वह इधर हो गयी होगी । कुछ भी तो नहीं रहने दिया उसने। सब अपने साथ समेट ले गयी, किसी ने अत्यंत उद्धेय भरे स्वर में चिंता प्रकट की।
हम तो पूरी तरह कंगाल हो गये दूसरा स्वर उभरा । साथ ही आश्वस्त भाव भी - ‘ पर वह इस वनखण्ड से भाग कर जायेगी कहा ? कितने अमूल्य थे, हमारे रत्न आभूषण । हम उसके लिए अरुवल का कोना ही छान मारेंगे।
वे लोग अपने साथ किसी रूप जीवा वेश्या को लेकर वन विहार को आये थे । अरुवल का यह वन प्रान्त बहुत सुरम्य और मोहक था। प्रकृति अपनी अपार रमणीयता यहाँ आ जुटी थी। नाना लीला विभ्रमों में अपनी देह को तोड़ती मरोड़ती शिलाओं और गुल्मों के बीच नाचती कूदती नदी अठखेलियाँ कर रही थी। किनारे खड़े कास के अंतराल में लहरें विछल रही है और किरणें नदी की माँग में सोना भर रही थी। कुछ दूर चलकर नदी के पुलिन में लवली लताओं के कुँज छाये थे। किसी तटवर्ती वृक्ष के सहारे दो चार विरल वल्लरियाँ नदी की लहरों को चूमती हुई झूल रही थी। उसमें बैठी कोई एकाकी चिड़ियाँ दुपहरी का अलस गान गाने में विभोर थी।
ये सब भी वही पास के कोमल दूब के प्राकृतिक बिछौनों का राग−रंग में आकष्ठ डूबे थे। मोहक और मादक परिस्थितियाँ कब किसे होशो हवास में रहने देती है। ये सब भी विलास राग रंग में खुद को ऐसा भूले कि वेश्या उनके सब आभूषण चुराकर कब भागी, उन्हें पता ही न चला। सुध आते ही वे लोग उसी का पता लगाने वन का पत्ता छानने के लिए निकल पड़े।
वन के उसी भाग में प्रवेश करते ही उन्होंने विशेष शाँति का अनुभव किया । जैसे जैसे वे आगे की ओर बढ़ते जा रहे थे वैसे वैसे उनकी वासनाओं का उफान शान्त होता जा रहा था। आखिर क्या ऐसा है यहाँ उन सब ने आपस में एक दूसरे की ओर देखा । तभी उनकी नजर पास के एक सघन वृक्ष की छांव में बैठे एक दिव्य पुरुष पर गयी। वह उस वृक्ष की छाया में पद्मासन लगाये बैठा था। उसकी मुद्रा बालक सी निर्दोष और परम शाँत थी। उसके ओठों पर निरवाछिन्न आनन्द की मुस्कान दीक्षित थी। दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर स्थिर हो गयी थी। मस्तक के पीछे उद्भासित प्रभामण्डल से वृक्ष में लिपटी लताएँ प्रकाशित हो रही थी। कुछ ऐसा लग रहा था कि सिद्धियों के ज्योतिपुंज रह रहकर उसके कोमल शरीर से तरंगों की तरह उठ रहें थे। यह दिव्य पुरुष कोई और नहीं महात्मा बुद्ध ही थे।
कुछ पल ये सब एकटक उनकी ओर देखते रहे । रत्नाभरण चले जाने के क्षोभ से पुरुष चीर कर्म करने वाली वेश्या को खोजते हुए यहाँ तक आ पहुँचे थे। भगवान बुद्ध के तपोदीप्ति दिव्य आभा पूरित परम शान्त मुख मण्डल को देखकर अनायास ही अभिभूत हो उठे और उन्होंने उस दिव्य मूर्ति की वरण धूल अपने माथे पर लगा दी। भगवान के कृश शरीर की स्वर्णिम प्रदीप्ति से वे विमुग्ध हो गये थे।
“ आपने उसको इधर से जाता देखा है “- भद्र वर्गीय पुरुषोँ ने महात्मा बुद्ध से निवेदन किया ।
“मुझे अपने सिवा दूसरा को दिख ही नहीं रहा है मित्रो ! इतना ही सत्य है,” यह कहकर भगवान मौन हो गये।
“भान्ते ! हमारा आशय एक स्त्री से है।” एक ने कहा। कैसी स्त्री ? भगवान बुद्ध की परम पवित्र दृष्टि भद्रगणों पर टिक गयी। उनके दृष्टि विक्षेप से ही भद्रगण आहत हो उठे। लगा, वे अनुचित कर्म के कारण पीड़ित है।यह कर्म और उनकी हानि महात्मा बुद्ध की दृष्टि से छिपी नहीं रह गयी। एक ने कहा वह वेश्या है भन्ते ! हम लोग अपनी अपनी पत्नियों के साथ वन विहार को आये थे । पत्नी के अभाव में एक मित्र के मनोरंजन के लिए एक वेश्या एक मित्र के साथ थी। विशेष राग रंग में लिप्त देखकर वह हमारे कीमती आभूषण लेकर इसी वनखण्ड में छिप गयी। हमें उसी की खोज है।
“ वन विहार, मनोरंजन, किसलिए भद्र ?” मन्दस्मित के साथ महात्मा बुद्ध ने कहा ।उस क्षीण सी किन्तु मोहक मुस्कान ने उन लोगों के मर्म भेद दिये। प्रतीत हुआ कि अपराध पकड़ा गया। सकुचाते हुए वे कुछ कह न सके । फिर भगवान ने प्रथम ही कहा- “ आनन्द के लिए ही न ?”
“ तो भद्र ।जगत के विषय भोग और सुख तो नश्वर और क्षणिक है। उससे नश्वर और क्षणिक आनन्द ही मिलेगा। उसके पीछे उन्मना भाव से दौड़ने पर इसी प्रकार पश्चाताप, हानि तथा क्षोभ के अलावा और कुछ नहीं मिलने का ।”शाश्वत आनन्द तो शाश्वत वस्तु से ही प्राप्त होगा वह शाश्वत वस्तु तो केवल आत्मा ही है। तुम उसे खोजने के लिए निकलते तो रत्नालंकार को खोने का संताप नहीं झेलना पड़ता। “ भगवान बुद्ध ने कहा।
भद्रवगियों के धर्म चक्षु खुले। रत्नालंकार की चिंता छोड़कर उन्होंने कहा -” ठीक है भन्त् ! हमें स्त्री की खोज नहीं, आत्मा की खोज करनी है “ और उन्होंने भगवान से प्रव्रज्या उपसम्पदा की याचना कर जीवन की राह बदलने का उसी क्षण निर्णय ले लिया।