झकझोरनें वाली वाणी मुखर करें

October 1982

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मनुष्य कोरे कागज की तरह है, वह उसी प्रवाह में बहता है जो उसके इर्द-गिर्द बहता है। मनुष्य स्वच्छ दर्पण की तरह है, जिसमें सामने खड़ी छवि अंकित होती चली जाती है। इन दिनों प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में मनुष्य की अवांछनीयता का समर्थन और प्रदर्शन ही चारों ओर घिरा दिखता है। फलतः उसी की छाप उसके अचेतन पर पड़ती है और सहज ही प्रवाह के साथ बह चलना बन पड़ता है। प्रतिपक्षी रोक-थाम आड़े आए तो रुकने-ठहरने का वस्तुस्थिति पर पुनर्विचार करने का अवसर मिले। आज ऐसे दबाव का घोर अभाव है जो अपनाई गई रीति-नीति के दुष्परिणाम और युगचेतना के अनुरूप ढलने के सत्परिणाम हलके-फुलके ढंग से नहीं; वरन इस प्रकार समझा सकें जिससे दबाव पड़े और परिवर्तन की बात सोचने के लिए बाधित होना पड़े। जन-जन के सामने इन दिनों ऐसे ही प्रखर परामर्श प्रस्तुत करने की प्रथम आवश्यकता है।

प्राचीनकाल में यह परामर्श ही लोक-चेतना को जागरूक, प्रबुद्ध, प्रखर, समर्थ बनाए रहने और उसे उत्कृष्टता के साथ जुड़े रहने के लिए सहमत-बाधित करता था। यह परामर्श बाजारू नहीं, श्रद्धासिक्त होता था। धर्म प्रवचन के रूप में कथा-पुराणशैली से व्यासपीठों पर बैठकर अधिकारी व्यक्तित्त्वों द्वारा वह दिया जाता था। यह मात्र कथन-प्रतिपादन नहीं होता था; वरन श्रद्धा भरे वातावरण का संपुट लगने के अतिरिक्त पौराणिक-ऐतिहासिक संदर्भों के साथ उसे प्रामाणिक भी सिद्ध किया जाता था। यह कथाशैली सुनने वालों को आकर्षक लगी और करने वालों ने पाया कि इस प्रकार का लोक-शिक्षण आशातीत परिमाण में सफल होता है।

यहाँ लोक-मानस को उत्कृष्टता की दिशा में प्रभावी सत्परामर्श देने की चर्चा हो रही है और कहा जा रहा है कि यदि उसका दूरगामी परिणाम देखना हो तो फिर वह बाजारू ढंग से नहीं चलना चाहिए। चारों ओर घिरा हुआ वातावरण, अपनी भाषा में, अपने ढंग से अनैतिक चिंतन और आचरण अपनाने की प्रेरणा देता है। उसकी काट कर सकने के लिए कैंची, उस्तरे से नहीं, कुल्हाड़े-फरसे से काम चलेगा। सत्परामर्श के लिए प्रामाणिक व्यक्तियों को श्रद्धासिक्त वातावरण में तर्क और प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए ऐसा परामर्श देना होगा, जिसमें अपनाई गई अवांछनीयता के दूरगामी दुष्परिणाम गिनाए जा सकें, साथ ही शालीनता की रीति-नीति आरंभ से अनाकर्षक लगाने पर भी व्यक्ति और समाज को सुसंपन्न बनाने वाले आधार किस प्रकार खड़े करती है, उसका हर पहलू ऐसी शैली में समझाया जाना चाहिए जो अंतराल की गहराई तक उतर सके, हृदयंगम हो सके और नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर सके।

परामर्शों का सिलसिला अभी भी धीमी गति से नहीं चल रहा है। सरकारी तंत्र में रेडियो, टेलीविजन, प्रकाशन, स्कूली पाठ्यक्रम से जो दिशा दी जाती है। उसमें सत्परामर्शों की न्यूनता और शिथिलता तो पाई जाती है, पर सर्वथा अभाव नहीं होता। कोई चाहें तो उससे भी लाभ उठा सकता है। यह बात पत्र-पत्रिकाओं के संबंध में भी है। उनके प्रतिपादन में भी आदर्शों का समर्थन पक्ष कुछ न कुछ रहता ही है। इसके अतिरिक्त सभा, सम्मेलनों, गोष्ठियों में धुँआधार भाषण चलते रहते हैं। पंडिताऊ कथ, वार्त्ता की भी लकीर पीटती रहती है। यह वाणी द्वारा दिए जाने वाले आदर्शवादी परामर्श का प्रचलित स्वरूप है। यह कुल मिलाकर भी इतना प्राणवान नहीं बन पाता कि कौतूहल-मनोरंजन से आगे बढ़कर श्रवणकर्त्ताओं को तिलमिला दे और वातावरण द्वारा निरंतर मिलने वाली अवांछनीय प्रेरणा के विरुद्ध तनकर खड़ा हो जाने का साहस उत्पन्न कर सके। प्राचीनकाल में सत्संगों का स्वरूप और स्तर यही रहता था। वे उपस्थित समुदाय का विवेक जगाते थे। ऐसा संभव तभी होता था जब कथनकर्त्ता अपने प्रतिपादन के प्रति निजी निष्ठा का प्रमाण प्रस्तुत कर सके। क्या कहा जा रहा है, इसका महत्त्व नहीं। प्रभावोत्मक क्षमता के लिए यह आवश्यक समझा जाता है कि उसे कौन कह रहा है। यहाँ आकर गुब्बारे से हवा निकल जाती है। परामर्शदाता, प्रवचनकर्त्ता निजी जीवन-क्षेत्र में जब छूँछ होते हैं तो वे सामान्य जानकारी मात्र दे सकते हैं, वैसा कुछ नहीं कर सकते जिससे लोक-मानस को पतन-प्रवाह से मोड़कर आदर्शवादिता की दिशा में उलटने के लिए भाव-विभोर किया जा सके।

सत्परामर्श आज के लोक-मानस को परिष्कृत करने के लिए नितांत आवश्यक है, पर इसके लिए क्या कहा जाए? हृदयस्पर्शी कैसे बनाया जाए? इसके लिए जहाँ अनेक तथ्यों का समावेश करना होगा, वहाँ एक कार्य और भी करना होगा कि इस सत्संग-प्रक्रिया का सूत्र-संचालन करने वाले उसे धर्ममंच से प्रयुक्त करें और अपना स्तर व्यासपीठ पर बैठ सकने जैसा बनाएँ।

इसके लिए जनसमुदाय को एकत्रित करके सभा-सम्मेलन करने का वर्त्तमान प्रचलन में इतना सुधार और करना होगा कि उसे प्रवचनकर्त्ता के स्तर तथा श्रद्धासिक्त वातावरण से भी युक्त बनाया जाए। अन्यथा ग्रामोफोन रिकार्डों की तरह उससे बाजारू जानकारी भर मिलेगी और आयोजन में लगाया गया श्रम, धन एक विशेष प्रकार का मनोरंजन भर बनकर रह जाएगा। वातावरण से तात्पर्य कथामंच या पुरातन कर्मकांडों का समावेश करने से ही नहीं है; वरन उसके लिए उस प्रक्रिया को जोड़ने की ओर भी संकेत है जो प्राचीनकाल में तीर्थसेवन के रूप में प्रयुक्त होती थी। धर्मप्रेमी घर से दूर प्रकृति की गोद में बने किसी ऐसे शांतिदायक स्थान में पहुँचते थे, जहाँ ऋषि-मनीषियों के आश्रम आगंतुकों की निजी परिस्थिति का पर्यवेक्षण करते और उसे सुधार परामर्श देने के साथ साधनाएँ भी कराते थे। साधना, व्यक्ति जीवन का श्रद्धा समारोह है। उसके द्वारा ऐसी विशेष मनःस्थिति बनती है, जिसमें स्वाध्याय-सत्संग को चिंतन-मनन के रूप में विकसित किया जाए और फिर किसी भाव-भरे निष्कर्ष-निर्धारण पर स्वेच्छापूर्वक पहुँचा जा सके, साधना के माध्यम से ऐसी संकल्पशक्ति उभरती है कि वह उत्कृष्टता का न केवल पक्ष-समर्थन करे; वरन उसे आत्मसात करने, जीवन व्यवहार में उतारने के लिए आवश्यक श्रद्धासिक्त साहसिकता भी उभार सके। सूत-सौनिक की कथा-पुराणशैली की तरह साधना के साथ योग वाशिष्ठ को हृदयंगम कराने वाले तीर्थसेवन को भी समान महत्त्व मिलता था। इन दिनों भी पुरातन सतयुग की वापसी के लिए उन चिर परीक्षित प्रयोगों की आज की आवश्यकता एवं प्रक्रिया के साथ नए सिरे से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। यही प्रयोजन प्रकारांतर से घरेलू संस्कार-प्रक्रिया एवं गाँव-मुहल्ले की पर्व परिपाटी के साथ भी भली प्रकार निभाना है। जन्म-दिवसोत्सव, विवाह-दिवसोत्सव, विद्यारंभ, उपनयन, वानप्रस्थ आदि वैयक्तिक संस्कारों के कर्मकांड-पद्धति में वे तत्त्व विद्यमान हैं जो उस छोटे आयोजन को पारिवारिक ज्ञान-गोष्ठी में परिणत कर सके और वातावरण के धार्मिक होने के कारण उपस्थित लोगों को आदर्शवादिता के पक्ष में सहमत कर सके।

परामर्श क्या दिये जाएँ? इसके लिए नए निर्धारण करने पड़ेगें। प्राचीनकाल में न नैतिक अनाचार था और न सामाजिक भ्रष्टाचार का बाहुल्य। न विग्रहों की भरमार थी न भटकाव का व्यामोह। उन दिनों तत्त्व दर्शन के विभिन्न पक्ष के लाक्षणिक प्रतिपादन भर से काम चल जाता था; पर अब वैसी स्थिति है नहीं। इन दिनों जनसंख्या वृद्धि, दहेज जैसी अगणित विकृतियाँ उपजी हैं, जिनका उन दिनों अता-पता भी नहीं था। सामयिक अवांछनीयताओं के निरस्त करने वाले और इन दिनों भावनात्मक नवनिर्माण की दृष्टि से जो आवश्यक एवं संभव है, उसी को परामर्श प्रवचन का विषय बनाना पड़ेगा। श्रद्धासिक्त वातावरण में, प्रज्ञावानों द्वारा कर्त्तव्यनिष्ठा का उपदेश देना यह पुरातन परिपाटी अक्षुण्ण रखते हुए भी, आज का लोक-शिक्षण उन तथ्यों से भरा-पूरा होना चाहिए जो समय की विकृतियों से जूझने और उज्ज्वल भविष्य की संरचना में व्यावहारिक योगदान दे सके। इसके लिए मात्र दर्शन नहीं, तर्क, तथ्य और प्रमाण, उदाहरण भी चाहिए। वे आधुनिक हों तो भी हर्ज नहीं और यदि पुरातन इतिहास में से उन्हें ढूँढ़ा जा सके तो फिर सोना-सुगंध जैसी बात बनेगी।

संक्षेप में, यही है वह पृष्ठभूमि, जिस पर युगांतरीय चेतना को व्यापक बनाने के लिए धर्ममंच से लोक-शिक्षण की क्रिया-प्रक्रिया संपन्न की जानी चाहिए। युगमनीषा को इसके लिए सर्वतोमुखी ऐसा प्रचारतंत्र खड़ा करना होगा, जो उपरोक्त सभी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकने वाली शृंखला की सभी कड़ियाँ ठीक प्रकार से जोड़ सके। बाजारू भाषण-प्रक्रिया से इतना भार उठेगा नहीं। जो विडंबना इन दिनों मंचों और लाउडस्पीकरों पर धुँआधार करते सुनी देखी जाती है, वह खोखली होने के कारण विनोद-कौतुक की ही एक पद्धति बनकर रह जाएगी।

इस संदर्भ में जहाँ युगमनीषा से बड़े प्रयोजन के लिए बड़े मोर्चे संभालने और बड़े सरंजाम जुटाने के लिए कहा जा रहा है, वहाँ सुझाव के साथ एक छोटा प्रयोग भी सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। इन दिनों शान्तिकुञ्ज के सृजनशिल्पी अपने-अपने घरों, क्षेत्रों में प्रज्ञा पुराण के प्रथम खंड की कथा कहते हैं। कथन के साथ-साथ श्रद्धासिक्त वातावरण भी बनाते हैं। पुराण में कथानक तो पुराने एवं पौराणिक है, पर उनमें उन सभी समस्याओं के सामयिक समाधान समाहित हैं जो इन दिनों व्यक्ति और समाज को बेतरह संत्रस्त, अस्त-व्यस्त किए हुए हैं। युगधर्म को पहचानने वाले क्षेत्रों में पुरातन और नवीन का यह दूरदर्शितापूर्ण प्रतिपादन बहुत ही लोकप्रिय हुआ है। आशा बँधी है कि प्रज्ञा पुराण के अगले 19 खंडों में अभीष्ट परिवर्तन की समग्र प्रक्रिया को इस माध्यम से जन-जन के गले उतारना संभव हो जाएगा।

युग-प्रवक्ताओं की वाणी कैसे मुखर हो, इसके इसलिए प्रज्ञा पुराण और स्लाइड प्रोजेक्टर की चित्र-विवेचना में जहाँ दार्शनिक तथ्यों का समावेश है। वहाँ प्रवचन की उस अभिनवशैली का भी प्रशिक्षण है जिसे अपनाकर भाषण कला के अनभ्यस्तों को भी मुखर बनने का भी अवसर मिलता है। इस प्रकार जीवनदानी युगशिल्पी, प्रज्ञापुत्रों की, युग-प्रवक्ताओं की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही है। वे सत्संग के प्राचीन माहौल को नए परिवेश में पिछड़े देहातों और अशिक्षित देश बांधवों तक पहुँचाने का प्राणपण से प्रयत्न कर रहे हैं। यह छोटा प्रयोग परीक्षण है। इसे बड़े लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर व्यापक बनाने का प्रयत्न होना चाहिए। ताकि संसार के पाँच अरब जनसमुदाय तक न सही सत्तर करोड़ देशवासियों तक परिवर्तन की अनिवार्यता और संभावना से भली प्रकार परिचित-प्रभावित किया जा सके।

एकांत परामर्श को मनन-चिंतन के माध्यम से हृदयंगम करने वाले तदनुकूल वातावरण और तप-साधना का समन्वय भी साथ-साथ चलना चाहिए। यह प्रयोग शान्तिकुञ्ज की गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित करके कल्प-साधना सत्रों के रूप में वह प्रयोग चल रहा है, जिसमें सम्मिलित होने वाला जीवन-दर्शन बदल सके। भविष्य के लिए आदर्शवादी निर्धारण साथ लेकर वापस लौट सके। प्राचीनकाल में मात्र तीर्थयात्रा ही नहीं होती थी, उस प्रयास का तीर्थसेवन प्रमुख अंग था, जिसका अर्थ था तेजस्वी वातावरण में, मनस्वी-ऋषियों के संरक्षण में, साधना के साथ-साथ उत्कृष्टता को आत्मसात करना। इन दिनों तो पर्यटकों की भगदड़ ही तीर्थयात्रा के ध्वंसावशेषों का परिचय देती है। पुरातन निर्धारण तो लगता है तिरोहित ही हो गए। प्रयत्न उसके पुनर्जीवन का किया गया है। इस दृष्टि से शान्तिकुञ्ज की तीर्थ प्रयोगशाला और उसमें चल रही कल्प-साधना, जीवन-साधना की विधि-व्यवस्था दृष्टव्य है। साधनों के अभाव में छोटे परीक्षण ही संभव हैं, वे ही चल भी रहे हैं। यह प्रस्तुतीकरण इसलिए किया गया है कि युगमनीषा को इस प्रक्रिया का स्वरूप और परिणाम समझने की सुविधा मिली। आवश्यक नहीं कि इसे इसी रूप में लिया जाए। उसमें परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक हेर-फेर भी करने पड़ेंगे। इतने पर भी मूल तथ्य यथावत रहेंगे। अभ्यस्त अवांछनीयता से लोक-मानस को विरत करने और दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने के लिए ऐसा प्राणवान प्रशिक्षण चाहिए जो न केवल जन-जन के गले उतर सके; वरन औचित्य के पक्षधर युग-चिंतन को अपनाने में भी साहस भरा उत्साह प्रकट कर सके।


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