी फूटने लगी। तभी उन्होंने अकस्मात् देखा कि एक विकराल भैवर मूर्ति उनके सम्मुख प्रकट हुई और ब्रह्मचारी को कुचल डालने की अनुमति माँगने लगी। नाग महाशय ने किसी प्रकार अपने क्रोध को नियंत्रित किया और उसी के साथ वह किराल विग्रह भी अदृश्य हो गया । इसके बाद में वह एक पल भी नहीं रुके और ‘ हा! देव !! हा ! रामकृष्ण !! ‘ का विलाप करते हुए तेजी से बाहर निकल आये।

इससे मिलती जुलती एक अन्य घटना गोरखनाथ से संबंध है। प्रसंग उन दिनों का है जब उनके गुरु मस्येन्द्र नाथ महारानी मंगला और कमला के साथ ब्रह्म ज्ञान भूल कर भोग विलास में डूबे हुए थे। इन्हीं दिनों एक बार गोरख नाथ यात्रा करते हुए कदलीवन से होकर गुजर रहे थे। गर्मी के दिन थे। चिलचिलाती धूप से थोड़ी राहत पाने और थकान मिटाने के निमित्त वे एक बकुल वृक्ष के नीचे सुस्ताने लगे। कुछ देर के विश्राम के बाद उन्हें ध्यान करने की इच्छा हुई सो वही ध्यान करने लगे। आंखें बन्द किये अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि उन्हें कतिपय असुविधा उत्पन्न हुई । आंखें खोली तो चकित रह गये। सामने भगवान शंकर की एक वामन मूर्ति अधरों पर दिव्य मुस्कान बिखेरते विराजमान थी।

उसने गोरखनाथ को संबोधित करते हुए कहा-”तुम्हारा गुरु इसी वन में अपने पतन का सरंजाम जुटा रहा है। जाओ और उसकी रक्षा करो “ इतना कहकर प्रतिमा अंतर्ध्यान ।

इसी के उपरांत गोरखनाथ अपने गुरु को ढूंढ़ते हुए उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ वे आत्म विस्मृति की स्थिति में उपरोक्त दोनों रानियों के साथ ऐश्वर्य - भोग कर रहे थे। उन्होंने उनके मूर्छित अंतःकरण को अपने दिव्य उपदेशों द्वारा उद्भूत किया और उस पाप - प्रखर से बाहर निकाल उन्हें अपने साथ ले गया।

कहते है कि जिन दिनों राजा भर्तृहरि अपनी प्राण प्रिय रानी पिंगला के प्रति अत्यधिक आशक्त थे, उन्हीं दिनों उनके जीवन की एक अद्भुत घटना ने उन्हें वैराग्य की ओर मोड़ दिया।

जनश्रुति है कि एक बार एक योगी ने कठोर तपस्या हेतु ऐसा फल प्राप्त किया, जिसे खाने के पश्चात चिरयौवन बना रहे। योगी ने सोचा कि इसका वास्तविक अधिकारी राजा है। यदि उनका स्वास्थ्य उत्तम बना रहा, तो वे अधिक अच्छी तरह राज-काज चला सकेंगे। और सुरक्षा व्यवस्था भली प्रकार कर सकेंगे।राज्य में शाँति और सुरक्षा बनी रहने से प्रजा सुखी रहेगी। ऐसा सोचकर योगी ने उक्त फल नरेश को भेट कर दिया और साथ ही उसकी महिमा भी बता दी। भद्रहारी ने विचार किया कि इसे खा लेने पर उसका यौवन तो चिरस्थायी बना रहेगा, पर रानी का लावण्य तो चूकता चला जायेगा, फिर आकर्षण का आधार क्या रह जायेगा ? उसका अप्रतिम सौंदर्य ही मेरे जीवन की गतिशीलता है। सक्रियता और स्फूर्ति कदाचित उसके बिना संभव नहीं। अस्तु इसकी यथार्थ अधिकारिणी पिंगला ही हो सकती है उसे ही फल ग्रहण करना चाहिए। पिंगला किसी और पर आशक्त थी। उसने उसे अपने प्रेमी को दे दिया । इस प्रकार फल अंततः एक वराँगना के पास पहुँचा । शरीर से भले ही वह हेय कर्म में लिप्त भी पर मन की परोपकार प्रति अभी भी जिन्दा थी। उसने सोचा कि उसकी तुलना में सम्राट को इसकी कही अधिक आवश्यकता है। यदि स्वयँ उसे ग्रहण कर लिया तो वह अगणित लोगों को पाप कर्म के लिए ही प्रेरित करेगी जबकि राजा के द्वारा इससे प्रजा का उपकार होगा । यह निर्णय कर उसे भर्तृहरि को सौंप दिया।

सम्राट ने पहली ही दृष्टि में फल को पहचान लिया । उसने वस्तु स्थिति का पता लगाया कि पिंगला की चरित्र हीनता से उसे गहरा धक्का लगा। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वे गम्भीर सोच में पड़ गये।दिन भर की उधेड़ बुन के पश्चात भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके। रात्रि आई उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। व्यग्रता की स्थिति में आंखों में नींद नहीं थी । वे राज्य प्रसाद के एक एकान्त कमरे में अशान्त मन से टहल रहे थे। कि अचानक तुमुल निनाद के साथ महल की छत को भेदते हुए एक सौम्य सुन्दर देव विग्रह प्रकट हुआ। वैराग्य उपदेश करते हुए वह जिस प्रकार अभिभूत हुआ था उसी प्रकार अचानक अदृश्य हो गया। ऐसी विदेत्रंती है कि इसी के बाद नरेश में वैराग्य का उदय हुआ और राज पाट त्यागकर वे वन में रहने लगे।

विवेकानन्द तब तरण ही थे ध्यान-साधना और अध्ययन में किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थिति न हो इसलिए किराये के एक अलग मकान की उनके लिए व्यवस्था कर दी गयी। वे उसी में एकाँकी रहते थे। एक दिन अध्ययन कर रहे थे कि सामने की दीवार से एक चीवरधारी देव पुरुष मूर्तिमान होते दिखाई पड़े। पहले तो उन्होंने इसे नेत्रों का भ्रम समझा पर बार बार आँखों मलने पर वह धीर गम्भीर प्रतिमा उनके सम्मुख बनी ही रही, तो उन्हें कुछ भय हुआ और डर कर भागकर बाहर खड़े हुए । कुछ क्षण पश्चात जब उन्हें अपनी मूर्खता का भाव हुआ तो वह कमरे में प्रविष्ट हुए, किंतु तब तक वह मूर्ति तिरोहित हो चुकी थी। इस संबंध में विवेकानन्द कहा करते थे। कि संभव है कि वह देव विग्रह बुऋ देव की है और किसी विशिष्ट उपदेश के निमित्त उपस्थिति हुआ हो।

ऐसा ही एक प्रसंग मीरा बाई के जीवन का है।बात यह है कि बात उन दिनों की है, जब भोजराज का देहान्त हो चुका था । पति के निर्धन से उनका मन वैराग्य सागर में और भी निमज्जात हो गया। संसार के प्रति उनकी रुचि जो न्यूनाधिक थी, वह इस घटना से बिल्कुल ही समाप्त हो गयी । अब वह दिन भर रणछोड जी के मंदिर में ही पड़ी रहती है । वही पर एकान्त में वह अपने आराध्य से तरह तरह से बातें किया करती है कभी कभी यह उपक्रम देर रात तक चलता। दिन में साधु संतों का समागम कीर्तन भजन और रात्रि में विग्रह से एकान्त वार्ता यही उनका दैनिक क्रम था धीरे धीरे उनकी यह गतिविधियाँ बढ़ती ही गयी और उसी के साथ कृष्ण प्रेम का नशा भी गहराता चला गया । दूर दूर तक उनकी ख्याति पहुँच गयी और चारों ओर से योगी यति दर्शन करने आने लगे। प्रसिद्ध से दिल्ली के तत्कालीन बादशाह अकबर भी अपना लोभी संवरण न कर सके एवं वैष्णें वेश में तानसेन के संग चित्तौड़ आकर उनके दर्शन किये ।इन सब से वहाँ तत्कालीन राणा और भोजराज के छोटे भाई वँम सिंह क्रुद्ध हो गये पूरा परिवार मीरा की ख्याति से द्वेष करने लगा और तरह तरह से सताने लगा। ननद ऊदाबाई इन सब में आगे थी । आरम्भ में मीना इन यातनाओं को शाँतिपूर्वक सहती रही, पर जब प्रताड़नाएँ बढ़ने लगी तो रात में रण छोड़ जी की मूर्ति के समक्ष पदावलियों के माध्यम से वह इनका बयान करती और अपने प्रियतम से निवेदन करती कि दनुजता के इस कारागृह से वह जल्दी मुक्ति दिलाये। एक रात अपने इष्ट देव से इसी प्रकार आग्रह कर रही थी। नेत्र से प्रेमाक्षु बहे चलें आ रहे थे और वह उन्मत्त हुई अपनी व्यथा- कथा तथा स्वजनों का दुराचरण भक्ति के आवेग में गाती जा रही थी। सहसा रणछोड़ जी की मूर्ति दो भागों में विभक्त हो गयी।उससे एक अति सुन्दर बाल- गोपाल प्रादुर्भूत हुए। उस भुवन मोहिनी मूर्ति ने अपने बाल सुलभ चपलता से मीरा को आश्वस्त किया और कहा कि अब और आगे यातनायें सहनी नहीं पड़ेगी। वह तुरन्त उसकी लीला भूमि वृन्दावन के लिए प्रस्थान करें और वही रहें। आदेश मिलते ही उसी क्षण उनने राजमहल त्याग दिया और फिर कभी चित्तौड़ नहीं लौटी।

यह सारी घटनाएँ अनुराग की महिमा का बखान करती और बताती है कि यदि प्रेम को विकसित करते हुए परमेश्वर तक विस्तृत और विराट् किया जा सकें, तो दिव्य सत्ता का दिव्य संरक्षण हर कोई प्राप्त कर सकता है, पर इसका आरम्भिक अभ्यास घर-परिवार के छोटे दायरे में शुरू कर शनैः-शनैः व्यापक बनाते हुए विश्व स्तर तक पहुँचाना पड़ता है। इसमें सफलता मिलने के पश्चात ही परमसत्ता से अहैतुकी प्रेम कर सकना संभव हो सकता है। इस आलौकिक प्रेम के संपादन से आलौकिक सत्ता की आलौकिक अनुकम्पा भी भक्त पर बरसने लगती है, ऐसा भक्त रस के आचार्यों का कथन है।


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