मुहिम युगमनीषा को संभालनी होगी

October 1982

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कभी व्यक्ति की निर्वाह-परिधि छोटी थी, समाज की समस्याएँ भी नगण्य थी। चिंतन और दर्शन का विस्तार एक सीमित क्षेत्र में ही हुआ था। संसार के सुदूर क्षेत्र संचार एवं परिवहन माध्यमों के अनुरूप इतने निकट नहीं आए थे। भौगोलिक कठिनाइयों ने हर क्षेत्र को अपनी परिधि में सीमाबद्ध कर रखा था। तब धर्म का स्वरूप भी छोटा ही था। शास्त्रों का वाचन-पाठन, साधना, उपचार, जप-तप, पूजा-अर्चा, कर्मकांड, तीर्थ, व्रत आदि का जितना विस्तार था, उतने में ही काम चल जाता था। तत्त्व दर्शन प्रायः ईश्वर, जीव, प्रकृति के निरूपण तक ही अपनी दौड़ लगाता था। उतने से ही भली प्रकार काम चल जाता था। निर्धारित आचार संहिता और परंपरा जिनसे निभती थी, वे अपने को धर्मात्मा मान लेते थे; पर अब वैसा नहीं रहा। अंतरिक्ष विज्ञानियों के अनुसार इस ब्रह्मांड का क्रमशः फैलाव-विस्तार हो रहा है। ज्ञान-विज्ञान के संबंध में भी यही बात है। किसी समय आग जलाने, अन्न उगाने, पशु पालने, वस्त्र बुनने जैसे आविष्कार भी मनुष्य का सिर उतना ही गर्वोन्नत करते थे, जितना कि आज अणुशक्ति लेसर, होलोग्राफी एवं राॅकेट कंप्यूटर निर्माता, अंतरिक्षीय उड़ान, पनडुब्बी, रेडियो, टेलीविजनों के निर्माता करते हैं। इन दृष्टि से विश्व के विकास-विस्तार की उपलब्धि असंदिग्ध है। असमंजस तो मात्र एक ही स्थान पर अड़ गया है कि बुद्धिमत्ता का पग-पग पर प्रमाण देने वाले मनुष्य का हृदय क्यों सिकुड़ता जा रहा है? उसकी भावना, आकांक्षा, आस्था, विचारणा क्यों पतनोन्मुख हो रही है, आत्मीयता का सुविस्तृत क्षेत्र क्यों संकीर्ण स्वार्थपरता में बँधता-जकड़ता जा रहा है? गतिविधियों में निकृष्टता का समावेश कैसे सहन हो सका और क्यों स्वभाव का अंग बनता चला गया?

धर्म की परिधि में नागरिक कर्त्तव्य, समाज-संगठन, विचार विज्ञान, भाव-संवेदना नीतिशास्त्र, शिक्षा, कला, दर्शन, लोकाचार जैसे उन सभी प्रसंगों को एक साथ समेटकर चलना होगा, जो चेतना को प्रभावित करते हैं; चिंतन और कर्त्तृत्व की दिशाधारा निर्धारित करते और पृष्ठभूमि बनाते हैं। जब विज्ञान ने मत्स्यावतार की तरह अपनी परिधि को इतना विशाल— व्यापक बना लिया है तो धर्म को सभी सांप्रदायिक प्रथा-पूजा की सीमाओं में जकड़कर रखे रहना संभव नहीं है। युग धर्म, विश्व धर्म, चेतना धर्म आदि शब्दों में ही धर्म की वर्तमान दायरे की व्याख्या-विवेचना करना और उसके भावी स्वरूप-निर्धारण के संदर्भ में विचार कर सकना संभव हो सकता है। इसमें संप्रदायों को अपने-अपने ढंग से सोचना और अपनी रुचि को कार्यांवित करने का नागरिक अधिकार है। उसे मनुष्य के मौलिक अधिकारी के कारण अपने ढंग से अपनी गतिविधियाँ चलाते रहने की छूट है, पर उस क्षेत्र के इस दावे को मान्यता नहीं मिल सकती कि वे जो सोचते हैं वही सत्य, तथ्य या उचित है। ऐसा करने से ही फिर अन्य सभी प्रतिपादन मिथ्या हो जाएँगे और किसी प्रसंग पर नए सिरे से चर्चा, समीक्षा करने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी। ऐसा गतिरोध उत्पन्न करने का किसी धर्म-संप्रदाय को इस व्यापक दृष्टिकोण वाले युग में दुस्साहस नहीं करना चाहिए। वस्तुतः धर्म को ऐसी ही कट्टरता ने बदनाम किया है और इसी कारण अब उसे संप्रदाय कहकर काम चलाना पड़ रहा है। अन्यथा पूर्वकाल की तरह अभी भी अध्यात्म दर्शन और आचार धर्म का सम्मिलित स्वरूप ‘मानव धर्म’, ‘विश्व धर्म’ के नाम से प्रतिष्ठित होता।

प्रस्तुत समस्याएँ दिखतीं तो पदार्थपरक हैं, पर वस्तुतः वे हैं चिंतन से संबंधित। यदि ऐसा न होता तो वस्तुओं के वर्त्तमान बाहुल्य एवं स्तर में देखते हुए उसे अभूतपूर्व माना जाता और इतने से ही सर्वत्र सुख-शांति का, प्रगति एवं प्रसन्नता का वातावरण बन गया होता। विकृतियाँ चिंतन-क्षेत्र में घुसी हैं। दृष्टिकोण गड़बड़ाया है। आस्था-क्षेत्र में दुर्भिक्ष पड़ा है। रुझान में निकृष्टता को प्रश्रय मिला है। फलतः संकीर्ण स्वार्थपरता, वासना-तृष्णा की तूती बोलने लगी है। उपलब्धियों का दुरुपयोग हुआ है और अमृत को दुर्बुद्धि ने विष बनाकर रख दिया है। वस्तुओं का बाहुल्य और भी बढ़ सकता है। व्यवस्था और भी कड़ी हो सकती है। शासन के लिए इतना ही संभव है, पर बात तो इससे कहीं अधिक आगे की— कहीं अधिक गहरी है। सुधार-परिष्कार तो चिंतन-चरित्र का होना है। इसके लिए उत्कृष्टता का पक्षधर जीवन दर्शन पुनर्जीवित करना होगा। उसे जन-जन के व्यवहार में उतारने— प्रचलन में सुनिश्चित स्थान बनाने वाले प्रचंड प्रयत्न करने होंगे। यह कार्य विशुद्धरूप में ‘धर्म’ का है। अध्यात्म दर्शन की आदर्श निर्वाह की दिशाधारा फिर से इस प्रकार ढालनी होगी, जिसमें मानवी गरिमा अक्षुण्ण रह सकें और विश्वशांति का सुनिश्चित वातावरण बना रहे। यही अपने युग का सबसे बड़ा काम है। इसे ‘युगमनीषा’ के अतिरिक्त और कोई संपन्न नहीं कर सकता। यह न शासन के हाथ की बात है और न समृद्धि के माध्यम से इसे जुटाया जा सकता है। उन दोनों का समर्थन, प्रोत्साहन, सहयोग एवं पृष्ठ-पोषण भर मिलता चले तो बहुत है। उत्तरदायित्व तो मनीषा का है। अपना भार उसे ही वहन करना होगा।

यहाँ युगमनीषा से तात्पर्य किसी व्यक्तिविशेष का संगठन-समुदाय विशेष से नहीं; वरन उस समुदाय से है जो मात्र निर्वाह को ही सब कुछ नहीं मानता। अपने तक ही चिंतन और श्रम को नियोजित नहीं रखे रहता; वरन अपने को समाज का एक अविच्छिन्न घटक मानकर उसके उत्थान-पतन की भी चिंता करता है। दुःख बँटाने, सुख बाँटने में संतोष अनुभव करता है। युगमनीषा, जिसे नवसृजन का भार उठाना है, ऐसे ही भावनाशील आदर्शवादी लोगों के समुदाय को कहा जाएगा। एक शब्द में इन्हें ‘जागृत आत्मा’ नाम दिया जाता है। दूसरे तो ‘पीत्वामोह मयही मदिरा उन्मुक्त भूत्वा जगत्’ की श्रेणी में आते हैं। जिन्हें अपनी ही आपा-धापी से फुरसत नहीं, वे तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाते हुए भी, इस समुदाय में सम्मिलित नहीं हो सकते। बुद्धिमानों की कमी नहीं, वे जिधर भी रस लेते हैं। बातों के बतंगड़ खड़े कर देते हैं। देश धर्म में उनका मस्तिष्क रस लेने लगे तो समझना चाहिए कि उस संदर्भ में धुँआधार बोलते-लिखते देखे जा सकते हैं, पर होता यह सब विनोद-व्यसन की तरह ही है, जिसमें करना कुछ न पड़े, वाक्-विलास से ही उबाल की इतिश्री हो जाए, समझना चाहिए कि खोखलेपन के अतिरिक्त यहाँ कुछ है नहीं। मस्तिष्कीय श्रम करने वाले वर्ग में यह प्रतिभा भी सहज ही हथेली पर सरसों की तरह उग आती है कि वे दिल्लगीबाजी की तरह देश धर्म के संबंध में भी लच्छेदार बकवास करने में अपनी प्रवीणता प्रदर्शित कर सकें। बहुपठित और बहुश्रुत, बातूनी आदमी तो और भी जल्दी इस प्रकार का धुँआधार मचाते रह सकते हैं। यह इसलिए लिखा जा रहा है कि बुद्धि व्यवसायी वर्ग और युगमनीषियों का पृथक्करण संभव हो सके। जिन्हें समाज और संस्कृति की समस्याओं में गहरी दिलचस्पी हो और उसके लिए जो उपयुक्त हो, वह निजी जीवन में उतारने और दूसरों पर अपनाने के लिए दबाव डालने का उभार अंतराल में उमगें तो यह समझा जा सकता है कि युगमनीषा का उदय हुआ। ऐसी ही जागृत आत्माओं को प्राचीनकाल में धर्मात्मा कहा जाता था। आज तो कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा उस पद का दावेदार दिखता है।

शासन और धर्म की तुलना की गई है। उसमें शासन को कनिष्ठ और धर्म को वरिष्ठ माना जाता है, क्योंकि धर्म का कार्यक्षेत्र चेतना को सुसंस्कृत बनाना है। जबकि शासन की पहुँच-पकड़ संपन्नता के क्षेत्र तक ही सीमित रह जाती है। चेतना वरिष्ठ है, संपदा कनिष्ठ। व्यक्तित्व का मूल्यांकन श्रद्धापूर्वक होता है, जबकि पुरुषार्थ को सराहा भर जाता है। सर्वतोमुखी प्रगति में शासन से भी बढ़ी-चढ़ी भूमिका धर्म को निभानी पड़ती है; अस्तु स्वभावतः शासकों की तुलना में मनीषियों की गरिमा वरिष्ठ मानी गई है। वशिष्ठ-दशरथ, याज्ञवल्क्य-जनक, विश्वामित्र-हरिश्चंद्र, चाणक्य-चंद्रगुप्त, शंकराचार्य-मांधाता, समर्थ-शिवा, गाँधी-नेहरू जैसे युग्मों में यह स्पष्ट है कि धर्म ने नेतृत्त्व किया है और शासन ने निर्वाह। ये ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणित संस्मरण हैं। दर्शन के क्षेत्र में अध्यात्म और धर्म के परिवार में यह वरिष्ठता और भी स्पष्ट है। जब कभी चेतना को, चिंतन-चरित्र को, प्रखर-परिष्कृत करने की आवश्यकता पड़ी है, तब मनीषा को ही आगे आना पड़ा है। अपने समय भी अवरोधों में थी, इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। शासन अपना काम करे; पर यह उचित नहीं कि मनीषा का उत्तरदायित्व भी उसी पर लद पड़े। इस दिशा में शासन रेडियो, टेलीविजन प्रकाश आदि के द्वारा जो कर लेता है, उतने को भी न कुछ-से-कुछ कह कर संतोष किया जा सकता है। साहित्य और कला की विकृतियों पर अंकुश लगाने का कुछ कारगर कदम भर उठने लगे तो फिल्म एवं प्रकाशन-उद्योग की विकृतियाँ फैलने से रोकने का आग्रह भी प्रस्तुत किया जा सकता है। युग दर्शन को शासन का सहयोग न सही, समर्थन भर मिलता रहे तो काम चलेगा। अवरोध उत्पन्न न करना भी प्रकारांतर से समर्थन ही माना जाएगा।

लोकशक्ति के उदय की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। उसके गुणगान किए जाते हैं और समर्थ बनाने पर जोर दिया जाता रहता है। देखना होगा कि यह प्रत्यक्ष शासनशक्ति के समतुल्य परोक्ष लोकशक्ति आखिर है क्या? उसे जागृत आत्माओं का समुच्चय कह सकते हैं, भले ही वे मुट्ठी भर ही क्यों न हों। लोकशक्ति का अर्थ जनसाधारण नहीं है। सर्वविदित है कि बहुमत में तो अवांछनीयता ही रहती है। अधिकांश लोगों को भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण में संलग्न पाया जाता है। यदि समूचे जनसमुदाय को समेटने की बात हो तो फिर लोगों का जैसा स्तर है वैसा ही संगठन भी बनेगा। उसके माध्यम से बन पड़ने वाले कार्यों से भी उत्कृष्टता की पक्षधर विधि-व्यवस्था बन पड़ने की आशा नहीं की जा सकती। सृजनात्मक उच्चस्तरीय कार्य तो सदा से वरिष्ठ लोग ही हाथ में लेते और संपन्न बनाते रहे हैं। उसी की पुनरावृत्ति इसी विषम बेला में भी होनी है। जागृत आत्माओं को ही नवसृजन की मुहिम संभालनी है, उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना है। आवश्यक नहीं कि वे मतदान से चुने गए ही हों। गणमान्य प्रतिभाएँ जिस मार्ग पर चलती हैं, उस पर अनुगमन करने वालों की भी कमी नहीं रहती। इंजन चलता है, डिब्बे लुढ़कते हैं। अंधड़ आता है, तिनके और धूलिकण बिना बुलाए ही साथ उड़ते हैं। प्रतिभावान दुष्ट दुराचारियों ने समय-समय पर अपने ढंग की परंपराएँ चलाने में सफलता पाई है तो कोई कारण नहीं कि युगमनीषियों का समुच्चय विचारशील जनसमुदाय को साथ लेकर न चल सके। वस्तुतः भावनाशील आदर्शवादी और परमार्थपरायण व्यक्ति ही वास्तविक लोकशक्ति होते हैं। सृजनात्मक प्रयोजनों में उसी की भूमिका प्रमुख होती हैं। संख्याबल की तुलना में सदा मनोबल का, आत्मबल का पलड़ा भारी रहा है। अल्पमत में रहने पर भी सूर्य-चंद्र असंख्य तारागणों से भरे-पूरे आकाश में अपनी गरिमा अक्षुण्ण बनाए रहते हैं। जागृत आत्माओं में पनपने वाली युगमनीषा के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। प्रभाव उनका नहीं पड़ता जो बकवास तो बहुत करते हैं, पर स्वयं उस ढाँचे में ढलते नहीं। जिनने चिंतन और चरित्र का समन्वय अपने जीवनक्रम में किया है, उनकी सेवा-साधना सदा फलती-फूलती रही है। चरित्रवान उपदेष्टा ही जनमानस पर शासन करते, उसे सुधारते और मोड़ते-मरोड़ते देखे गए हैं। सेवा की जिनने सस्ती वाहवाही लूटने और दूसरों की आँखों में चकाचौंध करने को ही अपनाया है, निराशा उन्हीं के हाथ लगती है। जो दूसरों से कहे जाने वाले प्रसंगों को निजी जीवनचर्या की प्रयोगशाला में परखकर खरी सिद्ध करते हैं, उनके निर्धारण कभी असफल नहीं हुए। पवित्रता, प्रखरता, शालीनता और उदारता के कदम सदा से लक्ष्य तक पहुँचकर ही रुके हैं। युगमनीषा यदि नवसृजन का, समय के परिवर्तन का संकल्प चरितार्थ करने में कटिबद्ध होती है तो उज्ज्वल भविष्य की संरचना में कोई संदेह रह नहीं जाएगा।


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