जागृत आत्माओं की समयदान-अंशदान श्रद्धांजलि

October 1982

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यह क्यों किया जाए? कैसे किया जाए? इसकी एक झलक-झाँकी पिछले पन्नों पर पढ़ चुकने के उपरांत देखना होगा कि क्या इतने भर से काम चल जाएगा? और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचने पर प्रयोजन सध जाएगा? इसके उत्तर में यही कहा जाएगा कि यह सभी प्रयास नितांत आवश्यक होने पर जिसे साथ लिए बिना अपूर्ण-अपंग बनकर रह जाते हैं, उसका नाम है— ‘कृत्य’। उसी को अभ्यास कहते हैं। संचित अनुभव को प्रखर-परिपक्व करना हो तो उसे कृत्य रूप में परिणत करना होता है। अन्यथा जानकारी हवा में तैरती रहेगी— स्वभाव का अंग न बन सकेगी।

विचार और कर्म मिलकर संस्कार बनते हैं। चेतना को किसी ढाँचे में ढालने और उस खाँचे में दृढ़तापूर्वक खिंचे रहने में इन संस्कारों की ही प्रधान भूमिका होती है। वे आदतों के रूप में विकसित होते हैं और जैसे भी भले-बुरे हैं, अपने साथ जीवनचर्या और गतिविधियों को घसीटे फिरते हैं। इन संस्कारों का समुच्चय ही व्यक्तित्व है। वह अपनी जगह अड़ा रहता है और प्रतिपक्षी वातावरण में भी अभ्यस्त ढर्रे को यथावत बनाए रहने के लिए दृढ़ता का परिचय देता रहता है। अंतराल को इसी स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए किसी व्यक्ति के स्तर का पता चलता है।

कथन, श्रवण दोनों ही क्षणिक एक हवाई हैं। वे एक क्षण उत्साह भरते और दूसरे क्षण बबुले की तरह समाप्त होते भी देखे जा सकते हैं कि चिरकाल तक जिस प्रकार के कृत्य किए जाते रहे हैं, स्वभाव का अंग बन जाने पर वे हटने का नाम नहीं लेते। नशेबाजों की विवशता इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

मनःसंस्थान की बनावट विचित्र है। वह दुमुँही की तरह उलटा और सीधा दोनों तरफ चलता है। आकांक्षाओं के अनुरूप मन और शरीर को काम करने पड़ते हैं, इस तथ्य से सभी परिचित हैं; किंतु इसी रहस्य की एक कड़ी यह भी है कि निरंतर के कृत्य अपने अनुरूप मन को ढाल लेते हैं। वातावरण का प्रभाव इसी को कहते हैं। इसमें गतिशील प्रभाव ही नहीं, अपना निजी क्रियाकलाप भी सम्मिलित होता है तो स्वभाव उस ढाँचे में ढल जाता है। आदतें उसी प्रचलन को पकड़ लेती हैं। कसाई कालांतर में इतनी कठोर मनोभूमि के हो जाते हैं कि उनमें दया, करुणा नाम की कोई चीज शेष रह नहीं जातीं। अपना कृत्य वे बिना किसी भय, संकोच के करते रहते हैं। वह उन्हें सहज लगता है, जबकि दया-धर्म की मनोभूमि वाले के लिए उस वीभत्स को देखने तक में ही दिल दहलता है, साँस रुकती है।

दुष्ट-दुराचारी आरंभ से ही असमंजस करते हैं, वेश्याएँ कुछ दिन ही झिझकती हैं। डाकुओं, तस्करों, ठगों को अपना व्यवसाय सहज मनोरंजन एवं सामान्य कृत्य जैसा लगता है। कृत्य से अंतस् ढालने की बात यहाँ प्रत्यक्ष है। यही बात पुण्य-परमार्थ के, चरित्र संयम के संबंध में भी लागू होती है। कुछ दिन उस मार्ग पर चलने वाले अड़चन, अवरोध, असमंजस, विरोध अनख जैसा अनुभव करते हैं; किंतु जैसे-जैसे समय बीतता है, वे उस मार्ग पर चलते रहना उनके स्वभाव का अंग बन जाता है और फिर उसमें शौर्य-साहस,  त्याग-बलिदान जैसा विशिष्ट कुछ भी नहीं लगता। पटरी पर गाड़ी अपने क्रम से लुढ़कती रहती है। साधुओं की अपने ढंग की मनोभूमि और दिनचर्या होती है। दूसरे लोग उसे अपनाने में भी भारी असुविधा अनुभव करते हैं, पर अभ्यस्तों के लिए वह ढर्रा ही प्राणप्रिय बन जाता है। इसमें आदर्श की कम और स्वभाव की भूमिका अधिक होती है। देशभक्तों, समाजसेवियों के कई परिवार ऐसे होते हैं जो अन्य व्यवसायियों की तरह सीधे-साधे अभ्यास को सहज स्वाभाविक रीति से अपनाए रहते हैं। भौतिक, आत्मिक सभी क्षेत्रों में यह बात समान रूप से लागू होती है।

लोक-मानस के परिष्कार में व्यक्तिगत पवित्रता— प्रखरता पर जोर दिया जाता है और समाजगत न्यायनिष्ठा एवं उदार सहकारिता को प्रोत्साहित किया जाता है। यह मात्र चिंतन ही नहीं, कृत्य भी है। ताने-बाने के दोनों धागे मिलकर इस कपड़े को बुनते हैं। आवश्यक है कि जहाँ दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने का समग्र लोक-शिक्षण दिया जाए, वहाँ यह भी न भुला दिया जाए कि उस स्तर के कुछ-न-कुछ क्रिया-कृत्य भी साथ में जुड़े रहने चाहिए। बीजारोपण को अंकुरित-पल्लवित करने के लिए इसी खाद-पानी की आवश्यकता पड़ती है।

प्रयत्न यह चलना चाहिए कि देशधर्म को आत्मा-परमात्मा का गौरव और उत्तरदायित्व समझने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा कुछ नियमित रूप से करते रहने के लिए तत्पर किया जाए, जिसमें लोक-मंगल को सत्प्रवृत्तियों में प्रत्यक्ष सहयोग मिलता हो। कार्य छोटा ही क्यों न हो, पर यदि वह नियमित रूप से चलेगा तो उस दिशा में प्रगति होगी और परिपक्वता बढ़ेगी। जैन धर्म की एक तीर्थकर की कथा है कि वे आरंभिक जीवन में बहेलियों का धंधा करते थे। दीक्षा लेने आए तो अहिंसा पालन का व्रत लेने के लिए कहा गया। इसमें आजीविका चले जाने का संकट न सह सकने का तर्क देते हुए, उनमें स्वल्प अहिंसा की सरलता बना देने का अनुरोध किया। सोच-विचार के बाद में वैसी सुविधा मिली और कौए की हत्या न करने का संकल्प लेकर हल निकाला गया। वे अहिंसा की महिमा पर कौए पर दया दिखाने के माध्यम से विचार करते रहे और अंततः अहिंसा धर्म के परिपालक ही नहीं, प्रवक्ता भी बन गए। यही अणुव्रत है। थोड़ा शुभारंभ भी भविष्य की महती संभावनाओं का विश्वास दिलाता है।

युगांतरीय चेतना को अग्रगामी बनाने के लिए हर जागृत आत्मा को स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन, पूजन, भजन तक सीमित न रहकर कुछ ऐसा करने के लिए भी कहा जाना चाहिए, जिसमें उसे श्रम करना और सहयोग देना पड़ता हो। यही प्रज्ञा अभियान में सम्मिलित होने का व्रत-धारण है। प्रज्ञापरिजनों को इस देव परिवार का सदस्य बनने के लिए न्यूनतम एक घंटा समय और दस पैसा नित्य की अपने क्षेत्र में रचनात्मक प्रवृत्तियों को गतिशील बनाने के लिए नियमित रूप से देना होता है। इससे कम में किसी को प्रज्ञापरिजन कहलाने का अधिकार नहीं मिलता। यह समय अपने समीपवर्त्ती क्षेत्र में मिशन की बीससूत्री योजना में लगाना पड़ता है। प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, स्वच्छता अभियान, गृह-उद्योग अपव्यय की रोक-थाम स्वास्थ्य-संवर्द्धन, नशा-निषेध, दहेज विरोध, जाति और लिंग के नाम पर चलने वाली असमानता का उन्मूलन जैसे कितने ही रचनात्मक कार्य इस योजना में सम्मिलित हैं। व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण, समाज निर्माण के लिए नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांति के लिए बहुत कुछ करने के लिए योजनाबद्ध कदम उठाए गए हैं। एक घंटा नित्य समय इन्हीं कार्यों में हर प्रज्ञापरिजन को लगाना पड़ता है। हर दिन न बन पड़े तो सप्ताह में सात घंटे या महीने में तीस घंटे सुविधानुसार लगाने का भी विकल्प रहता है। इसके अतिरिक्त दस पैसा नित्य की राशि भी उन्हें निकालनी पड़ती है। इसका उपयोग युगसाहित्य अपने घर-परिवार में तथा पास-पड़ोस में पढ़ाने के लिए भी इस पैसे का उपयोग होता है।

बात छोटी-सी है, पर उसे एक कृत्य व्रत के रूप में अपनाने और उज्ज्वल संभावनाओं से भरे-पूरे शुभारंभ के लिए स्वभाव अभ्यास बनता है। देखने में यह समयदान-अंशदान नगण्य जितना है, फिर भी उसका संयुक्त प्रभाव कितना बड़ा होता है, इसका अनुमान लगाने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। दस लाख प्रज्ञापरिजन एक घंटा समय निकालकर दस लाख घंटे का श्रमदान करते हैं। काम के घंटे 7 माने गए हैं। दस लाख घंटे के प्रायः डेढ़ लाख श्रमदिन होते हैं। इतने श्रम समय निरंतर सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहे तो अनुमान लगाया जाता है, वे लोग अपने-अपने क्षेत्रों में जितना कुछ उत्साहवर्द्धक कर रहे होंगे। दस पैसा प्रतिदिन की राशि भी दस लाख व्यक्तियों के लिए एक लाख रुपया प्रतिदिन होती है। इस अंशदान के उपरांत सत्प्रवृत्तियों के लिए आवश्यक खर्च का पूरा समय देने वाले कार्यकर्त्ताओं का निर्वाह, स्वाध्याय-साहित्य, प्रज्ञा-संस्थानों का दैनिक खर्च सरलतापूर्वक चल जाता है। यह ही बूँद-बूँद से घड़ा भरने की कहावत का प्रत्यक्ष प्रमाण— उदाहरण है। उसे व्यापक क्षेत्र में बड़े रूप में चरितार्थ किया जा सके तो नवसृजन के लिए श्रम साधन जुटाने में कहीं भी अवरोध-असमंजस न दिख पड़े। सरकारी सहायता माँगने एवं धनिकों के सम्मुख नाक रगड़ने की फिर कहीं, किसी को आवश्यकता न पड़ेगी। भावनाशील परमार्थपरायणों के मुट्ठी-मुट्ठी समयदान-अंशदान में नवसृजन की वे योजनाएँ सहज संपन्न हो सकती हैं, जो आज साधनों के अभाव में अवरुद्ध बनी पड़ी हैं।

भारत की देव संस्कृति का व्यवहार निर्धारण वर्णाश्रम धर्म के रूप में हुआ है। चार आश्रमों में पूर्वार्ध के दो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ— निजी प्रयोजनों के लिए हैं और उत्तरार्ध के दो वानप्रस्थ और संन्यास परमार्थ-प्रयोजनों के लिए। पचास वर्ष की अधेड़ आयु पूरी कर लेने के बाद प्रायः पारिवारिक उत्तरदायित्व बड़े लड़के संभाल लेते थे और पिता को परमार्थ-प्रयोजनों के लिए छुट्टी मिल जाती थी। इन चारों में वानप्रस्थ को संस्कृति का मेरुदंड माना गया है। अनुभवों से परिपक्व, भावना से निवृत्त व्यक्ति अपनी निजी खर्च संचित-संपदा से चलते और निरंतर लोक-मंगल में निरत रहते थे। इस प्रकार सुयोग्य लोकसेवा प्रचुर परिमाण में अवैतनिक रूप से मिलते थे। अपनी निस्पृहता चरित्रनिष्ठा एवं परमार्थ भावना से जन-जन का हृदय जीतते और उन्हें सन्मार्ग पर अग्रसर किए रहने में सफल होते थे। यही था प्राचीनकाल का गौरव-गरिमा का सबसे बड़ा स्रोत और रहस्य। पिछले अंधकार युग में वह पुण्यपरंपरा समाप्त प्रायः हो गई और पलायनवादी तथाकथित साधु-संन्यासी विपुल संख्या में भ्रांतियाँ फैलाते, निर्धन जनता पर भाररूप लदते विचरने लगे। दुर्गति के कारणों में एक बड़ा हेतु यह भी है। प्रज्ञा अभियान में उस पुण्यपरंपरा को पुनः जीवित किया है और लोकसेवी वानप्रस्थों को परिव्राजक रूप में व्रतशील बनाकर घर-घर अलख जगाने, जन-जन से संपर्क साधने और युगांतरीय चेतना से अनुप्राणित करने के लिए भेजा है। यही प्रक्रिया प्राचीनकाल में तीर्थयात्रा, धर्मप्रचार की पदयात्रा के नाम से प्रख्यात थी। तीर्थों के नाम पर चलने वाली विडंबना के पीछे जो निहित स्वार्थ जुड़ गए हैं, उन्हें वर्तमान परिस्थितियों में विलग करना कठिन है। दूसरा उपाय एक ही था— युगतीर्थों की स्थापना। प्रज्ञापीठों के रूप में पिछले दिनों वे चौबीस सौ के लगभग बने हैं। उन्हें रचनात्मक गतिविधियों का केंद्र बनाकर समयदानी वानप्रस्थों, परिव्राजकों के माध्यम से जनजागरण का, नवसृजन के उल्लास का वातावरण बनाया गया है। यह प्रयोग आशातीत ढंग से सफल भी हो रहा है।

कंबोडिया के बौद्ध मठों में पिछले दिनों एक वर्ष के संन्यास के लिए धर्मप्रेमी लोगों को तैयार किया था। वे मठों में रहकर साधना भी करते थे और योग्यता के अनुसार लोक-मंगल के कामों में भी निरत रहते थे। उन दिनों इस परंपरा ने उस क्षेत्र की सुख-शांति का भंडार बनाकर रख दिया था। प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत एक वर्ष के संन्यास की, घर से बाहर रहकर लोक-मंगल के कार्यों में निरत रहने की परंपरा आरंभ की जा रही है। यह परिव्राजक दो-दो की टोलियों में साइकिल सवारी के साथ सुदूर देहातों में पहुँचेंगे और जन-जन को संगीत के माध्यम से अनुप्राणित करते हुए, सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए सहमत करेंगे। समय बताएगा कि लोक-मानस के परिष्कार की भूमिका निभाने में शान्तिकुञ्ज के यह प्रयत्न कितने सफल होते हैं और नवयुग की पृष्ठभूमि बनाने में कितना बड़ा योगदान करते हैं।

यह एक संगठन के सीमित प्रयत्नों की चर्चा है। यह प्रकटीकरण इसलिए आवश्यक समझा गया कि युगमनीषा जनजागरण का लक्ष्य सामने रखकर जब भाषण, लेखन दृश्य को आधार मानकर योजनाबद्ध बड़े कदम उठाएँ तब यह न भूलें कि जागृत आत्माओं को नियमित रूप से सेवाकृत्य का भी व्रत लेना पड़ेगा। समयदान और अंशदान का व्यापक उत्साह उत्पन्न करने से ही उस समग्र लोकशक्ति का उद्भव होगा, जो प्रस्तुत विपन्नताओं को उलट देने और उज्ज्वल भविष्य का अभिनव सृजन करने में सफल हो सके।


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