आज मन की तपन दूर कर पायेगी, धर्म अध्यात्म की दिव्य अमराइयाँ।
आदमी द्वेष की गोद में पल रहा, खुद जलाई हुई आग में जल रहा, लोभ-लिप्सा भीर फिसलने हैं बहुत, पाँव ठहरें न, अब वह मनोबल रहा, एक ही रास्ता अब बचा है यहाँ, अन्यथा बढ़ रही ध्वंस परछाइयाँ।
धर्म का स्नेह से फिर नाता रहा, धर्म मन में उजाला बढ़ाता रहा, जब कठिन जंगलों में उलझते कभी, धर्म सीधा सुपथ है दिखाता रहा, व्यर्थ हम खोदते जा रहे रात-दिन, धर्म के नाम पर खंदके-खाइयाँ।
जो हृदय को निकट ला सके,धर्म है, पा जिसे फिर न दुख पा सके, धर्म है, क्षुद्र संघर्षरत आदमी को यहाँ, प्यार का मर्म समझा सके, धर्म है, रह सके फिर न उथला किसी का हृदय, भावना को मिले मौन गहराइयाँ।
धर्म, जो विश्व की चेतना दे हमें, आत्म का मधुर स्वर सुना दे हमें, स्वार्थ के दायरे लाँघकर हम बढ़ें, इस तरह देवमानव बना दे हमें, धर्म ही संकटों का समाधान है, विश्व पा जायेगा श्रेष्ठ ऊँचाइयाँ।