युग परिवर्तन प्रक्रिया का उत्तरार्ध, जो अभी ही क्रियांवित होना है

October 1982

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पिछले पृष्ठों पर प्रज्ञा अभियान की उस रचनात्मक प्रक्रिया का उल्लेख हुआ है, जिसमें भावनाशीलों को छोटे-छोटे सरल-सुलभ सेवाकार्य अपनाकर अपने समर्थन को जीवंत स्तर का सिद्ध करने का अवसर मिले। निःसंदेह वे आरंभिक हैं। सीधे, सरल और स्वल्प श्रमसाध्य हैं; पर उन्हें प्राथमिकता इसलिए दी गई है कि जिनमें आदर्शवादी प्राण-प्रतिभा होगी वे न केवल समर्थन करेंगे; वरन सहयोगी बनने के लिए आरंभिक कदम बढ़ाएँ। यह युगमनीषा की प्राथमिकता परीक्षा है।

अब तक की कार्यपद्धति यों सृजनात्मक वातावरण बनाने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है और उसमें युग-परिवर्तन के बीजांकुर पूरी तरह विद्यमान हैं। गांधी का चरखा और नमक अभियान कितना नगण्य लगता था; पर उस शुभारंभ की परिणति कहाँ से कहाँ पहुँची, यह सभी ने प्रत्यक्ष देखा है। प्रज्ञा अभियान के प्रथम चरण में पूर्वार्ध में उन्हीं कार्यक्रमों का समावेश है जो सर्वसाधारण के लिए सरल-सुगम हैं। चयन में इतनी सी जाँच-पड़ताल भर से काम चल जाता है। प्रखरता उत्पन्न करने के लिए तो पीछे तेज भट्टी में गलाई-ढलाई होती हैं। पूर्वार्ध की सफलता उत्साहवर्द्धक हैं। उस प्रक्रिया से परिवर्तन का माहौल बना है, प्रवाह चला है और विश्वास बँधा है कि इस दिशा में चलते हुए कुछ ऐसा बन पड़ेगा, जिसे महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी एवं ऐतिहासिक कहा जा सके।

बड़े कामों के लिए, बड़े कदम उठाने पड़ते हैं। बड़े साहस जुटाने होते हैं, बड़े साधन जुटाए जाते हैं। उपलब्ध युगमनीषा को उत्तरार्ध में इसी की तैयारी करनी चाहिए। यों इस संसार में एक से एक बड़े विभूतिवान भरे पड़े हैं। वे चाहें तो नवसृजन का विशालकाय तंत्र देखते-देखते खड़ा कर सकते हैं, पर उन तक पहुँच कैसे हो? वे इस मिशन से परिचित कैसे हों? फिर उनकी अपनी योजनाओं की तुलना में युगांतरीय चेतना की गरिमा को वरिष्ठ कैसे सिद्ध किया जाए? अन्यत्र वैसा कुछ दृष्टिगोचर न होने पर भी एकाकी अग्रसर होने के लिए कैसे सहमत किया जाए? यह अति कठिन प्रश्न है, जिनके कारण नवयुग के शिलान्यास की दृष्टि से नितांत आवश्यक, अनिवार्य कार्यों को अविलंब अग्रसर करने पर गाड़ी रुक जाती है। लंबी अवधि के भाव भरे प्रयत्नों से जिस देव परिवार का सृजन किया गया है, उसी के परिजनों को लेकर अगले दिनों के भारी भरकम कार्यों को भी हाथ में लिया जाएगा। जब विभूतियाँ विश्वास करेंगी और बड़े प्रयत्नों के लिए बड़ा साहस करेंगी, अभी उस समय की दूरी कुछ अधिक लंबी दिखती है; इसलिए जो हाथ में है, जो साथ है, उसी के सहारे अगले बड़े कदमों का श्रीगणेश भी उसी प्रकार किया जाना है। जिस प्रकार कि छोटे प्रयत्न का ताना-बाना छोटे सहयोग से बुनते हुए, छोटों का बड़ा काम सर्वसाधारण के सामने प्रस्तुत कर सकने में सफल मनोरथ हुआ गया है।

कहा जा चुका है कि विचारणा को प्रभावित करने में लेखनी, वाणी और दृश्य शक्ति की प्रमुखता मानी गई है। इनके लिए हमें लेखन, प्रकाशन और विक्रय का ऐसा समर्थ तंत्र खड़ा करना चाहिए जो व्यक्ति और समाज से संबंधित सभी समस्याओं के निषेधात्मक और विधेयात्मक पक्षों से जन-जन को अवगत कराए तथा नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रांति की सर्वतोमुखी पृष्ठभूमि बनाए। इसका विस्तार सभी प्रमुख भाषाओं के क्षेत्र तक इस प्रकार होना चाहिए जैसा कि ईसाई मिशन और साम्यवाद के अंतर्राष्ट्रीय विस्तार ने किया है।

वाणी को मुखर करने के लिए ऐसे वक्ता, गायक बड़ी संख्या में प्रशिक्षित किए जाने हैं। जो जनसंपर्क साधें, घर-घर अलख जगाएँ, विचार गोष्ठियों में उस तथ्यों से जन-जन को अवगत कराएँ जो भले-चंगे, सुखी-संपन्न मनुष्य को सामूहिक आत्महत्या की दिशा में घसीटे लिखे जा रहे हैं। साथ ही यह भी बताना होगा कि किन उपायों के अवलंबन से विनाश की विभीषिकाओं से बचा जा सकता है। किन प्रयोजनों में मानवी प्रयत्न नियोजित करने पर उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित सृजन हो सकता है। ऐसे आदर्शवादी प्रचारक अनुभवी भी हों, सुयोग्य भी, सेवाभावी भी। इसके लिए वानप्रस्थ परंपरा पुनर्जागृत करनी होगी। अधेड़ों में लोभ, मोह से विरत होकर लोक-मंगल में संलग्न होने की भाव-चेतना जगानी होगी। थोड़ा-थोड़ा समय देने वाले समयदानियों की दूसरी पंक्ति खड़ी होगी। एक वर्ष का संन्यास लेने और उस अवधि में मात्र सृजन, प्रयोजन में संलग्न रहने की एक नई परंपरा चलानी होगी। ऐसे ही प्रयत्नों से युगमनीषा का प्रचारक परिव्राजक वर्ग उभरेगा। उसे कार्यक्षेत्रों में उतरने और स्थानीय परिस्थितियों को समझते हुए कार्यपद्धति अपनाने के लिए नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय खड़े करने होंगे। छोटे संधाराम और बौद्ध बिहारों की अनुकृति भी हर व्यवसायी-क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए विनिर्मित करनी होगी।

कहना न होगा कि यह वाणीप्रधान प्रचार तंत्र भी लेखनी वाले प्रकाशन तंत्र की तरह खर्चीला है। कार्यकर्त्ताओं को भोजन, वस्त्र, मकान तो चाहिए ही। बाहर जाने पर मार्ग व्यय भी लगता है। प्रशिक्षण में पुस्तकों तथा संगीत उपकरणों की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार लेखन का न सही प्रकाशन के लिए कागज छपाई की पूँजी तो चाहिए ही। उपरोक्त दोनों ही कार्य साधनों की अपेक्षा रखते हैं। उनके लिए पैसा न मिले तो समझना चाहिए, बिना पानी वाले तालाब की स्थिति रही। खिले कमलों वाले सुरम्य, शीतल सरोवर का दृश्य देखना है, तैराकी से लेकर सिंचाई तक का लाभ उठाना है तो कागजी चित्र सरोवर से काम नहीं चलेगा। उसमें जलराशि भरते रहने वाले निर्झरों को भी उस सुखद संभावना में भागीदार बनने के लिए सहमत करना होगा।

प्रचार-प्रकाशन के समतुल्य ही कला का क्षेत्र है। उस पर इन दिनों फिल्म उद्योग का आधिपत्य है। पत्र-पत्रिकाओं के पाठकों से भी कहीं अधिक संख्या सिनेमा दर्शकों की रहती है। अभिनय, संगीतयुक्त कथानक अपने पीछे जो प्रभाव सँजोए रहते हैं, उसका प्रभाव सीधे चिंतन और चरित्र पर पड़ता है। प्रचलित प्रवाह को सिनेमा संस्कृति के देन कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। उसने अपना प्रभाव प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जन-जन के मन पर छोड़ा है, उसकी तुलना और किसी माध्यम से नहीं की जा सकती। इस महाशक्ति को पतन-पराभव से रोकने में यों उनके निर्माता और सरकारी सेंसर भी सक्षम हो सकता है, फिर भी यह आवश्यकता तो बनी ही रहेगी कि दिशा परिवर्तन की, अभिनव निर्माण की जिम्मेदारी कोई दूसरा उठाए। अंधों को रास्ता दिखाने में कोई आँख वाला भी चाहिए।

आवश्यकता यह अनुभव की जानी चाहिए कि पुरातन सतयुगी वातावरण को आज की स्थिति में अवतरित कर सकने वाले कथानकों को कम-से-कम एक फिल्म-शृंखला तो चल ही पड़े। मार्गदर्शन और पथ प्रशस्त होने पर दूसरे लोग भी उसका अनुकरण करेंगे। यह बड़ी पूँजी का उद्योग है। एक फिल्म बनाने से नहीं एक शृंखला चलाने से काम बनेगा। इस शृंखला शुभारंभ के अपने निजी साधन बनाने होंगे। इसमें न्यूनतम पचास लाख की पूँजी चाहिए। करोड़ों की लागत वाले मिल, कारखाने खड़े कर देने वालों के लिए यह लाभदायक न सही, हानिरहित उद्योग में हाथ डालने का उत्साह उत्पन्न किया जाना चाहिए।

मध्यववर्त्ती प्रज्ञा परिजन भी रामलीला, रासलीला स्तर की अभिनय मंडलियाँ खड़ी कर सकते हैं। एक्शन स्वांग, एकाकी नाटक, संगीतमंडली आदि छोटे तंत्र बड़ी संख्या में खड़े किए जा सकें तो भी उनका प्रभाव उन देहाती क्षेत्रों में उत्साहवर्द्धक होता है, जहाँ भी सिनेमा का आधिपत्य नहीं हुआ है। सोलह मिलीमीटर के चलते-फिरते सिनेमा भी जनरेटर की सहायता से उन क्षेत्रों में पहुँच सकते हैं और इस स्तर का एक मिनी सिनेमा उद्योग भी बड़ों के समानांतर से खड़ा हो सकता है। इसमें पूँजी भी कम लगेगी। इसे क्षेत्र में कठपुतली के तमाशे, जादू के खेल जैसे कौशल भी उद्देश्यपूर्ण आधार अपनाकर लोकरंजन के साथ लोक-मंगल का आधार खड़ा कर सकते हैं। कला के क्षेत्र में चित्र प्रकाशन का अपना विशिष्ट स्थान है। चित्र प्रदर्शनियों के इन दिनों कितने ही रूप प्रचलित हैं। उनमें से कुछ को नवसृजन का वातावरण बनाने में प्रयुक्त किया जा सकता है। छोटी चिह्नपूजा तो आदर्श वाक्य, चित्र वाले प्रकाशन और चित्र प्रदर्शनी आयोजनों के रूप में चल भी रहा है। उपरोक्त सभी प्रयत्नों को बड़े काम में, बड़ी पूँजी में, संगठित रूप में किए जाने की आवश्यकता है। कला को दुष्प्रयोजनों में प्रयुक्त करने के फलस्वरूप लोक-प्रवाह में विषाक्तता का समावेश हुआ है। यदि उसे सदउपदेशों के लिए प्रयुक्त करने वाली कोई बड़ी योजना कार्यांवित हो सके तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से वातावरण में अमृत भर देने के रूप में दृश्यमान होगा।

कृत्यों में प्रगतिशील शिक्षा तंत्र जनसहयोग से खड़ा किया जाना चाहिए। जीवन-साधना के, लोक-व्यवहार के असंख्य पथ ऐसे हैं, जिनका अभाव शिक्षितों और अशिक्षितों में समान रूप से पाया जाता है। आदतें, विचारणाएँ, प्रथाएँ, गतिविधियाँ अवांछनीय स्तर की होने पर किस प्रकार सर्वनाश रचती और विवेकशील दूरदर्शितायुक्त होने पर किस प्रकार दैवी अनुकंपा की तरह प्रगति और समृद्धि बरसाती हैं, यह विषय मात्र स्वाध्याय का ही होना चाहिए। ऐसे पूरे या अधूरे समय के फीस, बिना फीस के विद्या या जगह-जगह पर चलने चाहिए, जिनमें आजीविका उपार्जन, स्वास्थ्य-संरक्षण एवं व्यवहार-कौशल की शिक्षा का समावेश है। प्रगतिशील देशों में सरकारी शिक्षा की परिधि सीमित और निजी प्रयासों से चलने वाली शिक्षण संस्थाएँ अपेक्षाकृत कहीं अधिक हैं। इससे वहाँ के नागरिकों को अपनी मर्जी के बिना अपनी अनुकूलता के समय में पढ़ने की सुविधा उपलब्ध होती रहती है। हमें सरकारी शिक्षा का स्वागत और सहयोग करते हुए भी उन प्रसंगों के पाठ्यक्रम बनाने और विद्यालय चलाने चाहिए जो योग्यता-संवर्द्धन के साथ-साथ प्रतिभा निखरने, व्यक्तित्व उभारने और प्रगतिशील सुखी, समुन्नत जीवनक्रम बनाने में कारगर सहायता दे सके। ऐसी लोकशिक्षा, सरकारी शिक्षा के समानांतर चल सकती है और समग्र शिक्षण की पूरक बन सकती है।

इन पंक्तियों में उन प्रयत्नों का उल्लेख नहीं किया गया है, जिनसे पिछड़े दुखी वर्ग को राहत पहुँचाने, बेकारी गरीबी को दूर करने, अनीति से जूझने की दृष्टि से बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इन पृष्ठों पर उनका उल्लेख न करने का तात्पर्य यह नहीं है कि वे महत्त्वहीन या उपेक्षणीय हैं। उन्हें दूसरे अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री शासन अधिकारी अपने ढंग से अपने साधनों से संपन्न करें। यहाँ मात्र प्रज्ञा अभियान के उस पक्ष पर प्रकाश डाला गया है, जो लोक-मानस की दिशाधारा बदलने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। युगमनीषी अपने जिम्मे इस सीमित काम को संभाले और अगणित कार्यों को विभिन्न क्षेत्रों की अगणित प्रतिभाएँ अपने-अपने साधनों और अनुभवों के अनुसार करती रह सकती हैं। शासन सुधार की बात को यहाँ जान-बूझकर छोड़ दिया गया है कि जब उस क्षेत्र की सूझ-बूझ वाले ही धकापेल मचाएँ हुए हैं तो अछूते; किंतु अति महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व को युगमनीषा क्यों न अपने कंधों पर उठाए।

उपरोक्त चारों तंत्रों को छुट-पुट रूप से अलग-अलग संगठनों के अंतर्गत भी किया जा सकता है, पर प्रारंभिक स्थिति में पूर्व अनुभव और दूरदृष्टि के अभाव में भटकाव की आशंका है। सभी जानते हैं कि जंक्शन पर खड़ी गाड़ियों में कोई निर्धारित पटरी के स्थान पर दूसरी पर चढ़ चले तो कुछ ही समय में यह भटकाव हजारों मील का अंतर पड़ जाता है और शक्ति एवं समय का भारी अपव्यय पल्ले बँधता है। अच्छा हो उपरोक्त चारों प्रयासों का प्रथम चरण शान्तिकुञ्ज के तत्त्वाधान में हो। इस सुयोग से युगमनीषा को दिव्य प्रेरणाओं से सुसंपन्न होने का अवसर मिलेगा। उनके उत्तरार्ध प्रयास, पूर्वार्ध प्रयासों की तुलना में असंख्य गुने सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकने में समर्थ होंगे। ऐसे सत्परिणाम, जिनके सहारे मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का सतयुग इन्हीं आँखों के आगे प्रभातकालीन अरुणोदय के रूप में सुखद संभावनाओं के साथ उदीयमान दृष्टिगोचर हो सके।


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