मनीषा तप-तितीक्षा में तपे और खरी उतरे

November 1982

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दीपक का काम है-तमिस्रा के व्यापक माहौल में भी अपने क्षेत्र में प्रकाश उत्पन्न करना। ऐसा प्रकाश जिससे वस्तु और स्थिति की सही जानकारी मिल सके। उस जानकारी के आधार पर सही निर्धारण कर सकना और सही कदम उठा सकना सम्भव हो सके। मनीषा का काम वही है। वह भटकती है और न अपने प्रभाव क्षेत्र में किसी को यथार्थता से अनजान होने के कारण भटकने देती है। दीपशिखा जहाँ अपने को प्रकाशवान रखती है, ज्योति का प्रतिनिधित्व करती है, वहाँ यह उत्तरदायित्व भी उठाती है कि भटकाव के पैर न टिकने दें। यथार्थता से किसी को अपरिचित न रहने दें। इतना बन पड़ें तो समझना चाहिए-आधी समस्याओं का हल हो गया। अपने कुकृत्यों और दूसरों के आक्रमणों से जितनी हानि होती है इससे कहीं अधिक दुर्घटनाएँ अनजान रहने तथा दिशाभ्रम के कारण उठानी पड़ती है। मनीषा का आलोक इस स्तर के संकटों को निरस्त करता है। फलतः उसे आधी समस्याओं का हल करने वाला कहा जाता है। पूर्वार्ध निपटा नहीं कि उत्तरार्ध कठिन नहीं रह जाता। कठिन तो चढ़ाई ही पड़ती है। वह चुक गई तो शेष आधी तो ढलान भर रह जाती है और उसे पार करना कठिन नहीं रह जाता।

युग सन्धि की बेला से सबसे बड़ी जिम्मेदारी मनीषा की है। उसे अँधेरी निशा में समुद्र के बीच प्रकाश स्तम्भ की तरह एकाकी जलना होता है। उसे समर्थन किसका? सहायता किसकी? चारों ओर उफनते लहरों के कोलाहल और टकराव से अस्तित्व को चुनौती ही मिलती रहती है। फिर भी प्रकाश स्तम्भ न केवल अपनी सत्ता बचाये रहता है, साथ ही उस क्षेत्र से गुजरने वाले जलयानों की इतनी सेवा भी करता रहता है कि उन्हें इस प्रदेश की चट्टानों से टकराकर उलट जाने की विपत्ति में न पड़ने दें। बेशक, हीरक हार बाँटते रहने की स्थिति न होने के कारण उन्हें दानवीर होने का श्रेय तो नहीं मिलता फिर भी जानकार जानते हैं कि प्रहरी की जागरूकता सुरक्षा का जो प्रावधान करती है उसका कितना मूल्य-महत्व होता है। आलोक बुझ जाने पर जलयानों के उलट जाने की दुर्घटना देखकर ही कोई यह जान सकता है कि प्रकाश-स्तम्भ की मूक सेवा कितनी उपयोगी, कितनी आवश्यक होती है।

प्रज्ञा परिजनों में से जिनके अन्तराल में दूरदर्शी विवेकशीलता का आलोक दीप्तिमान हो उनको समय की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए और संव्याप्त अंधकार में अपना साहस दीपक की तरह प्रज्वलित करना चाहिए। प्रत्यक्षतः इससे मन्दिर, धर्मशाला बनाने जैसा दृश्यमान ऐसा आधार तो नहीं बनता जिससे पुण्यात्मा धर्मात्मा कहलाने की ललक बुझ सके और अपनी वरिष्ठता का बखान सुनने, सुनाने का अवसर मिल सके। तो भी इस सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि भटकाव को रोकना और दिशा निर्देशन के लिए जन-जन को इंगित करना भी कोई छोटा काम नहीं है। सच तो यह है कि दिशा निर्देशन के अभाव में भय, आतंक, अनिश्चय, असुरक्षा और आशंका का ऐसा माहौल बन जाता है जिसमें किसी के लिए भी, कुछ भी संकट खड़ा हो सके।

मनीषा है तो श्रेष्ठ और सराहनीय, तो भी उसे आगे बढ़ने के लिए, अपने पराक्रम का परिचय देने के लिए ऐसा आत्मबल चाहिए जिसमें संकल्प और साहस की प्रखरता-प्रचुरता भरी पड़ी हो। इसके बिना सद्ज्ञान भी अपने आप तक सीमित रह जाएगा, दूसरों की सेवा-सहायता के लिए आगे न बढ़ सकेगा। परमार्थ की प्रवृत्ति भी मनीषा की तरह किन्हीं सौभाग्यवानों को ही मिलती है और वह सौभाग्य भी अनायास नहीं मिलता। मनीषा आसमान से नहीं उतरती। दूरदर्शी विवेकशीलता के सहारे सम्मुख उपस्थित हर पदार्थ का पुनः निरीक्षण, पुनर्निर्धारण करने की निष्पक्षता अपनाये बिना, मनीषा का पुण्य प्रसाद किसी को नहीं मिलता। इससे अगला कदम और भी बड़ा है। उसमें उपलब्ध मनीषा को जन-जन तक पहुँचाने का नया निर्धारण करना पड़ता है। मोती चुगने और कीड़ों से परहेज करने का औचित्य अपनाता है। यह उसकी व्यक्ति गत विशेषता है। अगली बात तब बनती है जब उस उपलब्धि का लाभ जन-जन को मिले और समूचा समाज उससे लाभ उठाये। यह बादलों जैसा दुस्साहस है जिसमें अपनी पूँजी होने पर भी समुद्र से जल लादकर सूखे धरातल को हरा करने के लिए लम्बी यात्रा करते हुए दूर देशों में बरसना पड़ता है। मनीषा की सार्थकता भी उसी उपक्रम को अपनाने से बनती है।

मनीषा पवित्रता है और तपस्या प्रखरता। दोनों का सुयोग तेल-बाती के समन्वय की तरह कृत-कृत्य करता है। मुनि को ऋषि बनना पड़ता है। मुनि अर्थात् मनीषी। ऋषि अर्थात् वह मनीषी जो तप साधना से अपना आत्मबल बढ़ाए और उपलब्धियों को अभावग्रस्तों की प्यास बुझाने के लिए उन्हें सुलभ करायें। आत्मबल के अभाव में साहस नहीं उभरता। साहस के बिना परमार्थ कैसा? परमार्थ में प्रयुक्त न होने पर ज्ञान, वैभव, वर्चस्व आदि की सार्थकता कहाँ? अस्तु, जिस अन्तः प्रेरणा से मनीषा उभरती है देखा यह गया है कि उसी का दूसरा अनुदान तपस्वी जीवनचर्या के रूप में भी मिलता है। मनीषा यदि सच्ची और गहरी हो तो उसका दबाव व्यक्ति को तपस्वी बनने तक धकेलता कचोटता ही रहेगा।

युग मनीषा अपनी प्रखरता का परिचय युग ऋषि के रूप में प्रस्तुत करें, यही उचित और यही श्रेयस्कर है। युगसन्धि के इस प्रभात पर्व पर युगान्तरीय चेतना को किसी तरह सोचना है, चिन्तन-प्रवाह को किस तरह मोड़ना-मरोड़ना है उसका दिग्दर्शन गत अंक में यथासम्भव प्रतिपादित हुआ है। वह यदि उचित उपयुक्त है तो उसे मान्यता तक सीमित न रहने दिया जाना चाहिए। प्रचलन, प्रवाह एवं परम्परा के स्तर तक पहुँचाया जाना चाहिए। यह आवश्यक भी है और कष्टसाध्य भी। इस क्रियान्वयन के लिए भागीरथी उमंगें चाहिए। यह उमंगें उठें कैसे? गतिशील कैसे बनें? इसके लिए जहाँ प्रोत्साहन की आवश्यकता है , वहाँ इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष तप-साधना भी है। ऋषिकल्प बनने के लिए इससे कम तापमान की ऊर्जा में काम भी तो नहीं चलता।

प्रज्ञा परिजनों में यदि युग मनीषा की भूमिका निभाने का उत्साह उभरा हो तो उसके लिए आवश्यक पराक्रम उत्पन्न करने वाला संकल्पवान साहस उगाना चाहिए। यह उत्पादन तप-साधना के सहारे ही वर्जित होता है। आवे में ही कच्ची मिट्टी के बर्तन पकते हैं। सदाशयता की उमंगों को भी परिपक्व होने के लिए अन्तराल को तपाने वाले साधनात्मक उपक्रम का आश्रय लेना पड़ता है। इसी प्रयोजन की सामयिक आवश्यकता पूरी करने के लिए ‘कल्पसाधना’ का निर्धारण है। समय का निमन्त्रण है कि जहाँ भी युग मनीषा उभरे वहाँ उसे युग साधना की दिशा में अगला कदम उठाने का भी प्रकाश मिले। युग साधना को ही प्रकारान्तर से कल्प साधना कहा गया है। इस अंक में उसी का स्वरूप एवं प्रतिपादन है।


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