स्वेदना की टीस बदल रही है प्रचलन

February 1996

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अचानक माँसाहारियों के कदम शाकाहार की ओर क्यों मुड़ जाते हैं। अचरज पैदा करने वाले इस सवाल के जवाब में तीन तथ्यों को उभरते देखा जा सकता है। इनमें से पहला हैं- स्वास्थ्य समस्या को लेकर वैज्ञानिकों की चेतावनी । दूसरा है पशुधन से आये संकट से होने वाला पर्यावरण पर बुरा असर और तीसरा है माँसाहारियों में विकसित होने वाली समझ से पनपी संवेदना। ये तीनों तथ्य अपनी महत्ता में एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर है और इनमें हरेक में माँसाहार के औचित्य पर जबरदस्त सवालिया निशान लगा दिया है ?

अमेरिका सहित ज्यादातर उन्नत देशों में पिछले काफी समय से एक बड़े और वैज्ञानिक स्तर पर यह बहस जारी है कि स्वस्थ जीवन के लिए आहार कैसा हो ? बहस का मूल मुद्दा ‘शाकाहार बनाम माँसाहार ‘ है। चिकित्सा जगत में हाल ही के दिनों में हुई वैज्ञानिक खोजों और अध्ययनों से यह साबित होता जा रहा है कि शाकाहार मनुष्य की प्रकृति और स्वाभाविकता के ज्यादा निकट है। यह ज्यादा स्वास्थ्य वर्धक है, और अधिक वैज्ञानिक है। इससे शाकाहार की तरफ झुकाव निरन्तर बढ़ रहा है। गौर करने लायक तथ्य यह है कि अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछले बीस सालों के दौरान कोई एक करोड़ लोगों ने माँसाहार छोड़कर शाकाहार अपनाया है। वह परिवर्तन उस बड़े जन आन्दोलन का एक हिस्सा है जिसमें नशाखोरी के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द की है। उसका एक मात्र मकसद वैज्ञानिक तत्वों के आधार पर स्वस्थ जीवन पद्धति चुनना है।

वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि माँस और अण्डों में हानिकारक कोलेस्टरोल और सैच्युरेटिस फैटी एसिड की मात्रा अधिक पाई जाती है। खाना पकाने के तेलों, सोयाबीन का तेल, सुरजमुखी का तेल, में वसा तो पायी जाती है।यह एक बहुत बड़ा अंतर है कि, जिसका व्यक्ति के शरीर की कुल कोलेस्टरोल की मात्रा, हानिकारक लोडेंसिटी प्रोटींस और स्वास्थ्य कारी हाई डेंसिटी लाइपो प्रोटींस की मात्रा पर गहरा असर पड़ता है।

माँसाहारी और शाकाहारी खानपान में दूसरा महत्वपूर्ण फर्क यह है कि शाकाहारी खानपान में रेशे दार पदार्थों की मात्रा ज्यादा होती है जबकि माँसाहारी भोजन इससे वंचित रहता है। क्लारी खाद्य पदार्थों का खजाना है। इस नजर से हम माँसाहार और शाकाहार तुलना में शाकाहार कही बेहतर साबित होता है। दोनों आहारों की संरचना का यह फर्क हमारे स्वास्थ्य पर कई तरह के प्रभाव दर्शाता है।

दिल की बीमारी में कोरोनरी धमनी रोग सबसे प्रमुख है। इससे ही ऐजाइमा की तकलीफ होती है और दिल का दौरा पड़ता है। उन्नत समाज में यह अकेला मौत का सबसे बड़ा कारण है। यह रोग दिल की खुराक देती कोरोनरी धमनियों के सँकरे पड़ने पर उपजता है। धमनियों का भीतरी आयतन चर्बी के जन जाने से सिकुड़ जाता है। इस वसा जमाव की प्रक्रिया एथिरोस्कृलरोसिस के नाम से जाना जाता है। पाया गया है कि खून में कोलेस्टरोल की मात्रा ज्यादा होने, डाइबिटीज होने की आदत से उस रोग का खतरा होता है। यानि एक मायने में उनसे ही रोग लगता है। इन तीनों का हमारे खान पान की आदतों से नजदीक संबंध है। माँसाहारियों में कोलेस्टरोल की कुल मात्रा व हानिकारक एल दृडी. एल दृमात्रा अधिक पाये जाने की संभावना प्रबल रहती है। जबकि स्वास्थ्य कारी एच डी. एल की मात्रा कम रहती है। यदि कोई व्यक्ति माँसाहार छोड़ देता है और वसा के लिए पाली अप्सैच्युरेटिड फैटी एसिड इस्तेमाल करने लगता है तो उसका एच.डी.एल. बढ़ जाता है। और हानिकारक कोलेस्टरोल घट जाता है। तब तब्दीली कुछ हफ्तों में देखी जाती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी व्यक्ति में दिल का दौरा पड़ने का सबसे बड़ा कारण संकरी हुई कोरोनरी धमनी में रक्त कणों का धक्का फँस जाना है। वैज्ञानिक निष्कर्षों से यह पता चलता है कि प्लेटलेट्स रक्त कणों के एक दूसरे में चिपकने से ही एक कण के थक्के बनते हैं।उनके बनने में रक्त रसायनों की भूमिका महत्व पूर्ण है।यदि खून की सैच्युरेटिड फैटी एसिड की मात्रा ज्यादा और रक्त गाढ़ा हो तो थक्के बनने की आशंका बढ़ जाती है। अतः माँसाहारियों में यह आशंका ज्यादा रहती है, लेकिन आहार में परिवर्तन लाकर सुधार लाया जा सकता है। इस आधार पर भी ठीक से चुना गया शाकाहार गुण कारी है।

कई अध्ययनों में इस विचार की पुष्टि हुई कि शाकाहार रक्तचाप के संतुलित बने रहने में सहायक है। एक प्रयोग के दौरान जब माँसाहारियों को 12 हफ्तों के लिए शाकाहार पर रखा तो उसके रक्त चाप में उल्लेखनीय गिरावट आई ।आहार का विश्लेषण करने पर मालूम हुआ कि उनके आहार में कोई पोषक तत्वों के स्तर में महत्वपूर्ण बदलाव आया, पाँली अन सैच्युरेटिड फैट्स में 16 फीसदी, खाद्य रेशे की मात्रा में 75 फीसदी विटामिन्स सी में 80 फीसदी विटामिन ई में 85 फीसदी कैल्शियम में 17 फीसदी की उल्लेखनीय वृद्धि माना जाता है। जबकि प्रोटीन में 27 फीसदी सैच्युरेटिडफैट्स में 16 फीसदी मोना सैच्युरेटिड फैट्स की कमी पायी जाती है। चिकित्सा वैज्ञानिकों का मानना है कि आहार में हुआ फेरबदल ही रक्तचाप पर असर करता है।

इसी तरह मधुमेह पर किये गये अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि आहार में रेशे वाले पदार्थों को बढ़ाने से रक्त सुगर की मात्रा नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। इससे खाद्य पदार्थों का ग्लाइकोलिसिस इन्डेक्स कम होता है। यानि की भोजन के पचने पर रक्त सुगर की मात्रा एकाएक तीव्र रूप से नहीं बढ़ती है। रेशेदार पदार्थ सुगर के खून में जा कर उसकी गति धीमी कर देते हैं। इस तरह रक्त सुगर पर बेहतर नियंत्रण रखा जाता है। डायबिटीज में बतारैर दवा दिये जाने वाले ग्वार की गोंद इसी सिद्धान्त पर काम करती है। शाक सब्जियों में मयानोजिटोल नामक पदार्थ भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसकी कमी ही मधुमेहियों के नसों को कमजोर करती है। अतः इस कारण भी मधुमेह के लिए शाकाहार करना उपयोगी बन सकता है।

हमारी पाचन प्रणाली के लिए शाकाहारी सर्वथा अनुकूल होने के कारण चिकित्सा विज्ञानियों ने पाया है कि शाकाहारी में माँसाहारियों की तुलना में ग्रास नली का कैंसर, हायटे, सहर्निया, अपेडिक्स की शोभा और बड़ी आँत के विकार कम होते हैं। यही है कारण है कि आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषण माँसाहार को सर्वथा वर्जित मानने लगे हैं।

इस वैज्ञानिक पाबन्दी के साथ पशु धन पर गहराया संकट कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसी के 1997 की गहराई में प्रथम पखवाड़े में पाकिस्तान की बेनजीर सरकार को वह निर्णय लेना पड़ा कि अनिवार्य रूप से दो दिन पाकिस्तान में एक भी जानवर नहीं मारा जायेगा। यदि किसी ने प्राइवेट रूप से ऐसा किया तो उसे बड़ा दण्ड दिया जायेगा। यही हाल अन्य उन देशों का होने जा रहा है जहाँ मांसाहार की बहुतायत है । एक समय था कि आस्ट्रेलिया में सबसे अधिक पशुधन माना जाता था, लेकिन वहाँ अब एक हजार व्यक्ति के पीछे एक आंकड़ा 1470 रह गया है। अर्जेन्टीना में एक हजार के पीछे 2081 है जो संभवतः विश्व में सबसे अधिक है। भारत में यह आंकड़ा केवल 271 है। कोलंबिया और ब्राजील में क्रमशः 111 और 116 रह गयी है। पाकिस्तान और बंगलादेश में यह गणना सिमट कर 204 और 116 रह गयी है। क्षेत्रफल के हिसाब से देखें तो भारत की स्थिति पाकिस्तान और बंगलादेश की तुलना में ही नहीं, बल्कि मलेशिया और श्रीलंका की तुलना में अत्यंत दयनीय है।

माँसाहार में जिन प्राणियों का उपयोग किया जाता है उसमें बकरा, सुअर, मुर्गी ही नहीं, वे असंख्य पक्षी भी है इको सिस्टम संतुलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पिछले दिनों इनकी संख्या में तेजी से आई गिरावट को देखते हुए विश्व के माने जाने वैज्ञानिकों ने विभिन्न देशों की सरकारों को चेतावनी दी है कि वे अपने माँसाहार पर प्रतिबंध लगाये।साथ ही मांसाहारियों से अपील की है कि यदि वे अपना और अपने साथी मनुष्यों का जीवन सुखद देखना चाहते हैं तो माँसाहार छोड़ दे । क्योंकि पर्यावरण में असंतुलन किसी एक के लिए नहीं वरन् समूचे मानवी जाति के लिए घातक होगा। इस चेतावनी ने भी माँसाहारियों के कदम तेजी से शाकाहार की तरफ मोड़े हैं।

इस सब के अलावा माँसाहारियों की यह समझ कि जिसमें वह संवेदना पनपी कि वे माँसाहार को मनुष्यता के लिए अपमान समझने लगे। एक अध्ययन के मुताबिक वृद्धों में माँसाहार की प्रवृत्ति कम हो जाती है।इसके पीछे बहुत कुछ धार्मिक भावनाओं का भी हाथ है।जो उन्हें इस हिंसात्मक प्रवृत्ति को छोड़ने के लिए बाध्य करती है । माँसाहार छोड़ चुके एक व्यक्ति का कथन है कि एशिया की धरती पर तो पैगम्बरों ने भी पशु पालन का काम किया है। मोहम्मद पैगम्बर को मिले इतिहास में अल्लाह ताला ने कहा था कि रक्त और माँस मुझे सहन नहीं होता, अतः इससे परहेज करो । ईसा मसीह का भेड़ों को चराना लोक प्रसिद्ध है। बाइबिल में उनका कहना है-” अगर तुम किसी का माँस नहीं खायेंगे तो मेरे पास रहोगे। भगवान कृष्ण का गायों के प्रति लगाव होने के कारण ही तो वे गोपाल कहे गये। अपने पैगम्बरों की भावनाओं का आदर भी माँसाहार छोड़ने का एक महत्वपूर्ण कारण है। उपयुक्त तीनों तथ्यों से यह संभव है कि कोई एक मान्यता दे, दूसरे व तीसरे को। लेकिन यह सर्वथा सच है कि माँसाहारियों की प्रवृत्ति क्रमिक किन्तु तेजी से शाकाहार की ओर मुड़ चलती है। उनका यह झुकाव मानव सभ्यता के लिए नयी सुबह की घोषणा है।


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