वर्त्तमान की विपन्नता का तात्त्विक पर्यवेक्षण

October 1982

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इन दिनों प्रवाह कुछ ऐसा चल रहा है, जिसमें लोक-मानस को अचिंत्य-चिंतन, कुकृत्य-कर्त्तृत्व में निमग्न देखा जा सकता है। पेट और प्रजनन से आगे की बात किसी को सूझती ही नहीं। संकीर्ण स्वार्थपरता की खुमारी ऐसी चढ़ी है कि लोभ और मोह की खाई पाटने के अतिरिक्त और कोई लक्ष्य सामने रह ही नहीं गया है। बड़प्पन की एक ही परिभाषा है— दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करके अपनी विशेषता सिद्ध करना और अहंता की, दर्प की आत्मप्रवंचना से मन बहलाना। नीति और अनीति का विचार छोड़कर, जिस प्रकार भी, जितना भी संग्रह संभव हो, करते रहना। उसे ठाट-बाट के प्रदर्शन, वैभव-विलास एवं दुर्व्यसनों में जी खोलकर उड़ाना। इतने पर भी कुछ बचा रहे तो मात्र वंशजों के लिए छोड़ मरना, भले ही उनके पास निर्वाह की कोई कमी न हो। प्रस्तुत परिवार के प्रति उत्तरदायित्व न निभ पाने पर भी आए दिन संतानें जनना, अपना अर्थ-संतुलन, पत्नी का स्वास्थ्य, बच्चों का भविष्य और देश का व्यवस्थाक्रम मटियामेट करना।

इस आसुरी रीति-नीति को अपनाने पर मनुष्य का अंतराल निष्ठुर, निकृष्ट होना स्वाभाविक है। पिछड़ापन इसी को कहते हैं। स्तर का गया-गुजरापन, शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन किसी में भेदभाव नहीं करता और सब पर समान रूप से लदा रहता है। इस सड़न भरे वातावरण में घिनौने व्यक्तित्व वाले अपराधी, निर्मम, दुष्ट और भ्रष्ट स्तर के लोग ही पनपते हैं या फिर हेय, हीन, आलसी, प्रमादी ऐसे नर-पशुओं की संख्या बढ़ती है, जिनके भार के सहन करने में धरती भी बहुत कष्ट अनुभव करती है। वे जिस समाज में जन्मते हैं, उसके लिए भारभूत होकर रहते हैं। विग्रह और विक्षोभ उत्पन्न करने, अव्यवस्था फैलाने, घृणा-जुगुप्सा का वातावरण बनाने, चैन की साँस न लेने-देने की विडंबना ही वे रचते हैं। उनके जीवित रहने से समाज और राष्ट्र का संतुलन बिगड़ता और गौरव नष्ट होता है।

गहराई के साथ पर्यवेक्षण करने पर चित्र-विचित्र कलेवरों में इस निकृष्ट स्तर के व्यक्तित्व अपनी विविध गतिविधियों में संलग्न पाए जाते हैं। क्षुद्र लोगों का उद्देश्यरहित चिंतन और आदर्शरहित चरित्र ही ऐसे घृणित वातावरण का सृजन करता है, जिसे पुरातन भाषा में नरक कहा जाता था। नरक की परिणति पीड़ा और पतन में ही होती है। जहाँ वरिष्ठ और कनिष्ठ सभी मानवी गरिमा को तिलांजलि देकर भूत-प्रेतों जैसे उद्धत आचरण में निरत हों। वहाँ शांति कहाँ, प्रगति कहाँ, स्नेह कहाँ? सौजन्य कहाँ, न्याय कहाँ, औचित्य कहाँ? जहाँ दैवी विभूतियों को बहिष्कृत कर दिया गया हो वहाँ समस्याओं, विपत्तियों, विभीषिकाओं की भी कमी कहाँ रहने वाली है। पतन की ढलान ही ऐसी है, जिस पर लुढ़कने वाले त्रास देते, त्रास सहते, अंततः महाविनाश के गर्त्त में गिरते, आत्महत्या का कलंक ओढ़ते हैं।

आश्चर्यचकित करने वाली विडंबना यह है कि एक ओर भौतिकी, औद्योगिकी और बौद्धिकी का तूफानी प्रगति ने सुविधा-साधनों के पर्वत खड़े कर दिए हैं। इतने पर भी मनुष्य क्रमशः भीतर से खोखला और बाहर से ढोल-ढकोसला मात्र क्यों बनता जा रहा है? उसकी जीवट, उमंग, तुष्टि, तृप्ति, शांति का बेतरह पलायन क्यों होता चला जा रहा है? अणु-आयुधों की सैन्य-सज्जा ने इंद्रवज्र को पीछे छोड़ दिया, फिर सर्वत्र असुरक्षा का, आशंका का, अनिश्चितता का, आतंक का वातावरण क्यों? प्रगति के लिए हर दिशा में बनने वाली योजनाओं, तैयारियों, व्यवस्थाओं और उपलब्धियों को देखकर लगता है कि अब अभाव— दारिद्र्य का कहीं कोई अस्तित्व रहने वाला नहीं है। फिर भी निष्कर्षों तक पहुँचते-पहुँचते प्रतीत हो गया है कि किसी बेताल-ब्रह्मराक्षस ने आशाओं के अंबार फूँक से उड़ाकर अंतरिक्ष में विलीन कर दिए।

उपचार अपनी जगह पर, क्षरण और मरण का क्रम अपनी गति पर, दोनों के मध्य कोई तालमेल नहीं। इसे अनहोनी ही कहना चाहिए। यह बेबूझ पहेली—पकड़ से बाहर की भूल-भूलैया किसी तिलस्म महल-सी लगती है। प्रतीत होता है कि मानवी अस्तित्व अभिमन्यु की तरह किसी ऐसे विचित्र चक्रव्यूह में फँस गया है, जहाँ से बच निकलना कदाचित अब शक्य रह नहीं गया है। आए दिन भविष्यवक्ताओं, मनीषियों, वस्तुस्थिति के आकलनकर्त्ताओं, दूरदर्शियों के कथन-प्रतिपादन सुनने को मिलते रहते हैं कि दुर्दिन तेजी से बढ़ता आ रहा है और अपने विकराल मुख में इस धरातल की संचित शोभा-सुषमा को निगल जाने की तैयारी पूर्ण कर चुका है। बढ़ता हुआ प्रजनन, प्रदूषण, पर्यावरण, विकिरण, प्रकृति-संपदा के असंतुलित दोहन के फलस्वरूप पदार्थ-संपदा का समापन ऐसे तथ्य हैं जो निकट भविष्य में जीवन-मरण जैसे संकट की पूर्ण सूचना देते हैं। प्रत्यक्ष सुविधा-संपादन के लिए जब आदर्शों और भावनाओं को तिलांजलि देने की परंपरा चल पड़ी तो फिर स्नेह-सौजन्य का क्या काम? उदार आत्मीयता को जीवंत रखने के लिए तो आत्मसंयम और सेवा-साधना करनी पड़ती है। जहाँ स्वार्थांधता का बोलबाला हो वहाँ इन श्रद्धासिक्त सत्प्रवृत्तियों के पैर कैसे टिकें? उनका अस्तित्व समाप्त हो जाने पर जिस प्रकार सोचा जाता है, जो किया और कराया जाता है, उसकी तुलना पिशाचकृत्यों से ही की जा सकती है। जहाँ पिशाचों की भरमार हो, उसे मरघट ही कहा जाएगा । वहाँ जलने-जलाने, डरने-डराने, रोने-रुलाने के अतिरिक्त और किसी माहौल की आशा कैसे की जाए?

यही है उन विसंगतियों का रहस्योद्घाटन, जिनके कारण एक हाथ से भौतिक उत्कर्ष, दूसरी ओर आत्मिक अपकर्ष का जादुई हेर-फेर चलता, दृष्टिगोचर होता है। जब तक यही स्थिति बनी रहेगी; प्रवाह, माहौल, वातावरण ऐसा ही बना रहेगा; जिसमें घुटन, संकट, असंतुलन, विभ्रम, विग्रह के अतिरिक्त और कहीं कुछ न दिखे, न सूझे। फिर किया क्या जाए? अच्छा तो यही लगता है कि अपने काम-से-काम रखा जाए। दुनिया का लेखा-जोखा लेकर सुधार-संभाल की चिंता का भार सिर पर न लादा जाए; किंतु कठिनाई यह है कि बात इस प्रकार भी तो नहीं बनती। चारों ओर अग्निकांड की लपटें उठें, सारा मुहल्ला धूँ-धूँकर जले तो अपने मध्यवर्त्ती घर की सुरक्षा कहाँ बन पड़ती है? गाँव में महामारी फैले तो अपने परिवार का निश्चिंत रहना कैसे संभव है? गुंडे, बदमाशों का समुदाय किसी क्षेत्र में छाया हो तो अपने घर के लोगों को उनके कुचक्र से कैसे विरत रखा जाए? गेहूँ के साथ घुन पिसता है। दुर्जनों का बाहुल्य हो तो मुट्ठी भर सज्जनों की भी खैर नहीं। प्रश्न समृद्धि की कमी का नहीं, भावनाओं के दुर्भिक्ष का हैं। मनुष्य हाड़-माँस का पुतला नहीं, भावना और आस्था का पुंज है। उसका जैसा भी अंतराल होगा वैसी ही उसकी आदतें ढलेगीं, इच्छाएँ उठेंगी, गतिविधियाँ चलेंगी। फलतः मनःस्थिति के अनुरूप ही वह परिस्थितियाँ सृजन करता और उनमें जकड़ता चला जाएगा। यही है आज की वस्तुस्थिति का सूक्ष्मनिरीक्षण, शवच्छेदन और विश्लेषण।

विपन्नता को उलटने के लिए एक ही प्रयास करना होगा कि व्यक्तित्त्वसंपन्न मानवों को ढूँढ़ा, उभारा, उछाला और लोक-मानस को प्रभावित करने वाली भूमिका निभाने के लिए अग्रिम मोर्चे पर खड़ा किया जाए। इतना बन पड़े तो उन समस्त समस्याओं का हल संभव और सरल है जो लाख प्रयत्न करने पर भी सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। सवाल न तो संपदा की कमी का है और न साधनों के बिना कोई काम रुका पड़ा है। मनुष्य का श्रम और कौशल ही संपत्ति का उत्पादन-उपार्जन करता है। वह पिछड़े स्तर का हो तो दरिद्रता से, विपन्नता से छुटकारा नहीं। वह प्रखर हो तो बालू से तेल निकालने, लात मारकर पाताल से पानी निकालने की बात संभव हो सकती है। फरिहाद का कोह खोदकर नहर निकालना एकाकी संकल्प के सहारे संभव हो सका। कल-परसों एक हजारी किसान ने बिहार में एक हजार आम्र-उद्यान लगाकर उस इलाके को हजारी बाग का श्रेयाधिकारी बना दिया।

महामानवों की समूची इतिहास शृंखला इसी प्रकार की हैं। शंकराचार्य, बुद्ध, गाँधी, विवेकानंद, दयानंद, कबीर, दादू, नानक, समर्थ, केशव, प्रताप, सुभाष आदि की गाथाएँ यही प्रामाणित करती हैं कि सफलताएँ सदा मनस्वी के चरण चूमती रही हैं। ओजस् आगे बढ़ा है, जो उसके तूफानी पराक्रम के साथ अनुयायियों के अनगिनत पत्ते-तिनके अनायास ही पीछे दौड़ते चले आए हैं। प्रवाह उत्पन्न करने में व्यक्तित्व ही समर्थ रहे हैं और रहेंगे। आज के पतन-पराभव का सृजन भी उन्होंने किया है।

उदाहरण के लिए साहित्य, कला, अभिनय, संगीत को ही लें। इस अकेली धारा ने कोटि-कोटि मानवों के मनःक्षेत्रों को कलुष-कालिमा से भर दिया है। पतन-प्रवाह को, सर्वनाश की भूमिका निभाने के लिए स्वच्छंद गति से बढ़ते चलने, जो भी लपेट में आए उसे निगलते चलने के लिए स्वच्छंद छोड़ दिया है। यदि इस कला-क्षमता को सृजन-प्रयोजन में, आदर्शों के लिए प्रोत्साहन में प्रयुक्त किया गया होता तो उसकी स्थिति आज कि स्थिति से सर्वथा भिन्न होती। लोक-मानस के पतनोन्मुख बनाने में कला-क्षेत्र के मूर्धन्यों की संपदा, बुद्धि और कुशलता नियोजित हो सकी होती तो निश्चित रूप से आज सतयुग के दृश्य उपस्थित हुए होते। शक्ति तो शक्ति है। उसे दुधारी तलवार की संज्ञा दी गई है। वह सुरक्षा, दुष्ट-दमन, बालवध, आतंक, आत्महत्या आदि किसी भी भले-बुरे काम में प्रयुक्त की जा सकती है। जो बात कला के संबंध में कही जा रही है, वही विज्ञान, शिक्षा, शासन, उत्पादन, व्यवसाय, गठन, प्रचलन आदि सभी क्षेत्रों के लिए समान रूप से लागू होती है।

न प्रकृति-संपदा की कमी है, न बुद्धि-कौशल की। मानवी, पशु-समुदाय का, भाप, तेल, विद्युत का बल-वैभव भी कम नहीं। उन उपलब्धियों का यदि सही दिशा में सुनियोजन-सदुपयोग किया जा सके तो विश्वास किया जाना चाहिए कि वर्त्तमान साधनों से ही व्यक्ति का, समाज का, विश्व का कायाकल्प हो सकता है। संव्याप्त हाहाकारी— विपन्नता का स्थान सुख-शांति से भरी-पूरी सुसंपन्नता ग्रहण कर सकती है। इसके लिए किसी विप्लव— विद्रोह जैसी भयावह मार-काट या उथल-पुथल की भी आवश्यकता न पड़ेगी। दुर्बुद्धि को संमति में बदल लेना इतना कठिन काम नहीं है, जितना कि महायुद्धों का नियोजन। जब अंतरिक्षयुद्ध से महाप्रलय के नियोजन की, अणु-आयुधों से धरती की धज्जियाँ उड़ा देने की, प्रदूषण-विकिरण से प्राणी-समुदाय का दम घोट देने की, श्रमसाध्य, व्ययसाध्य असंभव जैसी लगने वाली योजनाएँ संभव हो सकती हैं तो कोई कारण नहीं कि मानवी संकल्प दुर्बुद्धि को सद्बुद्धि में बदल देने, अवांछनीय की दिशा में बहने वाले प्रचलन-प्रवाह को मोड़ने-मरोड़ने में सफल न हो सके। संकल्प, साहस और पुरुषार्थ का समन्वय जब भी, जहाँ भी, जिस प्रयोजन के लिए भी हुआ है, वहाँ असंभव को संभव में बदलने का चमत्कार उत्पन्न होता रहा है। यदि सृजन सोचा गया होता, उत्कर्ष लक्ष्य रहा होता, दूरदर्शी विवेक को आश्रय मिला होता तो आज वह स्थिति सामने न आई होती, जिसमें कुछेक को छोड़कर हर व्यक्ति खिन्न, असंतुष्ट, विपन्न, निराशा एवं भयभीत दिखाई पड़ रहा है।

यों धरती पर सदाशयता भी विद्यमान रहती है। बीजनाश तो प्रलयकाल में भी नहीं होता। सज्जन अभी भी मौजूद हैं। सत्प्रवृत्तियों की इतिश्री हो गई हो, सो बात भी नहीं है। सृजन की बात सोचने वाले और उसके लिए अपनी नगण्य-सी सामर्थ्य से छुट-पुट कुछ-कुछ करते रहने वाले भी ढूँढ़ने पर मिल ही सकते हैं, पर उनकी गणना लंका में विभीषण की दाँतों के बीच जीभ जितनी ही हो सकती है। बाहुल्य और बहुमत को ही प्रधानता देनी होती है और मूल्यांकन उसी का होता है। इस दृष्टि से आज की मनःस्थिति और परिस्थिति पर से चमकदार पर्दा उठाते ही जो दिखता है, उसे एक शब्द में विघातक ही कहा जा सकता है। प्रश्न एक ही है कि आधारभूत कारण को समझने-समझाने, प्रवाह को मोड़ने-मरोड़ने, गुत्थी को सुलझाने के लिए कटिबद्ध होने की तैयारी की जाए या जो हो रहा है, होने जा रहा है, उसे मूकदर्शक की तरह देखते रहा जाए?


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