मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण

October 1982

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सभी धर्म-पुराणों में स्वर्ग की सुखद परिस्थितियों का सुविस्तृत वर्णन है। वहाँ रहने वाले देवताओं का ऐसा आकर्षक उल्लेख है जिसे पढ़ने से प्रतीत होता है कि यदि मनुष्य को उस स्थिति में रहने, उस स्तर तक पहुँचने का अवसर मिले तो उसकी चरम मनोवांछित मनोकामना पूर्ण हो सकती है। यह धारणा सर्वथा कपोल-कल्पित नहीं हो सकती। इसके पीछे कुछ आधार अवश्य हैं। मरने के बाद किसी अदृश्य, अविज्ञात-लोक में वैसी परिस्थिति मिलती होगी, ऐसा मात्र श्रद्धा के आधार पर ही सोचा जा सकता है। उसके अस्तित्व का बुद्धिवादी प्रत्यक्ष प्रमाण-परिचय नहीं मिलता। ऐसी दशा में भूत और भविष्य पर दृष्टि डालनी होगी और सोचना होगा— क्या कभी वैसी परिस्थितियाँ ऐसे क्षेत्रों में रही हैं, जिसका प्रमाण-परिचय मिल सके? क्या वैसी सुखद संभावना है, जिसमें मनुष्य को उस स्थिति में रहने का अवसर मिल सके? काम किसी अदृश्य लोक की कल्पना से न चलेगा, क्योंकि ब्रह्मांड विज्ञान की अद्यावधि खोजों में वैसा कुछ अता-पता नहीं चलता। भविष्य की आशा भी कम है, क्योंकि ग्रह-नक्षत्र जितनी दूर हैं, वहाँ तक धरती के वातावरण में पली हुई चेतना का पहुँच सकना अतिकठिन है। फिर उन वर्णित परिस्थितियों के कहीं होने की बात तो गले से जरा भी नहीं उतरती। ऐसी दशा में यदि देवताओं के स्वर्ग को तथ्याधारित अन्वेषण करना हो तो चिर अतीत के इतिहास पृष्ठ पलटने पड़ेंगे, जिसमें मनुष्य में देवत्व के उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण की परिस्थिति उन दिनों बनी होने का उल्लेख है। रामराज्य सतयुग की धारणाएँ उसी स्तर की हैं, तब मनुष्यों की मनःस्थिति देवताओं जैसी थी और परिस्थिति स्वर्ग जैसी।

क्या वैसे समय, वातावरण का पुनः वर्त्तमान जनसमुदाय को रसास्वादन करने का अवसर मिल सकता है। इस प्रश्न का उत्तर “दूरदर्शी विवेकशीलता” ‘हाँ’ में देती है और कहती है कि वैसा नितांत संभव है; किंतु उसके लिए पुण्यात्मा होने की वही शर्त पूरी करनी पड़ेगी, जिसमें संयम और परमार्थ के दो कदम उठाते हुए लक्ष्य तक पहुँचने की अनिवार्यता है। भूतकाल में यदि सतयुग रहा होगा या भविष्य में प्रज्ञायुग विनिर्मित होगा तो उसके लिए मनुष्य को वही रीति-नीति अपनानी होगी, वही दिशाधारा ग्रहण करनी होगी जिसे व्यवहृत करने पर पौराणिक स्वर्ग में पहुँच सकना संभव होता है।

आज की खोज अब से उद्विग्न मनुष्य उस सुखद संभावना का रसास्वादन करने के लिए सहज लालायित हो सकता है, यदि उसे विश्वास हो सके कि वैसा कभी संभव रहा है या हो सकता है। इस संदर्भ में पौराणिक या ऐतिहासिक प्रतिपादनों की एक बार उपेक्षा करने में भी दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर यह सुनिश्चित विश्वास हो सकता है कि वैसा नितांत संभव है। गणितीय आधार पर अध्यात्म विज्ञान और उसकी स्वर्गमुक्ति सिद्धि जैसी उपलब्धियाँ पर उसी प्रकार विश्वास किया जा सकता है जैसा कि भौतिक विज्ञान में, सुविधा-साधन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष कर दिखाया। गणित ही भौतिक विज्ञान का आधार है। उसी के सहारे अध्यात्म विज्ञान की उन विभूतियों के हाथ लगने पर भी विश्वास किया जा सकता है, जिसमें सतयुग की पुनरावृत्ति का होना नितांत संभव दिखता है, जिसमें मनःस्थिति और परिस्थिति के उच्चस्तरीय बनने पर उस परोक्ष-प्रत्यक्ष में परिणति हो सकने की बात विश्वासयोग्य दिखती है।

मनःस्थिति ही परिस्थिति को जन्म देती है। यह तथ्य मानवी संरचना और मनःशास्त्र के सुनिश्चित सिद्धांतों के सहारे हस्ताभलकवत सिद्ध हो चली। अब वह मान्यता झीनी होती जा रही है, जिसमें परिस्थिति की अनुकूलता से मनःक्षेत्र की प्रसन्नता मिलने की आशा की जाती है। सुविधाएँ मात्र शरीर को थोड़ा गुदगुदा सकती हैं। मनःक्षेत्र तो उस वातावरण में संतोष की साँस लेता है, जिसमें आदर्श, सिद्धांतों, मर्यादाओं और कर्त्तव्यों का परिपालन होता है। मानवी गरिमा उत्कृष्टता पर अवलंबित है। वह जहाँ भी, जितनी भी, जब भी उपलब्ध होगी मनुष्य उतना ही संतुष्ट— प्रसन्न रहेगा। उतना ही स्वभाव और व्यवहार की दृष्टि से विशिष्ट होगा। व्यक्तित्व का स्तर इसी विशिष्टता के आधार पर आँका जाता है। यही है वह सार-संक्षेप जिसे उच्चस्तरीय मनःस्थिति कहा जा सकता है। यह हस्तगत हो तो उन परिस्थितियों के उपलब्ध होने में संदेह न रहेगा, जिसे पुरातन भाषा में बंधनमुक्ति या स्वर्गीय उल्लास के रूप में अलंकारिक वर्णनों के साथ प्रस्तुत किया गया है।

इसे प्राप्त करने की आकांक्षा यदि सचमुच ही जगे और जीवन की सार्थकता देखने का उत्साह यदि वस्तुतः उठे तो पुण्य अपनाने व पाप छोड़ने के रूप में उसका मूल्य चुकाना होगा। सभी जानते हैं कि प्रत्यक्ष पाप क्रिया-कृत्यों के रूप में शरीर द्वारा किए जाते हैं; पर यह दृश्य प्रवंचना है। शरीर जड़ है, उसका प्रेरक मन है, इसलिए कठपुतली के नृत्य में बाजीगरी का कौशल काम करता मानना होगा। मनःक्षेत्र की उत्कृष्टता, दूरदर्शी विवेकशीलता ही पुण्य निर्झरिणी का उद्गम स्रोत है। वहाँ विषाक्तता रहेगी तो जीवन व्यवहार का स्वरूप भी हेय स्तर का बनेगा। शरीर को दोष न देकर विज्ञजन सदा किसी के पाप-पुण्य की, उत्थान-पतन की विवेचना, उसकी आस्था-आकांक्षाओं की बातें अंतराल के साथ जोड़ते हैं। स्वर्ग-नरक के संदर्भ में यदि पाप छोड़ने और पुण्य अपनाने की आवश्यकता प्रतीत हो तो उसका व्यावहारिक रूप एक ही हो सकता है। अवांछनीय चिंतन से विरत होने और उत्कृष्टता की सदाशयता अपनाने का साहस करना होगा। यही तत्त्व दर्शन का पुरातन निर्धारण रहा है, इसी को अध्यात्म विज्ञान के आधार पर वर्त्तमान प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी सर्वथा खरा उतरते देखा जा सकता है।

पाप को अपराधों के रूप में और पुण्य को परमार्थ के रूप में दृश्यमान देखा जा सकता है, पर कुरेदने पर तथ्य दूसरे ही सामने आते हैं। पापकर्म मात्र भ्रांतियों के परिणाम हैं। दुर्बुद्धि जब उचित को अनुचित और अनुचित को उचित सुझा देती है, तभी मनुष्य सदाशयता का राजमार्ग छोड़कर पतन-पराभव के लुभावने गर्त में गिरने की ओर कदम बढ़ाता है। इसी प्रकार यदि विवेक जीवित रहे तो दूरगामी सत्परिणामों की सुखद संभावनाओं के सुनहरे चित्र सामने प्रस्तुत करता रहेगा और चिंतन तथा चरित्र को एक कदम भी कुमार्ग पर न चलने देगा। मानसिक संतुलन सौमनस्य यदि बन पड़े तो उस क्षेत्र में विवेकशील दूरदर्शिता का ही साम्राज्य होगा और फिर मान्यताओं, आकांक्षाओं, विचारणाओं का प्रवाह उस दिशा में बह चलेगा, जिसमें कृत्यों की पवित्रता-प्रखरता के अतिरिक्त और कुछ बन पड़ने की संभावना ही नहीं है। पुण्य-पथ इसी को कहते हैं। पापों से आत्यंतिक निवृत्ति इसी अवलंबन के सहारे मिलती है। नरक से निवृत्ति और स्वर्ग सोपान में प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि यही है। उस शुभारंभ-संकल्प और व्रत-धारणा की बात बन पड़े तो समझना चाहिए की पुण्यात्माओं को मिलने वाला स्वर्ग सहज संभव होगा। उस स्तर पर पहुँचने वाला या तो देवता बन जाता है अथवा देवताओं को उस क्षेत्र में रहने का अवसर मिलता हैं। प्रतिपादन दो प्रकार होते हुए भी एक ही तथ्य यथास्थान, यथावत बना रहता है।

आँखों की बनावट कुछ विचित्र है, बाहर का कूड़ा-करकट देखती हैं, भीतर की रत्न-राशि का पता ही नहीं चलता। हाथ भी विलक्षण हैं, धूलि मिट्टी में सने रहते हैं, पर भीतर की गंदगी बुहारने का नाम नहीं लेते। मनःसंस्थान का क्या कहना; दुनिया भर के संकटों से जूझता है, पर न जाने क्यों यह नहीं सूझता कि चेतना पर चढ़े कुसंस्कारों से छुटकारा पाने के साथ-साथ समस्त समस्याओं के समाधान का भी सहज हल ढूँढ़ा जाए। दोष तो दुष्प्रवृत्तियों को दिया जाता है, पर यह कोई विरले ही जानते हैं कि तथ्यतः वह दुर्बुद्धि का अभिशाप भर है। भ्रांतियाँ ही विकृतियाँ बनती हैं और विकृतियाँ प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में बदलकर अंततः विभीषिकाओं की विकरालता बनकर नग्न नृत्य कर रही हैं। यदि तथ्य तक पहुँचा जा सके तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि नरक से उबरने और स्वर्ग तक पहुँचने के लिए जिस पुण्य-परमार्थ की आवश्यकता होती है, उसका शुभारंभ उन भ्रांतियों से छुटकारा पाने के रूप में करना होता है, जो अंतराल व्यक्तित्व, पराक्रम एवं वातावरण को विपन्न बनाने के लिए एकमात्र उत्तरदाई हैं।

काम की बात वहाँ आकर टिकती है, जहाँ सुखद संभावनाओं को साकार करने के लिए मनःक्षेत्र को निभ्रांत, मान्यताओं का परिमार्जित, आदतों को विवेकसम्मत बनाने के लिए प्रचंड साहस जुटाना पड़ता है। व्यक्ति हो या समाज, राहत पाने का यही एकमात्र उपाय है कि समूचे विचार-तंत्र की एक बार नए सिरे से सफाई, धुलाई की जाए और अनुपयोगिता बहुत बढ़ गई हो तो उसे गलाने और नए ढाँचे में ढालने की हिम्मत सँजोई जाए। युग को इसी महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों महाकाल ने विचार-क्रांति का, प्रज्ञा अभियान का, ज्ञान यज्ञ के नियोजन का, लोक-मानस के परिष्कार का संदेश भेजा है। इसे अपनाया जा सके तो नदियों में बहने वाली विषाक्तता का परिशोधन एक कायाकल्प उपचार का सुयोग सहज ही बन सकता है।

मनुष्य प्रायः साढ़े पाँच फुट ऊँचा, डेढ़ सौ पौंड भारी, दाढ़ी-मूँछ वाला, सोता-खाता, बोलता-लिखता, सजता-अकड़ता देखता भर है। वस्तुतः उसकी मूलसत्ता श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के त्रिविध तत्त्व से विनिर्मित एक अदृश्य इकाई है, जिसे प्रकारांतर से मान्यताओं और आदतों का पुँज कह सकते हैं। चेतना को निकृष्टता की सड़ी कीचड़ से उबारा जा सके, उत्कृष्टता की पुष्पवाटिका में बिठाया जा सके तो समझना चाहिए, वह चमत्कार हो गया, जिसे दार्शनिक आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, धार्मिक स्वर्गमुक्ति का जीवन लक्ष्य, कविहृदय— कायाकल्प और बुद्धिवादी समग्र क्रांति के नाम से पुकारते हैं। वस्तुतः इसका मूलभूत स्वरूप इतना ही है कि अवांछनीय मान्यताओं का एक बार पूरी तरह परिशोधन कर लिया जाए। जो विवेक और औचित्य की कसौटी पर खरी उतरे, उन्हें सम्मानपूर्वक, सुरक्षित रखा जाए, यथास्थान प्रतिष्ठित किया जाए, साथ ही भ्रम-जंजाल के मकड़ी जाल को साहस के साथ लंबी झाड़-बुहार करके कूड़े के ढेर में पटक दिया जाए। इतना किए बिना उस दिव्य विचारणा की पुनः प्राणप्रतिष्ठा हो नहीं सकेगी, जो मानवी गरिमा को जीवंत रखती, व्यवहार से स्नेह-सौजन्य भरती तथा वातावरण को संपन्नता, प्रसन्नता से भर देने में पूरी तरह समर्थ है।

लोक-मानस के परिशोधन, परिष्कृतीकरण का महत्त्व इतना बड़ा है कि उसे सामयिक समाधान और उज्ज्वल भविष्य के अवतरण का सुसंबद्ध कार्यक्रम कहा जा सकता है। दूसरे श्रेष्ठ कामों की आवश्यकता उपयोगिता अपने स्थान पर बनी रहे, वे प्रयास अपने ढंग से चलते रहें; पर साथ ही इस उपेक्षित पक्ष को भी उभरने का अवसर दिया जाए, जिसके माध्यम से समय के प्रवाह को पतन के गर्त्त में गिरने से रोका जा सकता है। विनाश को रोकने और विकास को गतिशील बनाने का यही मार्ग है।

इस महत्त्वपूर्ण, कठिन; किंतु समय से निपटने के लिए नितांत आवश्यक कार्य को करे कौन? उस उत्तरदायित्व को वहन करने के लिए कंधा किसका बढ़े? इसका उत्तर तलाशने के लिए युगमनीषा की ओर ही दृष्टि जाती है। वह उभरे तो ही प्रवाह पलटे। 'हम बदलेंगे, युग बदलेगा' का सत्य और तथ्य जन-जन के गले उतारने, युगांतरीय चेतना को लोक-मान्यता में सम्मिलित करने का कठिन काम और किसी के बूते का है नहीं। भागीरथ, दधीचि, बुद्ध, शंकर, गाँधी, विवेकानंद जैसी प्रतिभाएँ उसे अपने ही क्षेत्र से निकालनी और सुविस्तृत कार्यक्षेत्र में खपानी पड़ेंगीं।


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