दिव्य औषधियों से होता है आध्यात्मिक कायाकल्प

February 1996

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अध्यात्म तत्व ज्ञान का सार यही है कि चेतन सत्ता का वाहक मानव शरीर है और उसे प्रकृति के अन्य घटकों की तरह निर्धारित नियम मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। शरीर की स्वाभाविक संरचना इतनी अद्भुत है कि यदि हम असामंजस्य, अस्तव्यस्तता न लादी जाय तो वह शतायु की न्यूनतम परिधि को पार कर सैकड़ों वर्ष जी सकता है।मरण तो प्रकृति धर्म है, पर किसी तरह मरते खपते, जीर्ण शीर्ण स्थिति में जाना मनुष्य का स्वयँ का उपार्जन है।

आरम्भ से सही मार्ग पकड़ लिया जाय तो कहना ही क्या ?अन्यथा मध्य काल में भी उचित दिशा मिलने पर रुख बदलना, स्वयँ में सुधार ला सकना संभव है। आध्यात्मिक कायाकल्प के रूप में सभी तप तितिक्षाएँ प्रायश्चित रूपी साधना उपक्रम उच्चस्तरीय विशिष्ट भाव योग की साधनाएँ एक प्रकार से आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक उपचार उद्देश्य लेकर ही निर्धारित की जा रही है।

आयुर्वेद कायाकल्प में आहार साधना द्वारा संयमशीलता का अभ्यास कराया जाता है। यह विग्रह प्रक्रिया है। निरोध के बाद सुनियोजन हेतु अनिवार्य है की पदार्थ की कारण शक्ति द्वारा आँतरिक उपाय अंग अवयवों की चिकित्सा का क्रम बिठाया जाय। उपवास युक्त तितिक्षा में एक आहार को ग्रहण की गई साधना जितनी फलदायी है, उतनी ही एक ही जड़ी बूटी से, दिव्य वनौषधि से अपने अंतरंग में नव जीवन देने वाली कल्प चिकित्सा भी महत्वपूर्ण है। इतनी अधिक महत्वपूर्ण व अद्भुत कि उसके बिना कल्प क्रिया का उद्देश्य ही पूरा नहीं होता । काय साधनों से आरोग्य लाभ मिलता है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। परन्तु तपश्चर्या से ऊर्जा व संयम जन्य मनोबल के सामर्थ्य की दिव्य औषधि का सेवन क्रम का भी जब जीवनचर्या में समावेश हो जाता है तो योग साधनाओं के वे सभी लाभ मिलने लगते हैं जिनकी चर्चा गृह विज्ञान के पृष्ठों में की जाती है।



मेधा वर्धन उत्तेजना शमन, दुर्बलता निवारण तथा वात आदि प्रकोपों से पीड़ित काया के दोष शमन हेतु इससे श्रेष्ठ कोई औषधि नहीं। बुढ़ापे का नाश, शतायु प्राप्ति स्मरण शक्ति की वृद्धि, मनोविकारों का निवारण ऐसे आँतरिक लाभ है जो नित्य 30 से 40 ग्राम ब्राह्मी कल्प सेवन 30 दिन तक करने से सहज ही प्राप्त होते हैं। जप, उपवास, शोधन, आहार उपचार तथा योग साधनाओं के भव्य योग परक क्रिया प्रयोगों के साथ इसे सेवन किया जाता है तो आत्मिक उत्कर्ष में महत्वपूर्ण योगदान मिलता है। ब्राह्मी को कुछ विशिष्ट औषधियों की भावना देकर कल्प बनाने से विशिष्ट लाभ मिलता है। एक माह तक ब्राह्मी का निरंतर सेवन आयु, बल तो बढ़ाता ही है, वर्ण को सुन्दर, वाणी को मधुर तथा वृद्धि को तीव्र करता है।काया कल्प के लिए मात्रा को बढ़ाकर वर्ष भर अनुपान सेवन का शास्त्रों में विधान है। काया कल्प प्रक्रिया में ब्राह्मी का कल्प अभिमंत्रित पुष्पों के रस की भावना के साथ साधकों के लिए कहा जाता है । सरस्वती पंचक की एक महत्वपूर्ण औषधि की आध्यात्मिक संदर्भ में सब भली भाँति परिचित है।

शंखपुष्पी भी एक मेध्य औषधि है। इसके भी पंचांग का कल्प बनाकर दूध में मिश्रित कर प्रातः पुष्प रसों के साथ इसे देते हैं। आयुष्य की वृद्धि, एकाग्रता और आसन सिद्धि, मेधा शक्ति की वृद्धि तथा जीवनी शक्ति में अप्रत्याशित परिवर्तन करके महत्वपूर्ण लाभ है। आत्मिक उपचारों में इसका नाम ब्राह्मी के साथ लिया जाता है। साधकों के लिए तो इसे नव जीवन देने वाली सोपानों पर चढ़ाने वाली दिव्य औषधि माना जाता है।

अश्वगंधा और शतावरी दोनों ही रसायन है, बल्य है। तप संयम द्वारा जब विकारों का शमन होता है तब इसका सेवन बल बढ़ाने वाला प्रतिरोधी सामर्थ्य को ऊँचा उठाने वाला माना जाता है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए इच्छुक साधकों के लिए ये किसी भी प्रकार से बाधक नहीं है। इन्हें कामोत्तेजक अवश्य माना जाता है पर जहाँ निग्रह के साथ नियोजन है, वहाँ संचित सामर्थ्य से विशिष्ट ऊर्जा उत्पादन में ये जो योगदान देती है उसकी जितनी चर्चा की जाय कम है।भाव कल्प संबंधी इनके महात्म्य से ग्रंथों के पृष्ठ रंगे पड़े है।

आध्यात्मिक काया कल्प की साधना का उद्देश्य व्यक्ति को मात्र निरोग, दीर्घायु बनाना ही साधक के व्यक्तित्व को आमूलचूल बदल देता है। संयम अकेला काफी नहीं। कुसंस्कार घटने के साथ आँतरिक प्रखरता न बढ़े तो योगाभ्यास व साधनाएँ वे प्रायोजन पूरे नहीं कर पाते, जिनके लिए उनका विधान किया जाता रहा है। एकान्त सेवन, अंतर्मुखी चिंतन, आहार नियमन तथा दिव्य औषधि के साथ की गयी तप योग साधनाएँ किस प्रकार व्यक्ति का स्वरूप बदल देती है, उसे नया जीवन देती है, इसे देखकर कोई भी आश्चर्य चकित हो सकता है। कोई कारण नहीं है कि च्यवन, ययाति की तरह आज भी व्यक्ति समुदाय का कायाकल्प नहीं किया जा सका। यह पूर्णतः वैज्ञानिक परीक्षित एक अध्यात्म उपचार प्रक्रिया है, इसे साधक साधना विधि में अनुभव कर सकता है।

यदि यह उच्चस्तरीय स्वरूप न भी बन पड़े तो यह मानकर चलना चाहिए कि आहार चिकित्सा, दिव्य औषधि कल्प, तितीक्षा, उपवास तथा योगसाधना की प्रक्रियाओं के सम्पुट शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य के रूप में, दीर्घायुष्य तथा संकल्प शक्ति के ऐसे अनुदान मिलते हैं जो आत्मिक प्रगति के लिए इच्छुक साधक को सामान्य से असामान्य स्थिति तक पहुँचा देते हैं।औषधि कल्प को शरीर स्वास्थ्य तक सीमित कर गौण नहीं बना देना चाहिए। पंचकर्म आदि के माध्यम से शोधन का शरीर चिकित्सा का शास्त्रोक्त विधान चिर पुरातन काल से निर्देशित चला आया है।

आँवला, पलाश, हरीतकी, पीपल, शिलाजीत, ब्राह्मी, गिलोय, त्रिफला, गोक्षुर, भल्लातक, सुवर्ण आदि की चर्चा कल्प चिकित्सा संबंधी शास्त्रों में होती है। इसमें अन्य प्रकार के आहार कल्पाँ दुग्ध अथवा मठा कल्प का भी प्रावधान रखा जाता है। एनीमा द्वारा नियमित सफाई तथा पर्पटी के सेवन को भी अनिवार्यता माना जाना चाहिए। परन्तु इन सभी को आज की परिस्थिति के अनुरूप एक सरल विधान नहीं माना जाना चाहिए। यदि उद्देश्य की पूर्ति करनी ही है तो क्यों न शरीर व मन पर प्रभाव डालने वाली औषधि के एकाकी प्रयोग को महत्व दिया जाय ? जब उपवास प्रक्रिया एवं तितीक्षा प्रक्रिया के उद्देश्य की पूर्ति एक ही अन्न से चिकित्सा कराने के रूप में किये जाने का विधान बना लिया गया तो क्यों न इस कार्य के लिए पाँच दिव्य औषधियों कार निर्धारण कर लिया जाय ताकि उन्हें ताजे स्वस्थ रूप में संस्कारित करके ग्रहण करने से कुसंस्कारों का निष्कासन एवं प्रगति की दिशा में अग्रगमन के विभिन्न प्रायोजन पूरे हो सके ? यही विचार शाँतिकुँज के सत्र संचालकों पूज्यवर एवं वंदनीय माता जीने इच्छुक साधकों के लिए पाँच ऐसी औषधि चुनी जिसे ऋषिगण मात्र साधना के उद्देश्य सो अपने आध्यात्मिक कायाकल्प के रूप में प्रयुक्त करते थे। आँवला, पलाश, हरीतकी, पीपल, शिलाजीत, ब्राह्मी, गिलोय, त्रिफला, गोक्षुर, भल्लातक, सुवर्ण के रूप में दिव्य वनौषधियों कमोध्यम से कल्प के युग ऋषि द्वारा निर्देशित विधान माना जाय एवं न्यूनाधिक रूप में हर साधक इनका सेवन करता रहे, यही उपेक्षा ऋषि युग्म की रही है।

आध्यात्मिक कायाकल्प का इच्छुक साधना, उपवास, जप, स्वाध्याय, सत्संग, कुटि प्रवेश, एकाँत और अंतर्मुखी साधना जैसे दैनिक कृत्यों की पूर्ति तो शास्त्र परम्परा के अनुसार करते ही है। पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवधि अंतर्जगत की गुत्थियों को सुलझाने के लिए किये जाने वाले संयम के लिए होता है। इस क्रिया रहित प्रक्रिया को आध्यात्मिक कल्प के मेरुदण्ड आधार केन्द्र कहा जा सकता है। चिंतन मनन के इन दो साधनों को तपश्चर्या अनुसंधान की पृष्ठ भूमि माना जा सकता है। प्रायश्चित के विभिन्न पक्ष भी इस पूर्वार्ध में सन्निहित है। उत्तरार्द्ध और भी अधिक महत्वपूर्ण है जिसमें प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाये जाते हैं। आत्म परिष्कार के बाद यदि मन व अंतर्जगत के क्रमबद्ध दिशा नहीं मिलेगी तो उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। औषधि सेवन को इसलिए महत्व दिया गया है एवं निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि शरीर की सूक्ष्म आध्यात्मिक संरचना इससे प्रभावित, उत्तेजित हो और प्रसुप्त जागरण में भाव योग की उच्चस्तरीय स्थितियों में पहुँचने का साधक को अवसर मिल सके ।

सीधे कारण शरीर को प्रभावित करने वाली इन औषधियों में तुलसी का स्थान सर्वोपरि है। यह एक प्रकार की संजीवनी बूटी है एवं सभी रोगों की स्वयँ में निराली औषधि है। तुलसी की सूक्ष्म सामर्थ्य, सात्विकता सर्व विदित है। जल में तुलसी के पत्र दल डालकर लिया गया चरणोदक साधक के लिए आत्म निग्रह का सर्वश्रेष्ठ साधन शास्त्रों में बताया गया है। सामान्यता कायाकल्प संबंधी शास्त्रों के कल्प तंत्रों में रसायनों का ही वर्णन अधिक मिलता है। परन्तु तुलसी जैसी औषधि जो रसायन कर्म से कही अधिक श्रेष्ठतम गुणवत्ता धारण करती है, का वर्णन चिर पुरातन आर्य ग्रंथों के अतिरिक्त कहीं मिलता नहीं। तुलसी के रामा, श्यामा, बेसिल, मरुवा वन तुलसी, कपूर तथा अजवाइन जैसी तुलसी नामक के कई भेद प्रचलित है। अध्यात्म, उपचार, प्रकरण में हमेशा रामा और श्यामा तुलसी का ही प्रयोग होता है। ये ही सर्वोपलब्ध सर्वप्रचलित भी है। ग्रंथ लिखते है:-

महा प्रसाद जननी, सर्वसौभाग्यवर्धिनी। आधिव्याधि हरेर्नित्यं तुलसित्वं नमोस्तुते॥

अर्थात् “हे तुलसी ! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली है। सदा आधि व्याधि को मिटाती हैं, आपको नमस्कार है।”

आधि व्याधि निवारण शब्द में कुसंस्कार, निष्कासन एवं स्वास्थ्य संवर्धन, सद्गुण प्रतिष्ठान के सिद्धाँत गुंथे हुए हैं। शास्त्रकार लिखते है-

त्रिकाल विनता पुत्र प्राशर्य तुलसी यदि। विशियष्ते कामशुद्धिश्चाद्रियाण शतं बिना॥

अर्थात् -” हे विनता पुत्र ! प्रातः मध्याह्न तथा शाम को, जो तीन संस्थाओं में तुलसी का सेवन करते हैं उसकी काया वैसी ही शुद्ध हो जाती है, जैसी कि सैकड़ों चांद्रायण व्रतों से होती है। वस्तुतः तुलसी एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक कायाकल्प योग है। शरीर का वाह्य आँतरिक शोधन कर यह सामर्थ्य बढ़ाती है, चिंतन के सतोगुण प्रधान तथा चरित्र को निर्मल बनाती है। कल्प चिकित्सा विज्ञान में तुलसी पत्रदल चूर्ण को गंगा जल में संकरित किया जाता है और कल्क रूप में उसे नियमित रूप से 30 से 60 ग्राम की मात्रा का सेवन करने का विधान बनाया गया है।

ब्रह्म का कुटी प्रावेशक विधि से काया कल्प विधान का प्रसंग शास्त्रों में मिलता है।


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