अध्यात्म दर्शन का मर्म

February 1996

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मानवी सत्ता शरीर और आत्मा का सम्मिश्रण है। शरीर प्रकृति पदार्थ है । उसका निर्वाह स्वास्थ्य सौंदर्य, अन्न- जल जैसे प्रकृति पदार्थों पर है। आत्मा चेतन है । चेतन का भण्डारण है परमात्मा । आत्मा ओर परमात्मा की जितनी निकटता, घनिष्ठता होगी उतनी ही अंतराल समर्थ होगा। शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता जिस अनुपात में बढ़ती है उतना ही आत्मा परमात्मा के बीच आदान प्रदान चल पड़ता है। महानता के अभिवर्धन का यही मार्ग है । शरीर को प्रकृति की समीपता अनुकूलता मिले । आत्मा को पवित्रता और प्रखरता से सुसम्पन्न होने का अवसर मिले । इसी निर्धारण पर सच्ची प्रगति एवं समृद्धि अवलम्बित है।

दो तालाबों के बीच नाली का संपर्क संबंध बना देने से ऊँचे तालाब का पानी नीचे तब तक आता रहता है जब तक की दोनों की सतह समान नहीं हो जाती। आत्मा और परमात्मा को आपस में जोड़ने वाली उपासना यदि सच्ची हो तो उनका प्रतिफल सुनिश्चित रूप से होना चाहिए कि जीव और ब्रह्म में गुण कर्म और स्वभाव की ममता दृष्टि गोचर होने लगे। उपासना निकटता को कहते हैं। निकटता अर्थात् एकता- घनिष्ठता। आग और ईंधन निकट आते हैं तो दोनों एक रूप के हो जाते हैं। इसके लिए साधक को साध्य के प्रति समर्पण करना होता है। उसके अनुशासन को जीवन नीति बनाना पड़ता है। तो इतना साहस और सद्भाव जुटा सके वह सच्चा भक्त। भक्त और भगवान की एकता प्रसिद्ध है। भक्त को अपनी आकाँक्षा, विचारणा, आदत एवं कार्य पद्धति में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश करना पड़ता है। आदर्शों का समुच्चय भगवान ही, भक्त का इष्ट एवं उपास्य है।

बेलें पेड़ों पर लिपट जाती है और जमीन पर रेंग सकने की स्वल्प सामर्थ्य से आगे बढ़कर पेड़ की चोटी तक उठती बढ़ती चली जाती है।अपना सिर उठाने वाले के हाथ सौंपने और उसके संकेतों का अनुसरण करने वाली पतंग पंख न होने पर भी आकाश में उड़ती है। नाला नदी से मिलकर हेय नहीं रहता, वरन् गंगा के समान पवित्र हो जाता है । लोहा पारस से घनिष्ठता स्थापित करके स्वर्ग बनता है । अमृत पीने पर मुर्दा नव जीवन पाता है। कल्प वृक्ष की छाया में बैठने वाला निहाल हो कर रहता है। यह उदाहरण आत्मा की घनिष्ठता परमात्मा के साथ सधने के है । चंदन के निकट उगे उगे हुए झुंड झंखाड़ भी सुगन्धित होते हैं स्वाति जल को आत्मसात करने वाली सीप रत्नगर्भा बनती हैं। पोले बाँस का टुकड़ा वादक के होठों से लगकर वंशी कहलाता और राग रागनियों को मनोरम उद्गम बनता है। बाजीगर के हाथों अपने धागे बँधा लेने पर लकड़ी की खपच्चियाँ

कठपुतली का नाच नाचती और प्रशंसा पाती हैं। बूँद समुद्र में मिलकर तुच्छ से महान बनती है । दूध में मिल जाने पर पानी भी उसी भाव बिकता है ।

यही भक्त और भगवान की एकता में होता और । उस एकता का रु आत्म समर्पण है। समर्पण अर्थात् अहंता और आकाँक्षा का समापन साथ ही ईश्वरेच्छा उसकी प्रेरणा आकांक्षा उत्कृष्टता एवं विशालता का अन्तः करण में अवधारण । पत्नी पति के प्रति ऐसा ही समर्पण करती है और बदले में उसकी प्रतिष्ठा, प्रतिभा एवं स्नेहसिक्त आत्मीयता का पूरा लाभ उठाती हैं।

ईश्वर भक्ति का यही स्वरूप है । न इससे कम में काम चलता है न अधिक करना पड़ता है । बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़ा रहने पर ही बल्ब, पंखे हीटर, आदि गतिशील रहते हैं । सम्बन्ध कट पर वे बहुमूल्य उपकरण निष्क्रिय पड़े रहते हैं। ईश्वरीय घनिष्ठता से विमुख व्यक्ति नर पशुओं की तरह शिश्नोदर परायण रह सकते हैं पर आत्मिक प्रगति के अधिकारी नहीं बन सकते विश्वास की समर्पण भक्ति की महती आवश्यकता है ।

उपसाय परमेश्वर आदर्शों के संचय को समझा जाना चाहिए। भगवान की प्रतिमाओं के पीछे उच्चस्तरीय चिंतन चरित्र की भावना है । वह भावना न हो तो प्रतिमायें खिलौना भर रह जाती है । सदाशयता के प्रति प्रगाढ़ आस्था बनाने में जिसका अन्तराल जितना सफल हुआ वह उसी स्तर का भगवान भक्त हैं । भक्त का गुण कर्म, स्वभाव ईश्वर के सहचर पार्षदों जैसा होना चाहिए जिस ईश्वर भक्ति के प्रतिफलों का वर्णन स्वर्ग मुक्ति ऋद्धि सिद्धि आदि के रूप में किया गया है उसमें एकत्व अद्वैत, विलय विसर्जन की शर्त है साधक भगवान को आत्मसात करता है और उसके निर्धारण, अनुशासन को अपनाने को ही गर्व -गौरव और हर्ष, संतोष अनुभव करता है

अपनी निकृष्टता यथावत बनाये रहना । पात्रता और पुरुषार्थ का व्यतिरेक करके नियन्ता से चित्र - विचित्र मनोकामनाओं के लिए दबाव डालना दुराग्रह करना, भक्ति भावना के सर्वथा विपरीत है। शरब्उ जंजाल से फुसलाने, छुटपुट उपहार देकर बरगलाने और स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बहेलिया, मछुआरे जैसे छद्म प्रदर्शनी की विडम्बना रचना न तो ईश्वर भक्ति है और न उसके बदले किसी बड़े सत्परिणाम की आशा की जानी चाहिए। ईश्वर न्यायकारी है। उसके दरबार में पात्रता ही अधिक अनुग्रह एवं अनुदान के कारण होती है । यह कार्य प्रार्थना, याचना के रूप में पूजा अर्चना मात्र करते रहने से शक्य नहीं है। ईश्वर भक्ति कर्मकांड प्रधान नहीं है। इसमें भावना, विचारणा और गतिविधियों की अधिकाधिक उत्कृष्टता बनाना होता है। उसकी उपेक्षा करके मनुहार तक सीमित व्यक्ति आत्मिक उपलब्धियों से वंचित ही रहते हैं। उनके पल्ले थकान, निराशा और खोज के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता ।

संसार के हर क्षेत्र में पात्रता के अनुरूप अनुदान मिलने का नियम है। यही प्रचलन अध्यात्म क्षेत्र में भी है। कोई अपनी बेटी किसी भी याचना करने वाले को दे, दें, ऐसा नहीं होता जमात की क्षमता उपयुक्त हर कसौटी पर परखी जाती है, जो जीतते हैं वे नियुक्त होते हैं। दंगल में वही पहलवान पुरस्कृत होते हैं, जो कुश्ती पछाड़ते हैं। छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे नम्बर लाते हैं । प्रार्थना करने भर से बैंक मैनेजर किसी को हुँड़ी नहीं भुनते हैं। भिखारियों में भी उन्हीं को कुछ मिलता है जो अपनी असमर्थता प्रमाणित करते हैं। हट्टे कट्टे याचक हर जगह दुत्कारे जाते हैं। ईश्वर के दरबार में अनुदान वरदान उन्हीं के लिए सुरक्षित है जो प्रस्तुत उपलब्धियों का श्रेष्ठतम उपयोग करके यह सिद्ध करते हैं कि उन्हें कुछ अधिक मिला तो वे उसे विलास, संचय, उद्धत प्रदर्शन, कुपात्रों पर बिखरने, दुर्व्यसन एवं अर्हता के परिपोषण के दुरुपयोग नहीं करेंगे।

स्मरण रहे ईश्वरीय अनुदान सत्पात्रों के हाथों उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सौंपें जाते हैं। किसी की लिप्सा, लालसा, तृष्णा, अहंता के मनोकामना पूरी करने में ईश्वर को तनिक भी रुचि नहीं है। इसके लिए उसे पूजा का प्रलोभन देकर भी न्याय निष्ठा एवं कर्म व्यवस्था छोड़ने के लिए सहमत नहीं किया जा सकता है। उसकी निष्पक्ष न्यायशीलता में किसी भी कारण प्रतिरेक उत्पन्न नहीं किया जा सकता।

बदल सर्वत्र बरसते हैं। पर चट्टानें सूखी रहती है और गहरे तालाबों में ढेरों पानी जमा होता है। दूसरों के अनुदान पाने के लिए अपनी पात्रता आवश्यक है । फूल खिलते हैं तो उन्हें भ्रमरों से प्रशंसा के गीत सुनाने और तितलियों को शृंगार सज्जा जुटाने का सहयोग मिलते दिखता है। कीचड़ सड़ने पर वह मक्खी, मच्छर, दुर्गंध तथा घिनौने कृमि- कीटकों के ही झुण्ड जुड़ते हैं। यह अपनी अपनी पात्रता है। वृक्षों के आकर्षण शक्ति बादलों को बरसाने के लिए विवश करती है। धातु खदानें दूर - दूर बिखरे स्वजातीय कणों को अपनी चुम्बक शक्ति से खींचती, घसीटती और भण्डार बढ़ाती रहती है। आँख की पुतली सही हो तो संसार के दृश्य दिखेंगे। कान की झिल्ली सही हो तो शब्द संगीत सुनने को मिलेंगे । पाचन तंत्र सही हो तो आहार से पोषण मिलेगा। अन्यथा “ अपना ही दाम खोटा हो तो परखने वालों का क्या खोट” “ईश्वर मात्र उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं ।” इन तथ्यों को समझने वालों की उपासना, याचना स्तर की नहीं होती । वे पात्रता और प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए आत्म-शोधन और आत्म- परिष्कार का द्विविध पुरुषार्थ करते हैं। यही है वह मूल्य जिसकी कीमत पर अध्यात्म क्षेत्र की विभूतियाँ हस्तगत होती है । उपासना का स्वरूप एवं उद्देश्य यही है । जो उसे क्रिया कृत्यों की जादूगरी समझते हैं, वे भूल करते हैं। अध्यात्म पराक्रम का केन्द्र बिन्दु है- आत्म परिष्कार । उपासनात्मक कर्मकाण्डों के सभी उपाय, उपचार साधक को पवित्रता और प्रखरता अपनाने के लिए उत्साहित और अग्रसर करते हैं। उनके द्वारा चित्र- विचित्र चमत्कार देखने और उपयुक्त अनुपयुक्त मनोरथ पूरा करने जैसी बिना पंखों की कल्पना उड़ाने नहीं उड़ी जानी चाहिए। ऐसे में सिर, पैर के रंगीन सपने किसी को भी नहीं देखने चाहिए। जादुई चमत्कारों के लिए किसी देवता या संत के दर्शन अनुग्रह से लम्बी - चौड़ी उपलब्धियाँ पाने की लालसा में उलझने की अपेक्षा यथार्थता इसमें है कि हम अंतर्मुखी हो । अंतर्जगत में छिपी दिव्य शक्तियों को खोजे और सुधारें । पेड़ के पत्ते, पल्लव और फल, फूल देखकर यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि यह ऊपर आसमान से टपके है वरन् जड़ों की उस मजबूती और गहराई को समझना चाहिए, जो पेड़ के लिए खुराक बटोरती और भेजती रहती हैं किन्तु प्रत्यक्ष आँखों से दृष्टिगोचर नहीं होती । मानवी सत्ता की गरिमा, सफलता भीतर से उबलती है। देवताओं या संतों की अनुकम्पा तो उसे खरादती, सजाती भर है।

जन्म- जन्मांतरों से संचित कुसंस्कारों को हट पूर्वक निरस्त करना पड़ता है। अपने आपे से, अभ्यस्त ढर्रे, संघर्ष करने का नाम ‘तपश्चर्या । इस उपाय से परिशोधन जन्म पवित्रता की उपलब्धि होती है। यह आत्मिक प्रगति का प्रथम चरण है। दूसरा है ‘ योगसाधना ‘ । इसका अर्थ है दैवी। विशिष्टताओं के साथ व्यक्तित्व को जोड़ देना । गुण, कर्म, स्वभाव में चिंतन और चरित्र उत्कृष्टता, आदर्शवादिता का समावेश करना । आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की उस उभयपक्षीय प्रक्रिया को गलाई, ढलाई, धुलाई रंगाई भी करते हैं । इन्हीं को पवित्रता, प्रखरता का युग्म भी कहते हैं। सज्जनता औ साहसिकता का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का सच्चा स्वरूप है। हर कोई को यह देखते रहना चाहिए कि उसकी आँतरिक समस्वरता बढ़ रही है या नहीं। इस प्रगति के साथ भौतिक क्षेत्र के जंजाल, प्रपंच स्वभावतः घटने लगते हैं और “ सादा जीवन, उच्च विचार “ अक्षरशः चरितार्थ होने लगते हैं।

अन्न, जल, वायु पर शरीर की स्थिरता एवं प्रगति निर्भर है। आत्मा की प्रगति के लिए उपासना, साधना एवं आराधना के तीन आधार चाहिए। उपासना अर्थात् ईश्वर की इच्छा को प्रमुखता, उसके अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, घनिष्ठता के लिए निर्धारित उपासना प्रक्रिया में भाव भरी नियमितता । साधना, अर्थात् जीवन साधना । संचित कुसंस्कारों एवं अवांछनीय आदतों मान्यताओं का उन्मूलन । गुण, कर्म, स्वभाव, चिंतन, चरित्र में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश। आराधना अर्थात् लोकमंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में उदार सहयोग, श्रम दान, अंशदान । यह तीनों ही साथ -साथ चलने चाहिए। इनमें से एक भी ऐसा नहीं जो अपने आप में पूर्ण हो। इसमें से एक भी ऐसा नहीं जिसे छोड़कर प्रगति पथ पर आगे बढ़ना संभव हो सके । हमारे जीवन की दिशाधारा में उपासना, साधना, आराधना का त्रिवेणी संगम अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहना चाहिए। औसत देश वासियों का निर्वाह स्तर अपनाये । परिवार को छोटा रखे उसे सुसंस्कारी, स्वावलंबी बनाये। बड़प्पन की लिप्सा छोड़े। महानता का लक्ष्य अपनाये। शरीर और आत्मा दोनों का हित साधे । निर्वाह के लिए न्यायोचित आजीविका उपार्जित करें । आत्मा का हित साधने के लिए चिंतन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का अधिकाधिक समावेश करते रहे। व्यक्तित्व के हर पक्ष को मानवी गरिमा के अनुरूप बनाये किन्तु अवाँछनीयता से लड़ने के लिए हर समय लड़ाकू, शूरवीर का बाना पहने रहे। जो उपलब्ध है उसका सदुपयोग करे। जो नहीं है उसके लिए प्रयत्न करे, किन्तु चिंतन, खिन्न, असन्तुष्ट कभी भी न रहें। हँसती -हँसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी ही किसी अध्यात्मवादी होने की निशानी हो सकती है।


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