नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्रों में घुसी हुई भ्रांतियाँ अपने-अपने क्षेत्रों में चित्र-विचित्र प्रथा-परंपरा बनकर रही हैं और प्रचलन में इतनी गुँथ गई हैं कि उनकी अनुपयुक्तता के बारे में संदेह करने तक की आवश्यकता नहीं समझी जाती।
मानवी सत्ता, सृष्टा की अनुपम कलाकृति है, उसे इसलिए सृजा गया है कि अपनी विशिष्टता और वरिष्ठता के सहारे इस विश्व-उद्यान को सुरभित, समुन्नत रखे। औसत नागरिक की तरह सादगी भरा निर्वाह करे, उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श चरित्र की गौरव गरिमा बनाए रहे, पवित्रता एवं प्रखरता पर आधारित व्यक्तित्व समर्थ रखे तथा ऐसी योजना बनाकर चले, जिसका अनुकरण करने वाले निरंतर ऊँचे उठते, आगे बढ़ते रहे। संक्षेप में यही है, मनुष्य की नीति-मर्यादा का सार-संक्षेप। इसका जो जितना परिपालन करता है, वह उतना ही नीतिवान है। इस निर्धारण को जो जितना तोड़ता है। जो लोभ, मोह और अहंकार के लिए ही मरता-खपता है, जिसे वासना-तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं, जिसे संकीर्ण स्वार्थपरता में आगे की बात सोचने की फुरसत ही नहीं, जिसके मन में लोक-मंगल के उत्तरदायित्व निभाने के लिए उल्लास उठता ही नहीं उसे अनैतिक कहना चाहिए। उद्धत अपराधों की तरह संकीर्ण स्वार्थपरता भी तत्त्वदर्शियों द्वारा अनीति ही मानी गई है। देखा जाना चाहिए कि अनीति ने व्यक्तिगत रुझान और सामुदायिक प्रचलन में कितनी गहरी जड़ें जमाई हैं। इन्हें उखाड़ने के लिए उतनी ही गहरी खुदाई करने की आवश्यकता पड़ेगी। हर व्यक्ति को समझाया जाना चाहिए कि प्रस्तुत प्रवाह में बहने पर वह किस प्रकार हर दृष्टि से घाटे ही घाटे में रहता है। समझना होगा कि यदि आदर्शवादिता अपनाई जा सके तो उसमें पूरी तरह लाभ ही लाभ है।
बौद्धिक-क्षेत्र में अंधविश्वासों के उलूकों ने कितने घोंसले बना रखे हैं और वे कितनी निश्चिंततापूर्वक बस गए हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है। आहार को ही लें भूना-तला, मिर्च-मसाले वाले स्वादिष्ट समझा जाने वाला अभक्ष्य ही हम सब उदरस्थ करते हैं, नशे पीते हैं। यह भूलते ही जा रहे हैं कि मानवी आहार में शाक-भाजी की प्रमुखता कितनी आवश्यक है। अन्न लेना हो तो उबाल लेना ही पर्याप्त है। माँस मानवी आहार में किसी दृष्टि से फिट नहीं बैठता। खारी नमक सोडियम क्लोराइड एक प्रकार का विष है। इसी प्रकार शीरा निचोड़ देने के बाद चीनी भी मीठा जहर सिद्ध होती है; पर कौन किसे समझाए कि वर्त्तमान पाक-विद्या एवं स्वाद-लिप्सा प्रकारांतर से धीमी आत्महत्या ही सिद्ध होती है। यदि आहार-क्षेत्र में विचार-क्रांति का समावेश हो सके तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि प्रस्तुत दुर्बलता और रुग्णता से आधा छुटकारा अनायास ही मिल सकता है। इसी प्रकार सोने, जागने, श्रम करने, धूप-हवा के संपर्क में रहने, कम कपड़े पहनने, ब्रह्मचर्य पालने जैसे मोटे-मोटे प्रकृति निर्देशों को पाला जा सके तो मनुष्य भी अन्य स्वच्छंद जीवन जीने वाले प्राणियों की तरह निरोग एवं दीर्घजीवी रह सकता है। यदि आहार-बिहार का प्रचलित प्रवाह उलटा जा सके तो समझना चाहिए कि पीड़ा सहने, चिकित्सा में धन गँवाने, अशक्त रहने, अनुपयोगी बनने, कुसमय बेमौत मरने जैसे अगणित संकटों से सहज छुटकारा मिल गया।
मानसिक विक्षोभों का प्रधान कारण है— निषेधात्मक चिंतन। जो उपलब्ध है, उसका संतोष, आनंद लेने की अपेक्षा जो नहीं है, उसी की सूची बनाए फिरना, अधिक संपन्नों के साथ तुलना करके दरिद्र अनुभव करना। तुलना ही करनी हो तो पिछड़ों के साथ करके अपने सौभाग्य को सराहा क्यों न जाए? चारों ओर जो उत्साहवर्द्धक भरा पड़ा है जिसे देखने, सोचने, स्मरण करने से कृतज्ञता, प्रसन्नता की अनुभूति होती है, उसी पर ध्यान केंद्रित क्यों न किया जाए? मनोकामनाओं के पर्वत सिर पर लादने की अपेक्षा निर्वाह में संतोष करने की आदत क्यों न डाली जाए? अभीष्ट प्रतिफल की ललक में आकुल-व्याकुल रहने की अपेक्षा कर्त्तव्यपालन में निरत रहने और उतने भर में गर्व-गौरव अनुभव करने की आदत क्यों न डाली जाए? हार-जीत की परवाह न करते हुए भी खिलाड़ी जब प्रसन्नतापूर्वक खेल का आनंद ले सकते हैं तो जीवन-नाटक में आने वाले उतार चढ़ावों में अपना ही संतुलन क्यों बिगाड़ा जाए? हर कोई हमारी मर्जी पर चले इसका आग्रह क्यों हो? अपनी जैसी विचार स्वतंत्रता दूसरों को क्यों न अपनाने दी जाए? आदि प्रश्न ऐसे हैं जिन पर यदि ठंडे मन से विचार किया जा सके और चिंतन के अभ्यस्त ढर्रे में विवेकयुक्त परिवर्तन किया जा सके तो तनाव, खीज़, चिंता, आशंका, आवेश जैसे कितने ही मनोविकारों द्वारा निरंतर झुलसते रहना समाप्त हो सकता है।
हँसने-हँसाने की हलकी-फुलकी चिंतन-प्रक्रिया एक आदत भर है, जिसका अनुकूलता या प्रतिकूलता से कोई गहरा संबंध नहीं है। मस्तिष्क सभी को उपलब्ध है। भाव-संवेदना से भरा-पूरा अंतःकरण किसके पास नहीं है। उस क्षीर सागर, कैलाश जैसे पुण्य क्षेत्र में भ्रष्टता और दुष्टता से सने कषाय-कल्मष भर लेने का ही परिणाम है कि ऋषिकल्प संभावनाओं वाली देवात्मा चेतना, निकृष्ट नारकीयता में आबद्ध होकर रह जाती है। इसे उलटना हर विवेकशील के लिए संभव है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, विल्व मंगल जैसे जब दृष्टिकोण बदलते ही कुछ से कुछ हो सकते हैं तो अन्य किसी के लिए वैसा आत्मपरिवर्तन क्या कठिन हो सकता है।
परिवार एक भला-चंगा उद्यान है। उसे सृष्टा की अमानत समझकर कर्त्तव्यनिष्ठ माली की तरह सुसंस्कृत, स्वावलंबी बनने का प्रयत्न चले। पत्नी के साथ मित्र-साथी भर मानकर चला जाए। यौनाचार की अति करके उसके शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को क्षत-विक्षत न किया जाए, अनावश्यक प्रजनन से हर किसी के लिए सर दर्द उत्पन्न न किया जाए। लड़की लड़के में भेदभाव करने की कुटिलता से बचा जाए, हर सदस्य के प्रति एक आँख प्यार की दूसरी सुधार की रखी जाए तो वह भ्रष्टाचार न पनपेगा, जिसमें प्रसन्न करने के लिए अनुचित उपहार देने की रीति-नीति अपनाई जाती है । उत्तराधिकारियों के स्वावलंबी होते हुए उन्हें पूर्वजों की संपत्ति मिले यह कानून प्रचलन चोरों ने चोरों के लिए ही बनाया है। हर समर्थ व्यक्ति को अपनी कमाई खानी चाहिए। पूर्वजों का छोड़ा धन सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन में लगना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, विलास, अपव्यय, उपेक्षा, असहयोग के विषवृक्ष यदि परिवार के खेत में न पनपने दिए जाए तो कोई कारण नहीं कि अपने इन्हीं घर-घरौंदों को नर-रत्नों की खदान के रूप में परिणत न किया जा सके। नए परिवार बनते और पुराने टूटते जा रहे हैं। खंडहरों और मरघटों का विस्तार हो रहा है। ऐसी दशा में परिवारों को भटियारों की सराय तथा भेड़ों के बाड़े जैसा कुरुचिपूर्ण देखा-पाया जा रहा है तो आश्चर्य ही क्या है।
शरीर, मस्तिष्क, परिवार की तरह ही अर्थ-व्यवस्था का भी जीवन तंत्र पर भारी प्रभाव पड़ता है। आज धनी-निर्धन हर किसी की आर्थिक आवश्यकता बढ़ी-चढ़ी है और तंगी अनुभव होती रहती है। संचय और अपव्यय के लिए तो कुबेर का खजाना भी कम पड़ता है। अनीति उपार्जन, अपराध, ऋण, रिश्वत, बेईमानी का दौर आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के नाम पर चलता है। इस कमी की पूर्ति उस तरह नहीं हो सकती जिस तरह कि लोग चाहते हैं। लोभ-लिप्सा को न पाटने वाली खाई और न बुझने वाली आग कहा गया है। रावण, हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर, सिकंदर जैसे धनाध्यक्षों को जब वैभव के पहाड़ हाथ लगने पर भी संतोष न मिल सका तो सामान्य स्तर वालों की बात ही क्या है। ऐसी दशा में अर्थ-संतुलन बिठाने के लिए दृष्टिकोण परिवर्तन का नया आधार अपनाना पड़ेगा। औसत देशवासियों के स्तर का निर्वाह, जितनी लंबी सौर तेते पाँव, सादा जीवन उच्च विचार वाले, विलास और अपव्यय में कटौती जैसे दूरदर्शितापूर्ण सिद्धांत अपना लेने पर इस संबंध की समस्याएँ सहज ही हल हो जाती हैं। आलस्य-प्रमाद छोड़ा, श्रमशील बना, काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न माना और योग्यता वृद्धि में उत्साह रखा जाए तो स्तर के अनुरूप आजीविका बढ़ भी सकती है। प्रश्न-विस्तार से कम, सदुपयोग से अधिक संबंधित है। थोड़े से साधनों का भी यदि श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़े तो गरीबी में भी अमीरों से बढ़कर आनंद के साथ जिया जा सकता है। परिश्रम और ईमानदारी की कमाई ही फलती-फूलती है, इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर उपार्जन और उपयोग का संतुलन बिठाया जाए तो अर्थसंकट इस तरह किसी को भी न सताए जैसा कि अपव्ययी, दुर्व्यसनी और सामाजिक कुरीतियों की मूढ़मान्यताओं से ग्रसित लोगों को निरंतर भुगतना पड़ता है।
इच्छित संपदा उपलब्ध कराने के लिए गढ़ा खजाना, लाटरी का नंबर, लक्ष्मीसिद्धि, ठगी-चोरी के फेर में पढ़े रहने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि सोचने का तरीका उलट दिया जाए और सामर्थ्य भर कमाने, आवश्यकता भर खर्रचने की सुसंतुलित नीति अपनाई जाए। अध्यात्मवादी और साम्यवादी दोनों इस निर्धारण पर समान रूप से सहमत हैं। लिप्सा और तृष्णा को नियंत्रित किया जा सके तो निर्वाह में औचित्य की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए बचत को सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन में लगाया जा सके तो उतने भर से दरिद्रता का युग समाप्त हो सकता है और सीमित साधनों से हर दिशा में हर्ष-उल्लास बरस सकता है।
शिक्षितों का असंतोष देखते ही बनता है। कुछेक को छोड़कर अधिकांश को बेकारी या आत्म आजीविका की शिकायत है। हर कोई ठाट-बाट की नौकरी चाहता है। श्रम कम-से-कम, आजीविका अधिक-से-अधिक आमतौर से शिक्षितों पर यही भूत चढ़ा रहता है। सभी को ऐसी ही ठाट-बाट की नौकरियाँ चाहिए। वे सभी को मिले कैसे? उन्हें रखे कौन? अभी तो देश में शिक्षा मात्र 30 प्रतिशत है। जब अधिकांश शिक्षित होंगे और सभी ठाट-बाट की नौकरी माँगेंगे तब उनका मनोरथ पूरा होने में और भी विग्रह उत्पन्न होगा। शिक्षा का लक्ष्यमात्र नौकरी ही रहा तो संकट और भी अधिक बढ़ेगा। फलतः उस वर्ग का असंतोष विग्रह ऐसे संकट खड़े करेगा जैसे कि बिना पढ़े रहने या उत्पन्न न होते।
यहाँ शिक्षा की निंदा नहीं की जा रही। न उसे अनुपयोगी बताया जा रहा है; वरन कहा यह जा रहा है कि सामान्य ज्ञान की मैट्रिक स्तर की जीवनोपयोगी प्रारंभिक शिक्षा सर्वसुलभ हो। उसके बाद काॅलेज में प्रवेश करने से पूर्व हर अभिभावक अपने बच्चों का आजीविका लक्ष्य निश्चित करें। यह मानकर चलें कि नौकरी हर वर्ष के छात्रों में से कठिनाई से 10-5 प्रतिशत को मिलेगी। शेष को अन्य आधार अपनाकर अपने पैरों खड़ा होना होगा। जो भी धारा जिसे अनुकूल पड़े, वह उस स्तर की औद्योगिक शिक्षा प्राप्त करे। जिन्हें किसी विषय का विशेषज्ञ बनना हो, वे उसमें पारंगत होने की दृष्टि से लंबे अध्ययन की योजना बनाएँ, इसमें हर्ज नहीं; पर भेड़िया-धसान की तरह नौकरी के लिए काॅलेज की खरचीली पढ़ाई के लिए धकापेल मचाना सर्वथा अबुद्धिमत्तापूर्ण है। नई पीढ़ी के लिए सहकारी उद्योग के सहारे उत्पादन तंत्र खड़े करने और उनमें कठोर श्रम करने के लिए उद्धत रहने की बात मस्तिष्क के हर कोने में बिठा दी जाए तो शिक्षिता की जिस घुटन में घुटने और अवांछनीय दिशा में चल पड़ने का जो संकट खड़ा है, उससे छुटकारे का मार्ग मिल सकता है।
शिक्षा-व्यवस्था बनाने वालों का उत्तरदायित्व है कि वे पिछले दिनों से चले आ रहे घपले को बंद करें। असंतोष उत्पन्न करने वाली शिक्षापद्धति को बदलें और ऐसा कुछ पढ़ाएँ, जिससे जीवनोपयोगी सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त आजीविका उपार्जन का भी पथ-प्रशस्त होता हो। कोसने से नहीं, ढर्रे पर लुढ़कते रहने से भी नहीं, बात तब बनेगी जब छात्र, अभिभावक एक शिक्षातंत्र के निर्माता व्यावहारिक नीति अपनाने और पढ़ने-पढ़ाने का समूचा ढाँचा नए सिरे से निर्धारित करें।
व्यक्तिगत जीवन से संबंधित समस्याओं में अब अध्यात्म दर्शन का, आस्तिकता-आध्यात्मिकता का, धार्मिकता का मात्र भक्ति और कर्मयोग का क्षेत्र बना रहता है। बौद्धिकता का दायरा तो बहुत बड़ा है; पर उसे स्वास्थ्य-संतुलन, अर्थ परिवार के अतिरिक्त धर्म दर्शन की ओर जोड़कर जीवन-साधना के पंचशीलों से समेटा जा सकता है। दर्शन क्षेत्र की मान्यताओं को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि वे मनुष्य को अधिक सुसंस्कृत, अधिक पराक्रमी, अधिक उदार समाजनिष्ठ बनने में किस हद तक सहयोग देती हैं।