ओजस्, तेजस्, ब्रह्मवर्चस्

February 1996

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प्रकृति के अंतराल में छिपी शक्ति का परिचय शताब्दियों पूर्व लगा लिया गया है। और अब उसका उपयोग मनुष्य जीवन को घनिष्ठ सहकारी रूप में किया जा रहा है कभी अग्नि की - पशु शक्ति की क्षमता को हस्तगत करके मनुष्य को बड़ा संतोष हुआ था, सचमुच उसकी प्रगति में इन दोनों ने बड़ा योगदान दिया । इन शताब्दियों में बिजली की शक्ति ने संसार के भौतिक विकास में असाधारण सहायता की है। भाप, तेल, गैस की सहायता से शक्ति प्राप्त करने की बात अब पिछले जमाने की बात हो गयी है। अगले दिनों अणु शक्ति और लेसर किरणों के प्रयोग को प्रधानता मिलने वाली है।

इन समस्त शक्ति स्रोतों से भी अद्भुत एक और शक्ति भी है। जिसकी ओर न जाने हमारा ध्यान गया ही नहीं। वह है मानवी विद्युत। यह अधिक गहराई के साथ समझा जाना चाहिए कि प्राणियों के शरीर में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति ही उसके शरीर संस्थान, मनः संस्थान को अधिक सामर्थ्य एवं सुविकसित बना सकती है। कहना न होगा कि सुविकसित व्यक्तित्व संसार की समस्त शक्ति सम्पदाओं से हमारे लिए बढ़ चढ़कर उपयोगी सिद्ध हो सकता है। भौतिक जगत में अग्नि, भाप, गैसें, तेल, बिजली, अणु विस्फोट आदि का जो महत्व है उससे कही अधिक उपयोगी सजीव प्राणियों के लिए यह बिजली की है, जो उनके शरीरों में पाई जाती है। मनुष्य में भी एक विद्युत शक्ति का अजस्र भण्डार पड़ा है।शक्ति की संचार प्रणाली का मूल आधार क्या है ? इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म कारण ढूंढ़ने पर वे शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा “पोटेन्शियल “ का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश “इन्टेन्सिटी “ का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। ताप विद्युतीय संयोजन थर्मोलेरिक कपलिंग के शोधकर्त्ता अब इसी पर निष्कर्ष पहुँचे है कि मानव शरीर की सारी क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।

पृथ्वी के ईद गिर्द ऐ चुम्बकीय वातावरण फैला हुआ है। अकेला गुरुत्वाकर्षण कार्य ही नहीं उससे और भी कितने ही प्रायोजन पूरे होते हैं। यह चुम्बकत्व आखिर आता कहाँ से है ? यह पता लगाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि यह कोई बाहरी अनुदान नहीं वरन् पृथ्वी के गहन अंतराल सं निकलने वाली शक्ति है।

लोहे की सुई यदि धागे में बाँध कर अधर लटकाई जाये तो उसका सिर उत्तर की ओर दूसरा सिरा दक्षिण की ओर होगा। दिशा निर्देशक यंत्र इसी आधार पर बनते हैं कितने ही जीव - जंतु अपने महत्वपूर्ण कार्य इसी चुम्बकीय प्रवाह के आधार पर करते रहते हैं। कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील लम्बी उड़ाने भरते हैं वे धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा सकते हैं। इनकी उड़ाने प्रायः रात में होती है । उस समय प्रकाश जैसी कोई इस तरह की सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती जिससे वे यात्रा लक्ष्य की दिशा जान सके । यह कार्य उसकी अंतः चेतना पृथ्वी के ईद- गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करते हैं। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहें हो।

जीवकोशों का सूत्र विभाजन कार्य उसके मध्य बिन्दु में चलता है उसमें यही दिशा ज्ञान कराता है। क्रोमोज़ोम की गति ‘सेल’ के मध्यवर्ती ध्रुव की दिशा की ओर रहती है । उसे दिशा ज्ञान कैसे रहता है ? इस प्रश्न का उत्तर भी यही रहता है कि पृथ्वी के चुम्बकीय प्रवाह को हमारे जीव कोश की आँतरिक सत्ता अनुभव करती है और उसी आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्धारण कर सकती है।

चुम्बक और विद्युत यों प्रत्यक्षतः दो पृथक पृथक सत्ताएँ है पर वे परस्पर अविच्छिन्न रूप से संबद्ध है और समयानुसार एक ही धारा में परिवर्तन होता रहता है। यदि किसी सर्किट का चुम्बकीय क्षेत्र लगातार बदलते रहा जाय तो बिजली पैदा हो जायेगी। इसी प्रकार लोहे के टुकड़े से लपेटे हुए तार से विद्युत धारा प्रवाहित किया जाय तो चुम्बकीय शक्ति सम्पन्न बन सकती है।

मनुष्य शरीर में बिजली काम करती है यह सर्वविदित है। इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफी तथा इलेक्ट्रो सेफैलो ग्राफी के द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लोह युक्त ‘होमोग्लोबिन ‘ भरा है। लोहा चूर्ण ओर चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते है, उसी प्रकार हमारी जीव सत्ता सभी जीव कोशों को परस्पर संबद्ध किये रहती है और उसकी सम्मिश्रित चेतना में वे समस्त क्रिया कलाप चलते हैं जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते हैं।

शरीर की चमक, स्फूर्ति, श्रम, रुचि, ताजगी, उमंग, उत्साह, शौर्य, साहस जैसी जो प्रवृत्तियां पायी जाती है उनके पीछे मानवी शक्ति की अभीष्ट मात्रा का होना ही आँका जा सकता है। मनस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी तपस्वी जैसे शब्दों से ऐसे ही लोगों को संबोधित किया जाता है।

ऐतिहासिक लोगों की पंक्ति में ऐसे ही व्यक्ति खड़े होते है। भौतिक उपलब्धियाँ उन्हीं के पल्ले पड़ती है । यहाँ तक की आतंकवादी खलनायक भी इसी शक्ति के सहारे अपने भयानक दुष्कर्मों में सफलता प्राप्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में से प्रत्येक को इसी अंतः शक्ति का सहारा मिलता है और उनके महान कार्य आगे बढ़ते चले जाते हैं।

मानवी शरीर के शोध इतिहास में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिनसे यह सिद्ध होता है कि किन्हीं किन्हीं शरीरों में इतनी अधिक बिजली होती है उसे दूसरे लोग भी आसानी से अनुभव कर ले ते हैं। यों हमारा नाड़ी संस्थान पूर्णतया विद्युत धारा से संचालित हो ता है। मस्तिष्क का जादुई बिजली घर कह सकते हैं। जहाँ से शरीर के अंग प्रत्यंगों की गतिविधियों का नियंत्रण और संचालन होता है। पर वह बिजली जीव विद्युत वर्ग में होती है और इस तरह से अनुभव में नहीं आती जैसा कि बत्ती जलाने व मशीन चलाने वाली। शरीर में काम करने वाली गर्मी से विभिन्न अवयवों से सक्रियता रहती है और वे अपना अपना काम करते हैं। यह कायिक ऊष्मा वस्तुतः एक विशेष प्रकार की बिजली ही है। इसे मानवी विद्युत कहते हैं। इतने पर भी यह आँतरिक बिजली से भिन्न ही मानी जाती है। यह अपना प्रभाव शरीर संचालन तक ही सीमित रहती है। इससे बाहर उसका प्रभाव अनुभव नहीं किया जा सकता है किंतु कुछ अपवाद ऐसे भी देखने को मिले है जिनमें शरीर गत ऊष्मा ने याँत्रिक बिजली की भूमिका निभाई है और उस व्यक्ति को चलता फिरता बिजली घर सिद्ध किया है।

मानवी शरीर की विलक्षणताओं की चर्चा करते हुए उन प्रमाणिक घटनाओं का उल्लेख अक्सर किया जाता है कि जिनकी यथार्थता सुविज्ञ लोगों ने पूरी जाँच पड़ताल के बाद घोषित की है। मनुष्य शरीर भी याँत्रिक बिजली की आश्चर्यजनक मात्रा होती है, इसके कितने ही उदाहरण सर्व विदित है। कोलोरोडी प्रांत के लेडीवली नगर में के0 डब्ल्यू ॰ पी. जोन्स नाम का एक ऐसा व्यक्ति था कि जिस भूमि पर वह चल रहा है कि उसके बीच किस धातु की कितनी बड़ी और कितनी गहरी खदान है उसे जमीन में दबी विभिन्न धातुओं का प्रभाव अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से होता है। अपनी इसी विशेषता का उसने भरपूर लाभ उठाया। कइयों को खदानें बताकर उसने हिस्सा लिया और खदानें अपने पैसों से खोदी और चलाई। अमेरिका का यह बहुत धन सम्पन्न इसी अपनी विशेषता का कारण बना था।

आयरलैण्ड के प्रो0 वैरेन्ट इस बात के लिए विख्यात थे कि वे भूमिगत जल स्रोतों तथा धातु खदानों का पता अपनी अंतःचेतना से देखकर बता देते थे। इस विशिष्टता से अपने देशवासियों को बहुत लाभ पहुँचाया था।आस्ट्रेलिया का एक किसान भी पिछली शताब्दी में इस विद्या के लिए प्रसिद्ध पा चुका हैं, वह दो शंकु वाली टहनी हाथ में लेकर खेतों में घूमता फिरता था और जहाँ उस जल स्रोत दिखाई पड़ता था वही रुक जाता था । उस स्थान पर खोदे गये कुओं में प्रायः पानी निकल ही आता था। भारत के राजस्थान प्रांत में एक पानी वाले महाराज जिन्हें माधव नन्द जी कहते हैं अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कितने ही सफल कुंए बनवा चुके हैं।

भूमिगत अदृश्य वस्तुओं को देख सकने की विद्या को रेब्डोमेसी कहते हैं। इस विज्ञान की परिधि में जमीन में दबे रसायन, जल, तेल आदि सभी वस्तुओं को जाना जा सकता है। किन्तु यदि केवल जल तलाश तक ही वह सीमित हो तो उसे वाटर डाउजिंग कहेंगे।

आयरलैण्ड के विकली पहाड़ी क्षेत्र में दूर दूर तक कही पानी का नामों निशान नहीं था। जमीन कड़ी-पथरीली थी। प्रो0 वैरेंट ने खदान विशेषज्ञों के सामने अपना प्रयोग किया । वे कई घण्टे उस क्षेत्र में घूमें अंततः वे एक स्थान पर रुके और कहा- केवल 14 फुट गहराई पर यहाँ एक अच्छा जल स्रोत है। खुदाई आरम्भ हुई और पूर्व कथन बिल्कुल सत्य निकला। 14 फुट जमीन खोदने पर पानी की एक जोर दार धारा वहाँ से उबल पड़ी। यह मानव विद्युत का ही चमत्कार है जो भिन्न भिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है।

मानवी विद्युत को अध्यात्म विज्ञान में ओजस् तेजस् और ब्रह्मवर्चस् कहा गया है। इसे विकसित करने की प्रक्रिया योग साधना और तपश्चर्या के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्मविद्या में इसी ‘चित्त शक्ति’ के विकास पर जोर दिया गया है और कहा गया है कि मनुष्य के सन्निहित प्रकट और अप्रकट रहस्यमय शक्ति संसाधनों को जागृत करके मनुष्य देवस्तर की विशेषताओं से सम्पन्न हो सकता है। भौतिक जगत के विकास प्रयोजन में बिजली का जो उपयोग है उससे कही अधिक उपयोगिता व्यक्तित्व के समग्र विकास में मानवी विद्युत की है। उसका स्वरूप आधार और उपयोग जानने के लिए हमेँ विशेष उत्साह पूर्वक प्रयत्न करने चाहिए।


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