तम प्रेरक है, दुष्प्रवृत्तियों, दुर्भावों का,
सत्प्रवृत्तियों का प्रेरक, पावन प्रकाश है।
छाई रहती वहाँ तिमिर की काली छाया,
दुष्प्रवृत्तियों, दुर्भावों का जहाँ वास है॥1॥
अंधकार में प्रायः सभी भटक जाते हैं।
सत्प्रवृत्ति के पहिए वहाँ अटक जाते हैं, क्रूर-कृत्य चलते रहते हैं अंधकार में,
सद्भावों के दर्पण वहाँ चटक जाते हैं।
कुंठाएँ, कुत्साओं और गहन होती हैं,
पीड़ा और पतन करते रहते विनाश हैं॥2॥
निर्ममता का नाता रहता सदा ज्योति से,
सद्भावों के सुमनों का विकास होता है।
प्राण प्रफुल्लित हो उठते, भरते उमंग से,
शक्ति जगाना, किरणों का प्रयास होता है।
जहाँ प्राण को नवप्रकाश मिलता रहता है,
वहाँ प्रगति है, उन्नति है, नूतन विकास है॥3॥
आओ! हम जनमानस का तम तोम मिटाएँ,
कुत्साओं का कुंठाओं का जोर घटाए।
रह न सके कोई भी जन अज्ञानग्रसित अब,
बाहर भीतर के सारे व्यवधान हटाएँ।
चलो! उगाएँ जनमानस में सूर्य ज्ञान का,
जनमानस को नवप्रभात की लगी आशा है॥4॥
धनी-अमावस का तम हम पीने वाले हैं,
दीप मालिका बनकर हम जीने वाले हैं।
परंपरा है चिर प्रकाश की संस्कृति की,
यह निशा न चुक जाए, तब तक जीने वाले हैं।
जलते और जलाते रहना, प्राण-प्रदीपों, 'युग-परिवर्तन' नवविहान का ही प्रयास है।’
— मंगल विजय
*समाप्त*