रंग बिरंगे फूलों की सुशोभित छटा एवं मोहक सौंदर्य सहज ही उस रास्ते पर आने वाले के मन को आकर्षित कर लेता था। फूलों की सुरभित गंध मन को मदमस्त बना देती थी। अपने पावन चरणों से अपनी परम भक्त शबरी की कुटिया को कृतार्थ करने भगवान आज स्वयं जा रहे थे। राह के दोनों ओर लगे ये रंग बिरंगे फूल झूम झूम का उनका अभिनन्दन कर रहे थे।
कुटिया अपने इष्टदेव प्रभू श्रीराम को देखकर शबरी भाव विह्वल हो उठी । उसकी आँखों से आनन्द और प्रसन्नता के अश्रु टपकने लगे। पदरज को माथे पर धारण करके उनके चरणों को पवित्र जल से धोया, उन्हें आसन पर बिठाकर कुछ खिलाने की तैयारी करने लगी।
शबरी की श्रद्धा से अभिभूत भगवान श्रीराम के मन में फूलों का सौंदर्य, उनका बिखरना सौरभ अभी भी महक रहा था। सहज जिज्ञासा वश उन्होंने शबरी से पूछ लिया कि मोहक फूलों को किसने लगाया है ?
उनके इस सवाल का वृद्धा शबरी के मन में अतीत की अनगिनत यादें कौंध गई। उन्हें शब्दों के सूत्र में पिरोते हुए वह कहने लगी भगवान्।
एक ऋषि कुछ दिनों पहले यहाँ रहा करते थे, जिनका नाम मातंग था। ऋषि जितने प्रचण्ड तपस्वी थे, उतनी ही प्रखर प्रज्ञा थी उनकी। लोक कल्याण की भावना तो जैसे उन में कूट कूटकर भरी थी। इस भावना को परितृप्त करने के लिए उन्होंने यहाँ आश्रम की व्यवस्था बनायी। महर्षि की चारों दिशाओं में फैली ख्याति से आकर्षित होकर विद्यार्थी विद्याध्ययन और जनसेवा का प्रशिक्षण लेने यहाँ आते थे। लोक कल्याण से निरत होने वाले ऋषियों मुनियों को ठहरने को भी यहाँ समुचित व्यवस्था रहती थी। विश्व वसुन्धरा को सुन्दर बनाने एवं प्राणी मात्र के कल्याण के लिए यहाँ शोध कार्य, प्रशिक्षण एवं तपश्चर्या के अनेकों क्रिया कलाप चलाये जाते थे।
एक बार आश्रम में भोजन आदि बनाने की लकड़ी का अभाव हो गया।वर्षा ऋतु भी आने ही वाली थी। आश्रम में रहने वाले विद्यार्थी इस तथ्य से अवगत थे कि बरसात आने वाली है और लकड़ी का अभाव है। वर्षा से पूर्व इतनी लकड़ी की व्यवस्था कर लेनी चाहिए कि जिससे चार मास बरसात में ईंधन का काम चल सके।यह जानते हुए विद्यार्थी उपेक्षा कर रहे थे तथा श्रम से बचना चाहते थे। विद्यार्थियों के छाये हुए अवसाद और व्यवस्था को देखकर मातंग ऋषि चिंतित हो उठे, श्रम देवता का अपमान वह भी ऋषि आश्रम में, भला यह कैसे हो सकता था ?
उन्होंने बिना किसी से कुछ कहें, स्वयँ जंगल में पहुँच कर लकड़ी काटना प्रारम्भ कर दिया। उन्हें प्रायः जंगल की ओर जाते देखकर सभी विद्यार्थियों और आचार्यों ने सोचा था कि महर्षि ध्यान उपासना के लिए वन की ओर गये होंगे। किन्तु जब सब ने उन्हें अपने सिर पर लकड़ियों का भारी गट्ठा उठाये आते हुए देखा तो वस्तु स्थिति से अवगत होते देर न लगी।
भारत के सुविख्यात आश्रम के कुल पति, राजा-महाराजाओं, ऋषि मनीषियों से पूजित महर्षि मातंग के इस कार्य ने सभी को झकझोरा कर रख दिया। सब अंतःकरण उद्वेलित हो उठे। आलस्य की चादर ओढ़कर सोये आश्रम के विद्यार्थियों पर तो घड़ों पानी पड़ गया । सब के सब उनके पीछे कुल्हाड़ी लेकर जंगल की आरे दौड़ पड़े।
सभी वन में पहुँचकर लकड़ी काटने लगे। तीसरे पहर विद्यार्थी गण अपने अपने सिर पर भारी लकड़ी के गट्ठर लादे आश्रम की ओर लौट पड़े। शरीर से पसीना निकल कर गिरता जा रहा था, तथा सभी प्रसन्न थे और एक आलौकिक अनुभूति का अनुभव कर रहे थे। उस दिन विद्यार्थियों की छुट्टी कर दी गयी। कठोर श्रम और मन प्रफुल्लित होने के कारण सब जल्दी सो गये।
प्रातःकाल ब्रह्म बेला में ऋषि उठे। विद्यार्थियों को साथ लेकर स्नानादि के लिए चल पड़ें। एकाएक ऊष्माकालीन वायु के झोंके के साथ मन को प्रसन्न करने वाली सुगंध आने लगी सभी विद्यार्थी आश्चर्य से युक्त स्वर में ऋषि से पूछने लगे- “पूज्यवर । यह सुगंध आज कहाँ से आ रही है ?”
मातंग ऋषि मुस्कुराते हुए बोले, आओ स्वयँ पता लगाओ। हिरन के समान कुलाचें भरते हुए बच्चे दौड़ पड़े । उन्होंने देखा जंगल से लकड़ी सिर पर लाते जिन जिन स्थानों पर आश्रम वासियों का पसीना गिरा था, उन उन स्थानों पर एक एक पुष्प सुन्दर डालियों में मुस्कुरा रहा था। यह प्रसंग सुनते ही अतीत की यादों से विभोर शबरी ने कहा - हे राम । वे मोहक पुष्प पसीने से उत्पन्न हुए हैं। इनसे उड़ने वाली सुगंध श्रम की सुगंध है।