वन-विहार के लिए वासुदेव, बलदेव और सात्यकि अपने घोड़ों पर चढ़कर निकले । रास्ता भटक जाने से वे एक ऐसे सघन वन में जा फँसे, जिसमें न पीछे लौटना संभव था, न आगे बढ़ना। निदान रात्रि एक पेड़ के नीचे बिताने का निश्चय किया। घोड़े बाँध दिये गये। तीनों ने एक-एक पहर पहरा देने का निश्चय किया ताकि सुरक्षा होती रहे और दो-दो साथी सोते रह सकें।
पहली पारी सात्यकि की थी । वे जगे, दो सो गये । इतने में पेड़ पर से एक पिशाच उतरा और मल्लयुद्ध के लिए ललकारने लगा । सात्यकि ने उसके कटु वचनों का वैसा ही उत्तर दिया और घूंसे का जवाब लात से देते रहे । पूरे प्रहर मल्ल युद्ध होता रहा। सात्यकि को कई जगह चोट लगी पर उस समय साथियों से उस प्रसंग की चर्चा न कर, सो जाना ही उचित समझा।
अब बलदेव के जागने की बारी थी। पिशाच ने उन्हें भी चुनौती दी जवाब में वैसे ही गरमागरम उत्तर मिले। प्रेत का आकार और बल पहले की तरह बढ़ता रहा और बलदेव की बुरी तरह दुर्गति हुई । दूसरा प्रहार इसी तरह बीत गया ।
तीसरी पारी वासुदेव की आई उन्हें भी चुनौती मिली वे हँसते हुए लड़ते रहे और कहते रहे - बड़े मज़ेदार आदमी हो तुम, नींद और आलस से बचने के लिए मेरी जैसी मखौल कर रहे हो ।
पिशाच का बल घटता गया और आकार भी छोटा होने लगा। अंत में वह झींगुर जैसा छोटा रह गया। तब वासुदेव ने उसे रुपट्टे के एक छोर से बाँध लिया।
प्रातः नित्य कर्म से निपटकर, जब चलने की तैयारी होने लगी तो सात्यकि और बलदेव ने पिशाच से मल्ल युद्ध होने की घटना सुनाई और चोटों के निशान दिखाये । वासुदेव हँसे और पिशाच को रुपट्टे के छोर में से खोलकर हथेली पर रख लिया ।
आश्चर्यचकित साथियों को देखकर वासुदेव ने बताया कि वह पिशाच और कोई नहीं, कुसंस्कार रूपी क्रोध था, जो वैसा ही प्रतिउत्तर पाने पर बढ़ता और दूना होता है, पर जब अपेक्षा की जाती है तो, दुर्बल और छोटा हो जाता है।