विभीषिका से जूझने कौन आगे आए?

October 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विश्व-विचित्रताओं में एक अद्भुत विडंबना यह भी है कि पतन सरल है और उत्कर्ष कठिन। कुकृत्यों के सूत्रसंचालक और सहभागी अनेकानेक बनते, गिरोह बनाते, षड्यंत्र रचते और बड़े-बड़े दाँव चलाने में सफल रहते हैं। जबकि सत्प्रवृत्तियों के पक्षधर अपनी एकाकी टंट-घंट करते रहते हैं। संत-सज्जनों का समुदाय इस संसार में न हो, ऐसी बात नहीं, पर न जाने क्यों उनमें मिल-जुलकर बड़े प्रयास करने की उत्कंठा ही नहीं जगती है। ऐसी दशा में अकेला चना क्या भाँड़ फोड़े, डेढ़ चावल की खिचड़ी कैसे पके, ढाई इट की मस्जिद कैसे बने? प्रवाह तो सामुदायिक प्रयत्नों से ही बनते हैं। सज्जन भी यदि दुर्जनों की तरह एकत्रीकरण का महत्त्व समझे और मिल-जुलकर सृजन, उत्थान की योजना बनाएँ, उपलब्ध साधनों को जुटाएँ तो कोई कारण नहीं कि पतन का माहौल बनाने वालों की तुलना में उत्थान का सरंजाम जुटाना संभव न हो सके।

सृष्टा की इस अनुपम कलाकृति विश्व-वसुंधरा पर जब-जब भी महाविनाश की घटाएँ छाई हैं तब असंतुलन को संतुलन में बदलने की प्रतिक्रिया अदृश्य अंतरिक्ष से अवतरित होती रही है। परिवर्तन के ऐसे क्रांतिकारी तूफान आए हैं, जिनने सज्जनता को सृजनात्मक पराक्रम के लिए उत्साहित किया है। वे कटिबद्ध हुए हैं तो “सत्य में हजार हाथी की बराबर बल होता है," यह उक्ति अक्षरशः सत्य सिद्ध होती रही है। पाप दुर्बल है, पर वह पराक्रम के कंधे पर बैठकर उचकता-मचलता रहता है। पुण्य समर्थ है, पर वह किसी कोने में निरहंकारिता, अनासक्ति आदि की चादर ओढ़कर मात्र कल्पना-लोक की बिना पंखों वाली उड़ानें उड़ता रहता है। लोकहित के लिए पुरुषार्थ-क्षेत्र में उतरने की माँग होती है तो बगलें झाँकने और किसी बहाने जान बचाने का उपक्रम करता देखा जाता है। यों पुण्य की यह मूल प्रवृत्ति नहीं है, पर जब वह सज्जनता का लबादा ओढ़कर भीरुता से आक्रांत लोगों के पल्ले बँधता है तो उसकी भी दुर्गति होती है। आज पुण्य और पलायन लगभग एक ही वस्तु के दो नाम माने जाने लगे हैं, पर वस्तुतः वैसा है नहीं। पुण्य में तथ्यतः प्रचंड पराक्रम का भी समावेश है, जो समय आने पर अपने वास्तविक रूप में प्रकट भी होता है।

विघातक विपन्नता की परिस्थितियों को उलटने की विश्व-व्यवस्था का नाम ‘अवतार’ है। व्यापक असंतुलन को निरस्त करने में उस परंपरा का प्रकटीकरण बार-बार समय-समय पर होता रहा है। ‘यदा यदा हि धर्मस्य’ की परिस्थितियों में उसकी प्रतिमा 'तदात्मानं सृजाम्यहम्' की पूरी होती रही है। उस तूफान ने 'परित्राणाम् साधूनां' वाली परिवर्तित परिस्थिति उत्पन्न करके ही चैन लिया है। यदि यह प्रतिक्रिया विश्व-व्यवस्था का अंग न रही तो अब तक यह दुनिया न जाने कब की दुष्कृतों और दुष्प्रवृत्तियों की असुरता निगल गई होती।

अतीत का इतिहास ऐसी महाक्रांति से भरा पड़ा है, जिनमें साधनों का, समर्थों का अभाव रहते हुए भी ऐसे उत्साह उभरे हैं, जिनने विपन्नताओं को देखते-देखते उलटकर रख दिया। अनौचित्य की भी प्रतिक्रिया होती है। शरीर में उभरने वाले भयानक रोग, शरीर में संचित विषाक्तता को उखाड़ फेंकने की प्रतिक्रिया, नियति-व्यवस्था के अनुरूप उभरने वाले विद्रोह ही हैं। समाज, शासन, अर्थ-व्यवस्था, मान्यता, परंपरा आदि के क्षेत्रों में भी ऐसी प्रतिक्रियाएँ समय-समय पर उभरी हैं, जिनमें प्रचलित अवांछनीयताओं को उखाड़ फेंकने में आश्चर्यजनक कीर्तिमान स्थापित किए गए हैं। अब राजसिंहासन कहाँ बचे हैं? दास-दासियों का क्रय-विक्रय कहाँ होता है? सामंतों का पड़ोसियों पर चढ़ दौड़ना और जो हाथ लगे हाऊ-हड़प कर जाना आज की न्याय-व्यवस्था में उतना सरल नहीं रहा। अब भूमि और प्रजा किसी राजा की व्यक्तिगत संपदा नहीं समझी जाती। मृत राजाओं के साथ न तो जीवित रानियाँ, बाँदियाँ, नौकर-चाकरों, विपुल संपदा के साथ दफनाएँ जाने का प्रचलन ही अब रहा है। विधवा को मृत पति के साथ सती होने के लिए भी अब विवश नहीं किया जाता। स्वर्गनिवास का प्रमाण पत्र अब धर्मावलंबी पुरातनकाल की तरह बेचते नहीं है। यहाँ तक कि जन्म-जाति के आधार पर चलने वाली ऊँच-नीचप्रथा भी मात्र पिछड़े क्षेत्रों में ही अपनी साँसें गिन रही है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। इनके विरुद्ध विद्रोह उभरे हैं, माहौल बने हैं और छोड़ने के लिए दबाव पड़े हैं। भले ही वे मार-काट की प्रधानता न होने के कारण घटनाओं के रूप में ऐतिहासिक अभिलेखन में स्थान न पा सके हों।

अवतार इसी रूप में होते हैं। उन्हें अनौचित्य के विरुद्ध औचित्य का नियति-समर्थित विद्रोह कहा जा सकता है। वे तूफान की तरह आते हैं और अपने साथ असंख्यों तिनके, पत्ते और धूलिकण साथ उड़ाते ले चलते हैं। जो पददलित थे, वे आसमान पर छाए दिखते हैं। साथ ही गर्वोन्नत मस्तक वाले विशालकाय वृक्षों को बात ही बात में धराशाई होते देखा जाता है। युग अवतार ऐसे ही होते हैं। उनमें भी अग्रगामियों को स्वाभाविक श्रेय मिलता है, इतने पर भी वह प्रचंड प्रतिक्रिया किसी व्यक्ति विशेष पर केंद्रित नहीं मानी जा सकती। अवतार को व्यक्ति के रूप में मानना भूल है। यह एक औचित्य के पक्षधर प्रचंड प्रतिक्रिया भर होती है जो अनौचित्य की उस प्रकार कमर तोड़ देती है कि देखने-सुनने वालों को सहसा अपने आँखों और कानों पर विश्वास नहीं होता। किशोर कृष्ण का, दुर्दांत कंस को उसके चारुण, कुवलियापीड़ जैसों को धराशाई कर देना ऐसी घटना है, जिस पर सामान्य विधि-व्यवस्था को देखते हुए सहसा विश्वास नहीं होता। गोवर्धन का उँगली पर उठाना, समुद्र पर पुल बाँधना ऐसे ही कथानक है, जिनमें अवतारी क्रांति-प्रवाह द्वारा असंभव को संभव कर दिखाने के तथ्य पर विश्वास करने के लिए कहा जाता है। यह आश्चर्य तब और भी अधिक बढ़ जाता है जब वह साधनविहीन स्वल्प शक्ति-सामर्थ्य के द्वारा हलके दर्जे के थोड़े-से सहयोगियों के सहारे कर दिखाए गए। ग्वाल-बालों और रीछ-वानरों का मूल्यांकन इसी रूप में हो सकता है।

जिन्हें पौराणिक गाथाएँ अविश्वास और अरुचिकर लगती हों, वे इन्हीं प्रतिपादित तथ्यों को इतिहास के पृष्ठों पर महान क्रांतियों के रूप में पढ़ सकते हैं। उनमें भी स्वल्प साधनों से मनस्वी लोगों द्वारा आगे बढ़कर ऐसी चिनगारी जलाने का उल्लेख है जो आगे चलकर विशालकाय दावानल के रूप में परिणत हुई और यह सिद्ध करके रही कि एक सत्य में एक हजार हाथियों की बराबर बल होता है। सृष्टा अपनी इस अनुपम कलाकृति विश्व-वसुधा का सौंदर्य नष्ट कर डालने, अस्तित्व मिटा डालने की छूट किसी दैत्य-दानव को नहीं दे सकता। यहाँ दैत्य-दानव का तात्पर्य ऐसे कुप्रचलन को समझा जाना चाहिए, जिसमें भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण का बोलबाला रहता है।

यह पंक्तियाँ प्रस्तुत अवांछनीयता के निराकरण को ध्यान में रखते हुए लिखी जा रही हैं और कहा जा रहा है कि परिस्थितियों की विषमता को देखते हुए किसी को निराश होने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे अवसरों पर सहज ही क्रांति प्रति क्रांति का नियत चक्र चलता है और अनाचार के विरुद्ध न्यायपक्ष सीना तानकर मोर्चे पर आ खड़ा होता है। साधनों की कमी वाली आशंका एक कोने पर रखी रह जाती है और सृष्टा की इच्छा नियति-व्यवस्था अपना संतुलन आप बिठा लेती हैं। हाँ, इतना अवश्य होता है, वह कृत्य कुछेक अग्रगामी व्यक्तित्वों के हाथों संपन्न होता है। वे साधनहीन होते हुए भी हनुमान, अर्जुन की तरह श्रेयाधिकारी भी बनते हैं।

इतिहास चक्र का हर प्रकरण इस बात का साक्षी है कि समय-समय पर असंतुलन को संतुलन में बदलने वाली प्रक्रिया उभरी है और स्वल्प साधनों के रहते हुए भी सफल होती रही है। इस बार भी, इन दिनों भी, उसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होने जा रही हैं; हो रही है। यदि वैसा न होता तो मात्र सर्वनाशी, महाप्रलय जैसा विनाश ही शेष रह जाता है। इस संभावना की आगाही प्रामाणिक सूत्रों से समय-समय पर मिलती भी रही है। इसाई धर्म में “सेविन्थ टाइम्स” की, इस्लाम धर्म में चौदहवीं सदी’ की, भविष्य पुराण में ‘खंड प्रलय’ की विभीषिका का इन्हीं दिनों दैवी-प्रकोप के रूप में उबरने की चर्चा है। सूरदास की भविष्यवाणी प्रसिद्ध है। संसार भर के मूर्धन्य दिव्यदर्शी और खगोलवेत्ता अपने-अपने कारणों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हुए, विनाशकारी संभावनाओं की पूर्वसूचना देते रहे हैं। धरातल के ऋतुचक्र का पर्यवेक्षण करने वाले ध्रुव-क्षेत्र की बर्फ पिघलने से समुद्र में बाढ़ आने और उससे थल-क्षेत्र का बड़ा भाग पानी में डूब जाने की आशंका व्यक्त करते हैं। दूसरी ओर पृथ्वी की धुरी में अंतर पड़ने से हिमयुग की संभावना इन्हीं दिनों साकार होने की बात कही जाती है। परिस्थितियों के आंकलनकर्त्ता बढ़ती हुई जनसंख्या, खनिज-संपदा की इतिश्री, भूमि की उर्वरता का समापन, बढ़ते हुए प्रदूषण, विकिरण, कोलाहल के आधार पर विषाक्तता की घुटन जैसे संकटों की भयावह परिणति समीप बताते हैं। अणुयुद्ध की नंगी तलवार किस प्रकार कच्चे धागे पर झूल रही है, इसे सभी जानते हैं। सामान्य नागरिक से लेकर शासनाध्यक्षों द्वारा अपनाई गई संकीर्ण स्वार्थपरता और आक्रामक उद्दंडता का अंत कहाँ जाकर होगा, इसका अनुमान लगाना किसी भी दूरदर्शी के लिए कठिन नहीं है। विकल्प सुनिश्चित रूप से यही है, यदि समय रहते रोक-थाम के कारगर उपाय न किए गए।

संतुलन बनाने वाले सृजनात्मक संकल्प एवं प्रयोग कब होंगे, किस रूप में होंगे, कौन करेगा? इसकी प्रतीक्षा न करके हममें से प्रत्येक जागृत आत्मा को ‘युगप्रहरी' के नाते अनिष्ट से जूझना चाहिए और प्रसुप्तों द्वारा सौंपी गई या अनायास ही कंधे पर आई जिम्मेदारी को वहन करना चाहिए। ‘जागृत आत्मा’ से तात्पर्य उन सभी भावनाशीलों से है जो अंतराल की वरिष्ठता उपलब्ध होते ही युगधर्म को समझने और उसके निर्वाह का कष्टसाध्य साहस करने से चूकते नहीं। ऐसे लोग कहाँ हैं, कौन हैं, कब क्या करेंगे? यह ढूँढ़ने की अपेक्षा यही अच्छा है कि अखण्ड ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजन अपने आपको इसी वर्ग में सम्मिलित कर लें और वर्तमान परिस्थितियों में पतन-पराभव से जूझने, उज्ज्वल भविष्य की हरीतिमा का बीजारोपण करने के उभयपक्षीय प्रयत्नों में, जितनी संभव हो उतनी भूमिका निभाने के लिए कमर कस लें।

इस संदर्भ में अपनी साधनहीनता, अयोग्यता, व्यस्तता, अनुभवहीनता आदि अनेक व्यवधान सामने आते हैं और लगता है कि उतना बड़ा बोझ उन लोगों के लिए वहन करना कठिन है जो अपनी निजी समस्याएँ तक सुलझा नहीं पा रहे हैं। तर्क की दृष्टि से असमंजस ठीक है, पर तथ्य पर ध्यान दें तो वह अशक्तता, असमर्थता काल्पनिक कृपणताजन्य ही प्रतीत होती है। ऐसे ही असमंजस महाभारत में अर्जुन के सामने, समुद्र लाँघते समय हनुमान के सामने भी थे। उन दिनों उसका समाधान तत्कालीन मार्गदर्शकों ने किया था। कृष्ण ने अर्जुन से कहा— "कौरव मर चुके, महाभारत जीता जा चुका, तुझे तो मात्र श्रेय भर लेना है।" यही बात प्रकारांतर से जामवंत ने हनुमान से कही थी और छलांग लगाने के लिए उन्हें साहस से भर दिया था। जिन्हें सृष्टा की संतुलन-प्रक्रिया का तूफानी प्रवाह के सामयिक अवतरण होने पर विश्वास है, वे जानते हैं कि नियति को परिवर्तन अभीष्ट है। वह होकर रहेगा। प्रश्न उस दूरदर्शिता के होने न होने का है जो समय का लाभ लेने के लिए श्रेयाधिकारी अग्रगामियों को पंक्ति में ला खड़ा करती है। यदि वह अपने भाग्य में हो तो फिर समझना चाहिए कि सभी असमंजसों का समाधान निकल आया। जागृत आत्माओं की, युगसृजेताओं की भूमिका हममें से प्रत्येक अपने-अपने ढंग से निभा सकता है। इसमें न व्यस्तता बाधक होगी, न अभावग्रस्तता, न अयोग्यता, न अक्षमता।

शबरी, केवट, गिलहरी, गिद्ध से अधिक अशक्त हम में से कोई नहीं। ग्वालबालों से अधिक अयोग्यता किसी की नहीं। टिटहरी का समुद्र सुखाने का संकल्प अगस्त के सहयोग से पूरा हो सका, भागीरथ गंगा को धरती पर उतारने में शिव का समर्थ सहयोग अर्जित कर सके तो कोई कारण नहीं कि अखण्ड ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजन प्रस्तुत युग विभीषिका से जूझने में अपने को अक्षम समझें और कुछ भी न कर सकने की कृपणता व्यक्त करे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118