विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये। विश्वास ने, सृजन के नव गीत गुनगुनाये॥1॥
विज्ञान, धर्म बिछुड़े। लय, ताल, छन्द उखड़े। संगीत शाश्वत तब आलापने न पाते। विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये ॥2॥
विज्ञान के चरण पर। मुखरित न धर्म के स्वर। संगीत जिन्दगी का गाये तो कोन गाये। विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये ॥3॥
यदि सर्जना इधर हो। सद् कल्पना उधर हो। तो कौन, कल्पना को साकार फिर बनाये। विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये ॥4॥
विज्ञान, ध्वंस कारी। हो धर्म, भ्रांति भारी। कल्याण की दिशा में, तब कौन फिर चलाये। विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये ॥5॥
विज्ञान, धर्म मिलकर। कल्याण-पंथ चलकर । सुख, शान्ति स्वर्ग को वे भू पर उतार लाये। विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये॥6॥
कर्तव्य और निष्ठा। विश्वास और श्रद्धा । पुरुषार्थ, स्नेह इनका दुनिया नई रचाए । विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये॥7॥
विज्ञान धर्ममय हो। सद्ज्ञान कर्ममय हो। विज्ञान, धर्म की यूँ दूरी चलो मिटायें। विज्ञान, धर्म ने जब समवेत स्वर उठाये॥8॥
—मंगल विजय
*समाप्त*