नवसृजन का पूर्वार्ध जो हो चुका

October 1982

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जनमानस के परिष्कार का प्रज्ञा अभियान आरंभ करने वालों ने इस तथ्य का पूरी तरह ध्यान रखा है कि लेखनी, वाणी, दृश्य आदि के सहारे लोक-शिक्षण करने के साथ-साथ ऐसे रचनात्मक कार्यों का भी समावेश रखा जाए जो पुरोहित और यजमान को साथ-साथ धर्मानुष्ठान में जुटाए रहें। व्यक्ति का निर्माण हो या समाज का उसे परामर्श प्रस्तावों तक सीमित रखा जा सकता है। जो कहा जा रहा है उसे कार्यांवित करने की योजना भी साथ-साथ जुड़ी रहनी चाहिए। सेवा-धर्म की विशेषता यही है कि जहाँ उस माध्यम से परमार्थ होता है, वहाँ स्वार्थ भी कम नहीं सधता। अनेकों सद्गुण इस प्रक्रिया के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। स्नेह, सद्भाव, उदारता, त्याग, संयम आदि विषमताएँ सेवा का अवलंबन लेने के साथ-साथ ही बढ़ने लगती हैं। दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वालो के हाथ अनायास ही रच जाते हैं। सदाशयता का बीजारोपण करने वाले अभीष्ट फसल काटने में तभी सफल होते हैं, जब पौधों की सिंचाई का सुप्रबंध रखें। सेवा को सिंचाई कह सकते हैं। ईसाई धर्म के प्रचारकों ने अपने धर्म का विस्तार करने में प्रवचनों का क्रम और सेवा-सहायता के माध्यम से सहानुभूति अर्जित करने के प्रयास को प्रमुखता दी है। प्रज्ञा अभियान को भी लोक-मानस के परिष्कार का लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी योजना में जन-सेवा का सघन समावेश करके आगे बढ़ने के अतिरिक्त और कोई चारा है नहीं।

प्रचार-प्रयोजनों में हर शिक्षित को घर बैठे नित्य नियमित रूप से युगसाहित्य की एक पुस्तिका पहुँचाने, वापस लेने की स्वाध्याय-प्रक्रिया व्यापक रूप से चल रही है। इस योजना के अंतर्गत 360 दिन के लिए 360 पुस्तिकाएँ हर वर्ष छपने और ज्ञानरथ में सँजोकर घर-घर उन्हें पहुँचाने का प्रावधान है। इसी की सहयोगी दूसरी योजना है, हर मुहल्ले स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से मुहल्लों में मनोरंजन जन-चित्र, प्रकाश-चित्र-प्रदर्शन कार्यक्रम रखना। चित्रों की व्याख्या करते हुए युगांतरीय चेतना जन-जन के गले उतारना यह सत्संग प्रचलन हुआ। स्वाध्याय और सत्संग की यह समन्वित प्रक्रिया हर दिनों हजारों लाखों को अभिनव प्रेरणा देती और दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाकर नए ढाँचे में ढलने के लिए गरम करती हैं। तीर्थयात्रा, धर्म प्रचार की पदयात्रा पर निकलने वाली टोलियाँ साइकिलों पर सामान लादकर चलती और ढपली, तिकोन के सहारे युग गायनों को सुनाती, घर-घर अलख जगाती आगे बढ़ती हैं। प्रचार तंत्र का यह छोटा; किंतु अत्यंत प्रभावी उपक्रम देखने ही योग्य है। उसकी परिणति प्रतिक्रिया को जिनने निकट से, भीतर घुसकर देखा है, वे यही कहते पाए गए हैं कि साधनहीन तंत्र द्वारा जीवन के बलबूते इतना दुस्साहस कर बैठना और शकट को इतना आगे घसीट ले जाना अद्भुत है। इसे ग्वालबालों की सहायता से गोवर्धन उठाने जैसा, अपने समय का चमत्कार कहा जा सकता है।

इस प्रचार-प्रक्रिया को प्राणवान बनाने में सेवा-धर्म का, रचनात्मक कार्यक्रम का, समावेश अनिवार्य रूप से आवश्यक था। इसके लिए कुछ देखने में छोटे; किंतु परिणाम में महान प्रयास हाथ में लिए गए हैं। निरक्षरता अपने समाज पर लदा गरीबी जैसा अभिशाप है। पिछड़ेपन के कारणों में दरिद्रता एवं अशिक्षा भी कम कष्टकारक नहीं है। 70 प्रतिशत देशवासियों को शिक्षित बनाना सरकार के बलबूते से बाहर है। स्कूली शिक्षा में कुछ लाख बच्चे का प्रबंध ही उसके लिए कठिन पड़ता है, फिर 70 करोड़ में से जहाँ 47 करोड़ नर-नारियों को पढ़ाने का प्रश्न हो वहाँ उतना भार किसी सरकार पर भी नहीं लद सकता। इसे उदार लोक-चेतना द्वारा संपन्न किया जाना चाहिए। प्रज्ञा परिजनों की संख्या दस लाख के लगभग है। वे दो-दो घंटा समय अपने-अपने गली-मुहल्ले में छोटी प्रौढ़ कक्षाएँ लगाने में जुटाए गए हैं और आशा की गई है कि निरक्षरता के अभिशाप से इस आधार पर जूझना संभव हो जाएगा। इस योजना के अंतर्गत जहाँ व्रतशील युगशिल्पी स्वयं काम करते हैं, वहाँ घर-घर जाकर भावनाशील शिक्षितों से संपर्क साधते हैं और उन्हें विद्या ऋण चुकाने के लिए थोड़ा समयदान करते रहने के लिए सहमत करते हैं। इस प्रकार अध्यापकों की एक बड़ी सेना दिन-दिन सुविस्तृत होती चली जा रही है और उस माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किए गए प्रौढ़ नर-नारियों को साक्षर बनाने की योजना अत्यंत उत्साहपूर्वक, आश्चर्यजनक सफलता के साथ आगे बढ़ती चली जा रही है।

शिक्षाप्रसार की तरह ही घर-घर में शाक-वाटिका उगाने और कुपोषण से राहत पाने के लिए आँगन, छत-छप्पर पर शाक-भाजी, चटनी के लिए धनिया, पोदीना अदरक, हरी मिर्च आदि उगाने की प्रतिस्पर्धा खड़ी कर देना, देखने में तो एक मजाक जैसा काम है; पर उतने भर से जो आर्थिक बचत तथा आहार संतुलन की आवश्यकता पूरी होती है, उसका व्यापक परिमाण पर्वत जितना बड़ा होता है। सबसे बड़ी बात है, हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने की अपेक्षा उत्पादन की आवश्यकता अनुभव करने की प्रवृत्ति। यह दिशा पकड़े तो फिर आगे की बात भी सूझेगी और संव्याप्त आलस्य-प्रमाद से राहत मिलेगी। वृक्षारोपण तो वही कर सकते हैं जिनके पास भूमि है, पर जिन्हें किराए की कोठरियों में रहना पड़ता है, वे भी वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव से बचने के इस प्रयास में तो सम्मिलित हो ही सकते हैं।

इस दिशा में अगला कदम गृह-उद्योगों के ऐसे प्रयासों का नंबर आता है, जिन्हें घर के बैठे-ठाले लोग खाली समय में चलाते रह सकते हैं और हर हाथ की, काम की आवश्यकता किसी अपने-अपने बलबूते आगे बढ़ा सकते हैं। इसे सुचारु रूप से चलाने के लिए सहकारी पद्धति अपनाई जा रही है और हिल-मिलकर करने और मिल-बाँटकर खाने के सिद्धांत का घर-घर में प्रचलन किया जा रहा है।

सामूहिक श्रमदान के सहारे स्वच्छता अभियान चलाना, मल-मूत्र से लेकर कूड़े-करकट तक की गंदगी को बहुमूल्य खाद के रूप में बदलना ऐसा काम हैं, जिसमें सभ्यता, स्वच्छता, सेवा, समाजनिष्ठा, नागरिक जिम्मेदारी, सहकारिता जैसी अनेकों सत्प्रवृत्तियों को जनजीवन में विकसित होने का अवसर मिलता है। सामूहिक श्रमदान की तरह आजीविका के एक अंश को नियमित रूप से मुट्ठी फंड के रूप में निकालने का जो उत्साह उत्पन्न किया गया है। उसके सहारे पुस्तकालय, व्यायामशाला, खेलकूद, पार्क, उद्यान, तालाबों का गहरा करना, रास्ते सही करना, गलियाँ सुधारना जैसे अनेकों प्रयास स्वेच्छा सहयोग के सहारे चल पड़े हैं, जिन्हें सहकारी प्रयत्नों द्वारा किए जाने पर लाखों करोड़ों की आवश्यकता पड़ती।

निषेधात्मक प्रयत्नों में नशाविरोध, दहेज, शादियों की धूम-धाम, छुआ-छूत, पर्दाप्रथा, भिक्षा व्यवसाय, मृतकभोज, बालविवाह जैसी कुरीतियों का डटकर मुकाबला करना। इनके विरुद्ध वातावरण बनाना छोड़ने की शपथ लेना, दूसरे करते हों तो उनमें भागीदार न बनना जैसे काम उठाए जा रहे हैं। उसमें सामूहिक रूप से गुंडागर्दी, मिलावट आदि अनाचारों के विरुद्ध लोहा लेना भी सम्मिलित हैं। अंधविश्वासों की अपने देश में कमी नहीं। भूतपलीत, टोना-टोटका भाग्यवाद, शकुन-मुहूर्त्त आदि की इतनी भ्रांतियाँ अपने समाज में प्रचलित हैं कि उन्हें देखते हुए मूढ़मान्यताओं पर हँसी आती है और उनके कारण जिस भय, आतंक, विद्वेष, अपव्ययजन्य हानि होती हैं, उसे देखते हुए कष्ट होता है। लगे हाथों इन कुप्रचलनों के विरुद्ध भी मोर्चा अड़ा दिया गया है।

प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत हर भावनाशील को दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन की दृष्टि से दिए गए, वे काम हैं जो देखने में छोटे-छोटे होने पर भी बूँद-बूँद से घड़ा भरने की उक्ति को चरितार्थ करते हैं और उनके संयुक्त प्रयत्नों की प्रतिक्रिया दूरगामी होती है। अवसाद एक दुष्प्रवृत्ति है, जिसके कारण हीनताजन्य पिछड़ेपन के परिपोषण अनेकों कुप्रचलन पनपते हैं। उसे उखाड़ा जा सकें और नवसृजन के प्रति उत्साह उत्पन्न किया जा सके तो उस शृंखला में एक के बाद दूसरी कड़ी जुड़ती जाती है और बात बढ़ते-बढ़ते कहीं से कहीं जा पहुँचती हैं। इन प्रयत्नों से जुलूस, रैली, हड़ताल, घिराव, उद्घाटन समारोह जैसी धूम-धाम तो नहीं है, पर उनके पीछे रेडक्रास, फस्ट एड होम नर्सिंग, स्काउटिंग, भूदान, सर्वोदय, एन.सी.सी. जैसी रचनात्मक सत्प्रवृत्तियाँ नर्सरी रूप में उगती देखी जा सकती हैं और विश्वास किया जा सकता है कि उन रचनात्मक प्रयत्नों के शांत, सौम्य रहते हुए भी परिणाम उतने श्रेयस्कर होंगे, जिसे सृजन की पक्षधर समग्र-क्रांति कहा जा सके।

इन्हीं प्रयत्नों को हर क्षेत्र में विस्तृत करने के लिए पिछले दिनों 2400 प्रज्ञा संस्थानों की इमारतें बनी हैं। इन सभी में औसतन दो कार्यकर्त्ता काम करते हैं। एक स्थानीय गतिविधियाँ चलाने के लिए दूसरा समीपवर्त्ती सात गाँवों में एक-एक दिन का कार्यक्रम बनाकर जन-संपर्क साधने और युगांतरीय चेतना का वातावरण बनाने के लिए। प्रज्ञा संस्थानों की दिनचर्या में प्रौढ़-शिक्षा, बाल-शिक्षा की कक्षाएँ चलाने, कथा कीर्तन के माध्यम से लोक-मानस में सृजन परिवर्तन की उमंगें उत्पन्न करने का नियमित प्रशिक्षण चलता है। व्यायामशाला तथा गाँव में पौध बाँटने की नर्सरी भी इन छोटे संस्थानों में चलती है। इन कार्यकर्त्ताओं का निर्वाह व्यय महिलाओं द्वारा धर्मघटों में नित्य एक मुट्ठी अन्न डाले जाने वाले धर्मघटों के सहारे चलता है। प्रचारात्मक तथा रचनात्मक गतिविधियों में मार्ग व्यय तथा अन्य साधनों का व्यय प्रज्ञा परिजनों के द्वारा ज्ञानघट में डाली जाने वाली नित्य दस पैसा अनुदान की राशि से चल जाता है। कार्यकर्त्ताओं में से अधिकांश समयदानी, आत्मदानी, वानप्रस्थ, परिव्राजक, ब्रह्मचारी ही अधिक हैं, जिनमें से अधिकांश अवैतनिक कार्य करते हैं। जिनके पास अपने निर्वाह साधन नहीं हैं, ऐसे सृजनशिल्पियों को ही ‘ब्राह्मणोचित परिवार निर्वाह’ देने की व्यवस्था चलती है।

यह प्रयास के उस पूर्वार्ध का परिचय है जो अब तक हो चुका। इसे एक शब्द में उत्साहवर्द्धक, आशाजनक और अपने ढंग की अनुपम प्रक्रिया कहा जा सकता है। अनुपम इसलिए कि अब तक ऐसे-ऐसे प्रयत्न सरकारी या गैर सरकारी समाज कल्याण संगठनों के अंतर्गत ही होते रहे हैं। धर्मतंत्र का इस प्रकार के प्रयत्नों में मुहल्लों से कभी कोई योगदान नहीं रहा। ईसाई चर्चों में ही अपने धर्म-परिवर्तन योजना में इस प्रकार के प्रयासों में मात्र सेवा, सहानुभूति वाला पक्ष कार्यांवित किया है। लोक-मानस के परिष्कार के लिए योजनाबद्ध प्रयास में इस प्रकार का उदाहरण ढूँढ़ने के लिए हमें ढाई हजार वर्ष पुराने इतिहास पृष्ठ उलटने होंगे। बुद्ध का धर्मचक्र-प्रवर्तन प्रायः इसी पृष्ठभूमि पर आधारित था, जिसे कि अब प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत सामयिक परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए नए परिवेश में, नए सिरे से आरंभ किया गया है।

बौद्धकालीन धर्मचक्र-प्रवर्तन का इतिहास बताता है कि एकाकी प्रयत्न से सीमित-साधनों वाली वह प्रक्रिया धीमी गति से छोटे क्षेत्र में चलती रही; किंतु जब उसे समर्थ, सहयोगियों और उपयुक्त साधनों का बल मिला तो बात कहीं से कहीं जा पहुँची। बचपन प्रौढ़ता से जा जुड़ा। पुष्प वाटिका सुरम्य उद्यान में विकसित हुई और रिमझिम ने घटाटोप बनकर जल-थल एककर देने वाले बवंडर की तरह बरसना शुरू कर दिया। नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों के खंडहर अपनी भाषा में अभी भी यह बताते हैं कि यह प्रयास देखते-देखते किस द्रुतगति से आगे बढ़े होंगे और किस प्रकार एशिया क्षेत्र से आगे बढ़कर समस्त भूमंडल की नवचेतना प्रदान करने में सफल हुए होंगे। कितनी प्रतिभाओं ने उसमें अपना कितना बड़ा श्रमदान, अंशदान प्रस्तुत किया होगा।

इतिहास की पुनरावृत्ति भी होती रहती है। लगता है, वैसा ही कुछ इन दिनों भी होने जा रहा है। 'धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि' का बीजमंत्र जिस धर्मधारणा, देव संगठन एवं प्रबुद्ध विचारणा का उद्घोष करते थे, लगभग उन्हीं मंत्रों का नए वेदी पर, नया धर्मानुष्ठान प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत हो रहा है। संभव है, वैसी ही प्रतिभाएँ भी उसमें सहभागी बने और नए युग का, नया अध्याय, नए ढंग से सृजे।


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