अद्भुत और विलक्षण है यह सृष्टि

February 1996

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ईश्वर क्या है ?इसकी परिभाषा करते हुए सूत्रकार ने लिखा है - ‘ कर्तुमकुर्तमन्यथाकर्तुम शक्य ईश्वरः ‘ अर्थात् ईश्वर वह समर्थ सत्ता है, जो सब कुछ करने में अद्वितीय है। यदि ऐसा है तो फिर सर्वोपरि शक्ति के रूप में उसकी मान्यता उचित ही है। जिसके हाथों संसार की सम्पूर्ण शक्ति हो, जो सृष्टि का सृजेता हो, नियन्ता और पालन कर्त्ता हो, उसके लिए अघटित को घटित और असंभव को संभव बना देना क्यों कर अशक्य होना चाहिए ? निश्चय ही वह सत्ता ऐसा कर सकती है । गुह्य विज्ञान का सम्पूर्ण आधार अध्यात्म तत्वज्ञान की उसी धुरी पर टिका है। इस मूल धुरी को समझना ही अभीष्ट होना चाहिए। विश्व के इस सर्वोपरि गुह्य तत्व को जान लेने के उपरान्त फिर कुछ ऐसा निगूढ़ शेष नहीं रहता, जिसे समझ पाने में आत्म चेतना निरुपाय है। समय समय पर घटित होने वाले रहस्यमय प्रसंग इसी बात का आमंत्रण देते हैं कि हम उस परम तत्व को जाने, समझे और उस तक पहुंचने का उपाय करें।

घटना महात्मा रूप कला से संबंधित है । उनका पूर्व नाम भगवान प्रसाद था और वे शिक्षा विभाग में उपशिक्षा निरक्षक के पद पर कार्यरत थे।बात उन दिनों की है जब देश परतंत्र था। एक बार निरक्षण कार्य हेतु बेहटा (पटना) रेलवे स्टेशन से कई मील दूर दक्षिण पटना के एक देहात में गये थे । उन दिनों शिक्षा विभाग का डायरेक्टर जे0 क्राफट नामक एक अंग्रेज था । वह कलकत्ता से पटना आया हुआ था और उसी दिन कलकत्ता लौटने वाला था। इसी आशय का एक पत्र शिक्षा निरीक्षक आर. मार्टिन का उक्त ग्राम में भगवान प्रसाद को मिला, जिसमें उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि तत्काल पटना पहुँचकर संबंधित विषय की चर्चा शिक्षा निर्देशक से कर ले । जब वे पटना जाने के लिए बेहटा स्टेशन पर पहुँचे, तो वहाँ जाने की अंतिम गाड़ी जा चुकी थी। उधर पटना निर्देशक की गाड़ी चलने से बहुत कम समय रह गया था। भगवान प्रसाद को बड़ी चिंता हुई । इतने कम समय में वहाँ कैसे पहुँचा जाय ? वे प्लेटफार्म की बेंच पर बैठकर इसी उधेड़ बुन में पड़े हुए थे कि उन्हें थोड़ी झपकी आ गयी । जब आंखें खुली तो स्वयँ को किसी अन्य स्टेशन के प्रतीक्षालय में पाकर सहसा चौक उठे,बाहर जाकर उन्होंने स्टेशन जानना चाहा, तो सामने ही पटना जंक्शन का बोर्ड देखकर आश्चर्य चकित रह गये। वे अनायास बेहटा से पटना कैसे पहुँच गये, उनकी समझ में कुछ नहीं आया । समय कम था अतः वे क्राफट को ढूँढ़ने लगे।वह सामने ही दिख गये। उनसे आवश्यक विचार विमर्श किया और बिहटा लौटने के लिए अगली ट्रेन का इन्तजार प्रतीक्षालय में जाकर करने लगे।उनके मन में अभी अभी घटी घटना के संबंध में ऊहापोह चल रही थी कि पुनः आंखें झपक गयी ।तो वह यह देख कर घोर अचंभे में पड़ गये कि अब वे बिहटा स्टेशन पर है। पलक झपकते ही पुनः बिहटा कैसे पहुँच गये ?यह उनकी समझ से परे था । उक्त घटना का उनके मस्तिष्क पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि तुरन्त अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और एकान्त साधना करने लगे। कालांतर में वही महात्मा रूपकला के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इससे मिलती जुलती एक घटना उड़ीसा के रसिक सन्त रघुनाथ महापात्र से संबंधित है। रघुनाथ अपने पिता के इकलौते पुत्र थे । उनके पिता कृष्णानन्द एक बहुत बड़े जमींदार थे । वे जितने बड़े जमींदार थे, उतना ही विशाल उनका हृदय था। उनकी पत्नी भी वैसी ही उदारमना थी। एक बार उस क्षेत्र में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा । कृष्णानन्द ने इस प्राकृतिक विपदा को देखते हुए कृषकों से लगान वसूलना बन्द कर दिया। लोगों को इससे राहत तो मिली, पर अन्न के बिना जिन्दा कैसे रहा जाय, वे सभी परमार्थ परायणता और पर दुख कातरता के सजीव प्रतिमूर्ति जमींदार के दरवाजे पर अपनी करुण गुहार के साथ इकट्ठे होने लगे। जमींदार ने भी मुक्तहस्त से अन्न बाँटना प्रारम्भ किया।पर ऐसा कब तक चल सकता था, आय का स्रोत बन्द हो चुका था और व्यय भार लगातार बढ़ता ही जा रहा था। इससे जल्द ही वह ऋण भार से लद गये । इस कर्ज से उऋण कैसे हुआ जाय, इसकी चिंता करते करते शीघ्र ही इस लोक से विदा हो गये। पत्नी भी उनके साथ सती हो गयी। रघुनाथ की शादी हो चुकी थी । पत्नी अन्नपूर्णा का वय कम होने के कारण वह अभी तक माँ के घर ही रह रही थी। रघुनाथ यहाँ अकेले थे और अब अनाथ हो चुके थे। शरीर त्यागने से पूर्व पिता निर्देश दे गये थे कि यथासंभव ऋण चुका देना और जीवन में सत्य निष्ठ बने रहना। रघुनाथ के पास अब एक ही विकल्प बचा था कि घर द्वार, जमीन जायदाद सभी बेच दिया जाय और उससे कर्ज चुकता किया जाय, क्योंकि संपत्ति पिता के रहते ही लगभग समाप्त हो चुकी थी।जो थी वह जमीन व मकान के रूप में ही शेष बची थी। रघुनाथ इन्हें बेचकर ऋण मुक्त हो गये । पर अब वह बेघर थे कि इस तरह द्वार द्वार भीख माँगने की तुलना में किसी पवित्र क्षेत्र में जाकर भगवद् भक्तिपूर्वक जीवन बिताना कही अच्छा है। यह सोचकर वे पुरी के लिए रवाना हो गये।

उक्त समाचार तब उनकी ससुराल पहुँचा, तो सभी सोचने लगे कि अब क्या किया जाय ? अन्नपूर्णा को छोड़कर सब इस बात पर सहमत थे कि उस कंगाल को बेटी देने की तुलना में उसका पुनर्विवाह कर दिया जाय। पैसे से असंभव क्या है ? निश्चय ही वह परिवार धन की दृष्टि से सम्पन्न था, पर उसने कठोरता और नृशंसता सहृदयता की अपेक्षा कही अधिक बढ़ी चढ़ी थी, सो अन्नपूर्णा के लाख मना करने पर सबने राजमंत्री के पुत्र से विवाह निश्चय कर दिया। तिथि भी तय हो गयी।

उधर अन्नपूर्णा का बुरा हाल था। वह दिन रात रो रोकर भगवान से प्रार्थना करती कि किसी प्रकार उसकी सूचना रघुनाथ को मिल जाय और वे यहाँ आ जाय। ठीक उसी समय कुछ पड़ोसी पुरी की यात्रा को निकल रहे थे ।अन्नपूर्णा ने उन्हें एक पत्र दिया, जिसमें पूरी परिस्थिति का विस्तृत विवरण देते हुए, उनके यहाँ उपस्थित होने की विनती की गयी थी, साथ ही अपने मत का उल्लेख करते हुए यह भी लिखा था कि दूसरी शादी किसी भी कीमत पर नहीं कर सकती है, आप आयें अथवा नहीं । विवश किये जाने पर प्राण त्याग देगी।

पत्र पाकर रघुनाथ व्याकुल हो उठे । उनकी बेचैनी का कारण था कि पुरी से उनके ससुराल का मार्ग एक महीने का था और विवाह होने में मात्र पन्द्रह दिन शेष थे। वे किस भाँति वहाँ पहुँचे ? कुछ भी समझ में न आने पर भगवान से प्रार्थना करने लगे और रात्रि भर करते ही रहे। प्रातःकाल थोड़ी नींद आ गई । आंखें खुली तो सामने भगवान जगन्नाथ का मंदिर न पाकर कुछ चौंके । चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो बिल्कुल अपरिचित जैसा स्थान जान पड़ा। मंदिर की जगह व अब एक हवेली के सामने थे ।राहगीरों से जब स्थान और मकान का परिचय पूछा तो पता चला कि अपनी ससुराल के सामने उपस्थित है।सोते सोते वे यहाँ कैसे पहुँच गये ?यह बात समझने में उन्हें तनिक भी कठिनाई नहीं हुई ।इसे वह भली भाँति जान चुके थे, कि ऐसा भगवान की असीम अनुकम्पा से ही संभव हुआ है। इसके बाद वे पत्नी अन्नपूर्णा को लेकर पुरी चले गये और आजीवन वहीं रहें।

बंगाल के प्रसिद्ध सन्त रामदास के जीवन में एक ऐसी ही अद्भुत घटना है। वे काली भक्त थे ।पर न जाने क्यों हिमालय दर्शन की तीव्र अभिलाषा उन्हें रह रहकर बेचैन कर देती। वे इतने निर्धन थे कि स्वयं के बूते वहाँ पहुँच नहीं सकते थे। आय का कोई साधन था नहीं। जो थोड़े पैसे मुन्शीगीरी से मिल जाते थे, वह नौकरी भी उनने भक्ति के आवेश में छोड़ दी थी। फिर हिमालय-दर्शन की साथ कैसे पूरी हो ? वह कुछ समझ नहीं पा रहे थे। इच्छा की उपेक्षा करते भी नहीं बन पड़ रहा था, कारण कि वह इतनी प्रबल और आवेगपूर्ण थी कि उन्हें आकुल-व्याकुल किये दे रही थी। हार कर जगत जननी काली से इसकी किसी प्रकार व्यवस्था कर देने को कहने लगे। कई दिनों के मनुहार का जब कोई असर नहीं हुआ, तो अन्न-जल त्याग दिया। एक दिन और एक रात निराहार रहते बीत गये। दूसरा दिन और दूसरी रात्रि भी ऐसे ही गुजर गये। उनकी विकलता बढ़ने बढ़ने लगी। वे कातर अन्तःकरण से काली को पुकारने लगे। नेत्र से निरन्तर अश्रु-धरा बह रही थी। आज का दिन भी बिना खाये ही गुजर गया। रात्रि आयी। उनकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। काली के चित्र के आगे माथा टेका और भाव-विह्वल अन्तराल के क्रन्दन करने लगे। स्थान अश्रुपात से पूर्णतया भीग गया। विह्वलता इतनी थी कि बेसुध हो गये। कुछ समय पश्चात ठण्ड लगने की अनुभूति हुई तो उठ बैठे। स्वयं को सक शिलाखण्ड पर पाकर हैरान हुए। सामने सघन वन था किसी जलधारा की कल-कल भी स्पष्ट कर्णगोचार हो रही थी। थोड़ी दूरी पर आग जलती दिखाई पड़ी, शायद किसी साधु की धूनी हो। सन्त रामप्रसाद ने इतना तो अनुमान लगा लिया कि यह उत्तराखण्ड का ही कोई क्षेत्र होना चाहिए, पर अनुमान को पक्का करने के लिए वे धूनी की ओर बढ़ गये। साधु के सम्मुख उपस्थित होकर उनने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, तो उत्तर मिला कि यह ‘उत्तरकाशी’ है। सूर्योदय होने तक वे वहीं ठण्ड निवारण करते रहे। इसके उपरान्त दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर हिमालय-दर्शन के लिए निकल पड़े उस क्षेत्र में दिन तक घूमने-फिरने के पश्चात् उनका मनोरथ पूरा हो गया। अब वे वहाँ कुछ कठिनाई भी अनुभव करने लगे थे। पुनः उसी शिलाखण्ड पर तीसरे दिन बैठे-बैठे काली की कृपा का स्मरण कर तन्मय होकर गा उठे-

एमन दिन के हबे तारा, ज्बे तारा-तारा बले तरा बये पड़बे धारा, दि पद्य उठबे फुटे, मने आँधार जाबे छुटे।

.....तन्मयता गीत समाप्ति के साथ ही भंग हो गई। आंखें खुली तो सामने काली का चित्र दीख रहा था। उसने अपने को स्वयँ को कोठरी में बैठे पाया। इस दृश्य से एक बार पुनः उनके नेत्र नम हो गये । भाव प्रवणता के कारण जलधारा फिर से चली।

ये गुह्य विज्ञान के प्रसंग हैं। सर्वसाधारण को यह आश्चर्यजनक इसलिए लगते हैं, क्योंकि सामान्य दृश्य और सामान्य घटना की तरह यह आम नहीं होते। यदि ऐसा हो जाय, तो जायेगी और मनुष्य को फिर ये विलक्षण प्रतीत नहीं होंगे। विलक्षणता की सारी नाप-तौल यहीं तक सीमित हैं। यदि इस परिधि से बाहर निकल कर सोच सकें, तो हम पायेंगे कि ईश्वर की इस सृष्टि में अद्भुतता के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। यह तो अपनी-अपनी दृष्टि है कि कौन किसे, किस रूप में ग्रहण करता, स्वीकारता और उसकी व्याख्या विवेचना करता है। देखने वाले अच्छाई में भी बुराई देख लेते और उत्कृष्टता में निकृष्टता ढूँढ़ निकलते हैं, पर सतोगुणी की दृष्टि यही होती है कि वह विष में भी अमृत की तलाश करें। यही वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा संसार के रचयिता तक सरलतापूर्वक चहुं ओर उसे भली-भाँति जाना-समझा जा सकता है। इस सर्वोपरि अचम्भे को समझ लेने के उपरान्त शेष को समझना कठिन नहीं रह जाता, ऐसा गुह्य विद्या विशारदों का सुनिश्चित मत है।


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