लोकरंजन के साथ लोक-मंगल का समन्वय

October 1982

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मनुष्य की कोई वास्तविक सेवा हो सकती है तो एक ही है कि उसके दृष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यक्तित्व को परिष्कृत करने में सहारा दिया जाए। ऐसा बन पड़े तो अपंग व्यक्ति भी स्वावलंबी, सम्मानित एवं श्रेयाधिकारी जीवन जी सकते हैं। इस प्रकार के प्रमाणों के लिए इतिहास के पन्ने पलटने की आवश्यकता नहीं, उतना तो अपने इर्द-गिर्द ही दृष्टि दौड़ाकर प्रमाण, उदाहरणों का ढेर ढूँढ़ा जा सकता है। मुसीबत के समय एकदूसरे की सहायता करना मनुष्य का धर्म है, पर जहाँ तक सेवा-सहायता और पुण्य-परमार्थ के स्तर का संबंध है, वहाँ एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि चिंतन-प्रवाह को पतन-पराभव से मोड़कर उसे उत्कृष्टता के साथ नियोजित कर दिया जाए, इतने भर से वह अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहते हुए भी महानता के उच्चशिखर पर पहुँच सकता है और विपन्न परिस्थितियों में रहते हुए भी असंख्यों के लिए प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय जीवन जी सकता है।

सामयिक समस्याओं का कारण और निवारण भी इसी क्षेत्र में ढूँढ़ा जाना चाहिए। विपन्न परिस्थितियों के निराकरण के लिए आर्थिक, बौद्धिक, शासकीय प्रयत्न से सुविधा-संवर्द्धन का उपक्रम चलना ही चाहिए; किंतु बात इतने से भी बनने वाली नहीं। फुंसियों पर मरहम लगाते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि रक्तशोधन के स्थाई उपचार को भी नजरअंदाज न किया जाए। वस्तुतः यही समस्याओं का उद्गम है और यहीं समाधान भी खोजा जाना चाहिए। मूर्धन्यों में से सब न सही कम-से-कम मनीषा वर्ग को तो अपने जिम्मे लेना ही चाहिए। उनका चिंतन इस केंद्र पर केंद्रीभूत रहना चाहिए कि किस प्रकार लोक-मानस में घुसी हुई भ्रांतियों, विकृतियों एवं दुष्प्रवृत्तियों को उन्मूलन किया जाए। उनके स्थान पर किस प्रकार दूरदर्शी विवेकशीलता को, शालीन सुसंस्कारिता को प्रतिष्ठित किया जाए? इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिक, समाजसेवियों, अपराध-नियामकों, चिकित्सकों, शासकों का तीन-चौथाई भार हलका हो सकता है।

लोक-मानस को परिष्कृत करना है तो कठिन, पर युगमनीषा की मूलभूत क्षमता को देखते हुए उसे असंभव किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता। "संकल्प उठते हैं तो साधन भी जुटते हैं", इस शाश्वत सत्य पर जिनका अटूट विश्वास हैं वे ‘एकला चलो रे ‘ गुनगुनाते हुए सूर्य-चंद्र की तरह अपना पथ बनाने और अपने पैरों चल पड़ने से भी हिचकते नहीं। इन विपन्न परिस्थितियों में अनेकानेक विभीषिकाओं से एक ही मोर्चे पर लड़ा जा सकता है। लोक-मानस के परिष्कार का, विचार-क्रांति का, प्रज्ञा अभियान का महत्त्व यदि समझा जा सके तो उस एक ही काम को हाथ में लेने से समस्त समस्याओं का हल सुनिश्चित रूप से निकल सकता है। प्रबुद्ध व्यक्तित्व अपनी सामान्य गतिविधियों से ही कठिनाइयों के घटाटोप को देखते-देखते तिरोहित कर सकते हैं। छोटे से प्रकाश के सम्मुख सुविस्तृत सघन अंधकार के भी पैर टिक नहीं पाते।

चिंतन को प्रभावित करने वाले चार प्रयोजनों की चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। इस संदर्भ में वाणी-लेखनी का प्रयोग किस प्रकार होना चाहिए, इसके कुछ सुझाव-प्रयासों का उल्लेख भी हुआ है। अब तीसरे ‘दृश्य’ और चौथे ‘कृत्य’ प्रयोजन पर प्रकाश पड़ने की आवश्यकता है। वाणी-लेखनी का किस पर कितना प्रभाव पड़ा, इसमें वक्ता एवं लेखक की भूमिका ही सब कुछ नहीं है। उसमें श्रोता एवं पाठक की मनोभूमि का, कोमलता, कठोरता को भी अपना रोल अदा करती है। आदर्शवादी प्रतिपादनों का हृदयंगम करा सकना वहीं सफल होता है जहाँ भाव-संवेदनाओं की, विवेक एवं औचित्य की उर्वरता पहले से ही विद्यमान हो, पाषाण हृदय, दुष्ट-दुराग्रही, असुर-आतंकवादी श्रेष्ठता का समर्थन सुन तो सकते हैं, पर उसे हृदयंगम करने लिए अहंकारी-अहंमन्यता को लाँघने के लिए सहमत नहीं हो सकते ऐसे लोगों के लिए एक कदम आगे बढ़कर ‘दृश्य’ उपक्रमों के साथ कडुई गोली चीनी लपेटकर देनी पड़ती है। स्पर्श का, दृश्य का प्रभाव स्वाध्याय और सत्संग से भी अधिक पड़ता है। उसे बालबुद्धि और कठोर मनोभूमि के लोग भी अपेक्षाकृत अधिक सरलता से हृदयंगम कर सकते हैं।

चित्रकथाएँ बालकों को कितनी प्रिय होती हैं। समूचा फिल्म उद्योग इसी मानवी प्रकृति पर टिका हुआ है कि लोग घटनाक्रम देखना अधिक पसंद करते हैं। अभिनय-नाटकों की लोकप्रियता सर्वविदित है। संगीत समारोहों में समा बँधता है और बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी उन्हें सुनने के लिए दौड़ पड़ते हैं। महँगे टिकट खरीदकर भी उनमें स्थान सुरक्षित कराते हैं। ऐसे आयोजन खुले में, बिना किसी टिकट के हों तो भीड़ का बारापार नहीं रहता। रीछ, बंदरों का— मदारी, सपेरे और बाजीगरों तक का तमाशा देखने के लिए रास्ता चलते लोग काम छोड़कर धूप-छाँव की परवाह न करते हुए मजमा लगा लेते हैं। जुलूसों में बच्चे तक घुसते हैं और अर्थ न समझने पर भी दूसरों द्वारा बोले गए नारे खुद भी जोर-शोर से लगाते हैं। बाजारों में बारात निकलती है, लोग रुककर देखते हैं। मेले, ठेले, रामलीला, नौटंकी, कठपुतली, ख्याल, स्वाँग, दंगल-प्रतियोगिता, कवि सम्मेलन, मुशायरे, प्रदर्शनी, सरकस जब लगते हैं तो उन्हें देखने को कितनों का मन मचलता है और बिना बुलाई भीड़ का जमघट लग जाता है। दर्शनीय स्थानों को देखने लोग पैसा खरचते और समय निकालते हैं। तीर्थयात्रा, पर्यटन-प्रवास की योजना बनाते समय पुण्य का कम और अनदेखे दृश्य देखने का उत्साह अधिक रहता है। मनुष्य की सहज-स्वाभाविक प्रवृत्ति यह बताती है कि उसे दृश्य देखने में सहज रुचि होती है। टहलने, घूमने में लोग स्वास्थ्य-संवर्द्धन की दृष्टि से कम, चित्र-विचित्र दृश्य देखने का आनंद लेने की उत्सुकता अधिक रहती है।

दृश्य मात्र विनोद-मनोरंजन ही नहीं है; उसका दर्शक पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव भी पड़ता है। भूकंप, बाढ़, अग्निकांड, दुर्भिक्ष जैसी दुःखद दुर्घटनाएँ देखकर कठोर लोगों का भी हृदय द्रवित हो उठता है और वे सेवा-सहायता के लिए अनायास ही अंतःप्रेरणा से दौड़ पड़ते हैं। विवाह-शादियों की धूम-धाम में सम्मिलित रहने का उत्साह सभी को रहता है। घर-खाना एक बात है और प्रीतिभोज में सम्मिलित होना दूसरी। सभा-सम्मेलनों में लोग मात्र ज्ञानवर्द्धन के लिए ही नहीं पहुँचते, उपस्थित जनसमुदाय की चित्र-विचित्र शकल-सूरत को देखने का चोर भी मन में छिपा रहता है। विज्ञापनों में आकर्षक आकृतियों को इसलिए जोड़ा जाता है कि लोग उन्हें देखने के साथ-साथ विज्ञप्तित वस्तु का परिचय भी प्राप्त कर लें। इन्हीं तथ्यों को देखते हुए स्वाद और यौन कर्म की तरह दृश्य देखने में रस लेने वाली नेत्र इंद्रिय को भी प्रमुख माना गया है। लोग अपने को वस्त्राभूषणों से, शृंगार-साधनों से इसीलिए सजाते हैं कि उन पर दृष्टि खिंचने के साथ-साथ अपना परिचय भी लोगों को मिलता या बढ़ता चले। यह तथ्य ऐसे हैं जिन्हें मानव प्रकृति का अंग ही माना जा सकता है। इतना ही नहीं, उनके भले-बुरे प्रभाव पड़ने की गंभीरता से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

इस तथ्य को लोक-मानस की परिष्कार-प्रक्रिया में भी सम्मिलित किया जाना चाहिए और अधिक लोगों को अधिक प्रभावित करने की बात को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार के सरंजाम खड़े करने चाहिए। लोक-मंगल को गले उतारने के लिए उसके साथ लोकरंजन भी गुथना चाहिए। इस माध्यम से शिक्षित-अशिक्षित, पिछड़े-प्रगतिशील सभी को आकर्षित किया और उपस्थित देखा जा सकता है। यह दृश्यतंत्र यदि उद्देश्यपूर्ण है और उसमें वर्तमान विकृतियों से जूझने, सत्प्रवृत्तियों को उभारने की ललक हो तो उसे न केवल प्रचार की तरह प्रयुक्त किया जा सकता है; वरन व्यवसाय के स्तर पर आर्थिक स्वावलंबन भी रखा जा सकता है। छोटे देहातों में भी फेरी वाले ‘ऑटो विजुअल’ उपकरण सिर पर लिए घूमते रहते हैं। नट और मदारी अभी भी जीवित हैं। सिनेमा और नाटकों के भारी पूँजी वाली स्थापनाएँ अभी भी रामलीला, रासलीला को प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ नहीं सकी हैं। भारत पिछड़ी एवं विरल क्षेत्रों में बसा हुआ अशिक्षित लोगों के बाहुल्य वाला देश है। 70 प्रतिशत लोग इसी में निवास-निर्वाह करते हैं। यही असली भारत है। शहरों की दर-गुजर की जा सके और देहात को अपने कल्पना-चित्र से प्रमुखता दी जा सके तो उसे युगचेतना से अवगत-प्रभावित करने के लिए इस ‘दृश्य’ माध्यम को नए सिरे से गठित किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि वह फिल्म-उद्योग की तरह मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथ में ही रहे। उसे छोटी पूँजी वाले सरकारी मंडली की सहायता से हर जगह स्थानीय प्रतिमाओं के सहारे गठित किया जा सकता है। स्वसंचालित विशालकाय कारखानों की प्रतिद्वंद्विता का सामना करते हुए यदि चरखा और करघा जीवित रह सकता है तो कोई कारण नहीं कि लोकरंजन के साथ लोक-मंगल का समन्वय योजनाबद्ध रूप से आगे न बढ़ाया जा सके। पारमार्थिक न सही व्यावसायिक आधार पर भी इस तंत्र को खड़ा करने और सफल बनाने की अपने देश में पूरी-पूरी गुंजाइश है।

बड़ी और व्यापक योजनाएँ बड़े लोग बड़े साधनों से खड़ी करने में सफल रहते हैं, पर इसका अर्थ यह तो नहीं है कि बड़े आगे बढ़ें और छोटे रुके रहें। प्रगतिशील प्रयत्नों से गतिरोध तो नहीं ही अड़ना चाहिए। छोटे शुभारंभ से भी चिनगारी की स्थापना ज्वालमाला के रूप में विकसित हो सकती है। न कुछ-से-कुछ करने की नीति अपनाना ही अधिक श्रेयस्कर है।

प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत एक छोटा रेडियो-स्टेशन और छोटा फिल्म-उद्योग बड़ी सफलता के साथ चल रहा है। टेप-रिकार्डर द्वारा सुनाए जाने वाले संगीत और प्रवचनों के टेप बड़ी संख्या में बनने और उन्हें छोटे समुदायों को एकत्रित करके सुनाए जाने के प्रयत्न में हजारों युगशिल्पी लगे हैं। लाउडस्पीकरों की सहायता से इन प्रेरक टेपों को प्रतिदिन हजारों-लाखों की संख्या में लोग सुनते हैं। यही है अपना छोटा-सा चलता-फिरता नितांत सस्ता-सर्वसुलभ मिनी रेडियो-स्टेशन। इस संदर्भ में एक छोटा स्लाइड प्रोजेक्टर बना है। इसके लिए 36-36 रंगीन स्लाइडों के दर्जनों सैट बने हैं। किसी भी गली-मुहल्ले के लोगों को एकत्रित करके प्रकाश-चित्रों की व्याख्या करते हुए भाव-भरा प्रदर्शन होता है। खर्च कुछ नहीं, टिकट कुछ नहीं। लागत आश्चर्यजनक रूप से कम। 200रु. की पूरी मशीन। 36 स्लाइडों का एक प्रसंग फिल्म 45रु. का। इसे कोई भी लोकसेवी निजी पूँजी से अथवा मिल-जुल खरीद लेता है और हर दिन मुहल्ले-मुहल्ले में दिखाते रहने का उपक्रम चलाता है। हर दिन पचास की उपस्थिति मानी जाए तो वर्ष में देखने वालों की संख्या 360 X 50 =18000 होती है। ऐसे पाँच हजार स्लाइड प्रोजेक्टर कार्यक्षेत्र में उतरें तो उस मिनी सिनेमा से, उससे अधिक लोग इस प्रभाव-प्रेरणा की परिधि में आते हैं, जितने कि अरबों-खरबों की लागत वालो फिल्म-उद्योग द्वारा होता है। यह है— अपना मिनी फिल्म उद्योग।

छोटी चित्र प्रदर्शनियाँ, छोटी संगीत मंडलियाँ इन दिनों प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत देश के कोने-कोने में पहुँचना और लोक-मानस के परिष्कार की भूमिका निभाती हैं। वाहनों का प्रबंध तो नहीं हो सका। कठिनाई से कुछ जीपें हाथ लगीं। सोचा गया है, वह प्रयोजन साइकिलों से भी पूरा हो सकता है। घर-घर अलख जगाने की परिव्रज्या के लिए, परिव्राजक का बिस्तर लाद ले चलने और कभी-कभी सवारी के रूप में प्रयुक्त हो सकने की आवश्यकताएँ साइकिल से सधती हैं, इसलिए एक हजार युगशिल्पियों का लक्ष्य रखकर प्रायः उतनी ही साइकिलें जुटाने की दौड़-धूप हो रही है। आधे साधन बन गए। जितना और प्रबंध होगा प्रचारकों की वानरसेना उसी अनुपात से संस्कृति की सीता की खोज के लिए निकलती और बढ़ती चली जाएगी। इस छोटे से प्रयास को देखकर युगमनीषी यह सोच सकते हैं कि बड़े विस्तार के साथ, व्यापक रूप में यह प्रयत्न किस प्रकार अग्रगामी बनाए जा सकते हैं।


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