नियमित रूप से चलने वाली प्रज्ञायोग-साधना

November 1982

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कल्प साधकों की दैनिक उपासना पद्धति का मूल आधार प्रज्ञायोग हे इसका नित्य उपासना उपक्रम को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। जप-ध्यान जैसे भावना प्रधान कृपा ‘जिन्हें परिमार्जन-प्रखरता सम्पादन के लिये नित्य करना अनिवार्य है। (2)आत्मबोध की प्रातःकालीन साधना जिसमें दिन भर क्या किया जाना है, इस सुर दुर्लभ मानव शरीर का सदुपयोग किस प्रकार होता है इस पर चिन्तन किया जाता है। आत्म-विश्लेषण व निरीक्षण की इस साधना का प्रज्ञायोग का प्राण कहा जा सकता है। (3)तत्त्वबोध की सायंकालीन साधना जिसमें दिन भर का लेखा-जोखा लिया जाता है तथा पूरे दिन को एक पूरा जीवन मानकर मृत्यु की गोद में जाने का चिन्तन करते हुए प्राप्त के पर्यवेक्षण की एक रिहर्सल की जाती है। भावी निर्धारण व आने वाले डडडडकी अपनी दिनचर्या की भूमिका बनाते हुए साधक निद्रा की गोद में चले जाते हैं। इन लोगों का समन्वय ही ‘प्रज्ञायोग‘ है। उपासना के प्रथम चरण में जहाँ कृत्यों के साथ जुड़े भावनात्मक संकल्पों की प्रधान भूमिका है वहाँ आत्म-बोध-तत्व-बोध की साधना में चिन्तन-मनन का प्राधान्य है। कल्प साधकों को इन तीनों ही उपक्रमों को समान महत्व देते हुए नियमित रूप से भावनापूर्वक सम्पन्न करने के लिये कहा जाता है। परिणति स्वरूप इनसे उन विभूतियों का प्रत्यक्ष रसास्वादन होने लगता है जो अध्यात्म मार्ग पर सही रूप से संकल्पपूर्वक चलने वालों को मिलना चाहिए।

प्रज्ञायोग का दैनिक उपासना उपक्रम

उपासना उपक्रम में प्रधानता दो कृत्यों की है-जप जब ध्यान। दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। क्रम से चलते हुए ही मंजिल पार की जाती है। नित्य जल्दी उठकर साधक अपने आवश्यक कर्मों में निवृत्त होकर जीवन का शुभारम्भ उपासना के मंगलाचरण से करते हैं। इस क्रम में पाँच प्रमुख कृत्य हैं-आत्म शोधन (2)देव पूजन (3)जप (4)ध्यान विसर्जन-सूर्य अर्घ्यदान ये पाँचों चिन्ह पूजा की तरह निपटाने जाने वाले कृत्य नहीं हैं वरन् श्रद्धा विश्वास के सम्पुट से किये जाने वाले सोद्देश्य उपक्रम हैं। क्रिया के साथ भावना का जितना समन्वय होना उत्तम ही उसमें आनन्द आयेगा, मन लगेगा और सत्परिणाम हस्तगत होंगे। पाँचों ही उपासना उपचारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

(1)आत्मशोधन

इष्टदेव के सामने आसन पर बैठकर पाँच कृत्य किये जाते हैं-[अ] पवित्रीकरण शरीर पर जल छिड़कना [ब] आचमन-चम्मच से तीन बार आचमन, [स] शिखा स्पर्श वन्दन, [द] प्राणायाम-श्वास को धीमी गति से खींचना-रोकना और धीरे से बाहर निकाल देना तथा अन्तिम, [इ] न्यास-वाही हथेली पर जल रखकर दायें हाथ की पाँच अंगुलियों से निर्धारित क्रमानुसार शरीर के प्रमुख अंगों को स्पर्श करना।

(अ) पवित्रीकरण-का अर्थ है आत्म− परिशोधन भगवान के अच्छे विचारों को मन में लाना है तो सर्वप्रथम उसे निर्मल पवित्र बनाया जाना आवश्यक है मंजे हुए बर्तन पर कलई अच्छी तरह चढ़ती है। कपड़ा धुला स्वच्छ हो तो रंग चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं। मलीनताओं के रहते जीवात्मा परमात्मा के उच्च पद तक नहीं पहुँच सकती। शरीरगत पवित्रता एवं मन का निर्मलता की भावना रखते हुए पवित्रीकरण का कृत्य किया जाता है। बायें हाथ की हथेली में जल लेकर उसे दाहिने हाथ की हथेली से ढक कर मन्त्रोच्चारण समाप्त होने पर उसे अपनी समग्र काया पर छिड़कते हैं।

(ब) आचमन-प्रथम आचमन का अर्थ है-स्वास्थ्य की कुँजी स्वादेन्द्रिय पर नियन्त्रण, द्वितीय आचमन वाणी को सार्थक शालीन बनाने के लिए तथा तृतीय आचमन वाणी का देवत्व अभिव्यक्त करने− सत्परामर्श का गुण विकसित करने के लिये किया जाता है। मुख का शरीरगत स्वास्थ्य तथा वाणी के व्यवहार पक्ष का मानसिक स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। वाणी का अन्तिम भाव पक्ष अपने अन्दर वह प्रखरता विकसित करने से सम्बन्धित है जो मनुष्य जीवन को लोक कल्याण हेतु प्रेरित करती है-साक्षात् सरस्वती बनकर साधक की जिह्वा पर विराजती है। ये तीनों सुख के ही उपादान हैं। इनके महत्व को समझकर आचमन किया जाय। मन्त्र बोलने के पश्चात् आचमन से जल मुख को बिना छुए ढाला जाय।

(स) शिखा स्पर्श वन्दन-यह एक प्रकार का आध्यात्मिक झण्डा अभिवादन है। देश का प्रतीक तिरंगा झण्डा और धर्म का प्रतीक स्वस्तिक है। शिखा और यज्ञोपवीत हिन्दू संस्कृति के प्रतीक हैं जो शरीर पर प्रतिष्ठापित हैं।

शिखा साक्षात भगवती की प्रतिमा है, महानता की गंगोत्री हैं। चोटी की संस्कृति अर्थात् शिरोमणि संस्कृति। मस्तिष्क में ऐसे ही देवत्व युक्त विचारों की स्थापना के लिए संस्कृति के इस प्रतीक का वन्दन किया जाता है। उँगलियों में जल लगाकर पाँचों उँगलियों से मन्त्र बोलते हुए शिखा को स्पर्श करते हैं।

(द) प्राणायाम-जब तक शरीर में प्राण हैं, तभी तक वह स्थिर है। विचारणाएँ, भाव-सम्वेदनाएँ भी तभी तक हैं जब तक कि मनुष्य प्राणभूत है। प्राण शक्ति को आकर्षित करना ही प्राणायाम है। साधना विधान की पृष्ठभूमि ही प्राण तत्व के अनुसन्धान पर बनी है। फलस्वरूप मनीषियों ने अविज्ञात-चेतन जगत से उन रहस्यों को खोज निकाला, जिन्हें सिद्धियाँ-चमत्कार कहा जाता है। इन उच्चस्तरीय प्रक्रिया के लिये जिस पात्रता की आवश्यकता है उसका अभिवर्धन करने के लिये ही प्राणशक्ति का संचय किया जाता है। अपने भीतर के चुम्बक को शक्ति शाली बनाने, ओजस्, तेजस्, वर्चस् बढ़ाने के लिये ही प्राणायाम का उपक्रम किया जाता है। श्रेष्ठतम का संचय पूरक है, शक्ति −स्फूर्ति से अनुप्राणित होना अर्न्तः कुम्भक, अवांछित को-अन्तः की मलीनताओं को निकाल फेंकना रोचक क्रिया है। ताजा भोजन ग्रहण करने का आनन्द तभी मिलता है जब पहले से संचित मल निकाल बाहर किया जाय। इन तथ्यों को दृष्टिगत रख प्राणायाम की पूरी क्रिया की जाय। आत्मचेतना को स्फूर्तिवान् बनाने वाले इस पूरे कृत्य के साथ संकल्पों को सम्मिश्रित किया जाता रहे तो निश्चित ही वाँछित लाभ मिलते हैं।

(इ) न्यास-का अर्थ इस तथ्य का बोध कराना है कि मनुष्य को परमात्मा ने जो अंग प्रत्यंग प्रदान किये हैं उसका सही अर्थों में उपयोग करने पर ही जीवन सार्थक बनता, श्रेय मिलता और जीवात्मा देवात्मा के पद पर पदोन्नत होता हुआ परमात्मा के उच्च पद पर जा पहुँचता है। जिन अंगों [मुख, नासिका, नेत्र, कान, भुजाएँ, जंघाएँ] समस्त काया-स्पर्श किया जाय, उनके साथ-साथ यह भावना भी की जाय कि हमें इन्द्रिय विशेषों को कुमार्गगामी होने से बचाना व स्वयं में प्रखरता-पवित्रता का समावेश करना है। अन्त में सारी काया पर जब छिड़कते समय एक ही भाव रहे कि हमारा शरीर जिस परमात्मा की देन है, उसी की सेवा में लग जाय-प्राणपण से नियोजित होता रहे-कभी भी स्वार्थपरता के कुपथ पर न चले।

(2) द्वितीय कृत्य है-देवपूजन

प्रज्ञा युग के अवतरण को इस सन्धि बेला में सभी साधक महाप्रज्ञा को अपनी उपासना का आधार केन्द्र मानें। महाप्रज्ञा का प्रतीक गायत्री माँ का चित्र है। इसे सुसज्जित पूजा वेदी पर रखें। पवित्रता सम्पादन के प्रथम पाँच कृत्यों के बाद इष्ट से घनिष्ठता स्थापन के पंचोपचार को पूरी श्रद्धा के साथ विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप नैवेद्य-इन प्रतीक समर्पणों को आराध्य के सम्मुख प्रस्तुत करने को ही पंचोपचार अथवा देव पूजन कहते हैं। देवताओं के वरण से अपना मनुष्यत्व भी देवत्व से उसी तरह महकने लगता है, जैसे चन्दन के समीप रहने वाली झाड़ियाँ भी सुगन्धित हो जाती हैं। देवता हमें नमन वन्दन-समर्पण के बदले श्रेष्ठ जीवन जीने की प्रेरणाएँ ही देते हैं।

जल का अर्थ है नम्रता-सहृदयता अक्षत का अर्थ है-श्रमदान-अंशदान पुष्प का अर्थ है-प्रसन्नता-प्रगति शोभा। धूप-दीप अर्थात् स्वयं जलकर सुगन्ध आलोक का वितरण-पुण्य परमार्थ। नैवेद्य अर्थात् स्वभाव, चरित्र एवं दैनन्दिन व्यवहार में सज्जनता का माधुर्य। इन पंचोपचार द्वारा वस्तुतः व्यक्ति त्व को सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न करने का ही संकल्प उभारा जाता और विश्वास किया जाता है कि परमात्मा के साथ घनिष्ठता इससे कम में स्थापित नहीं हो सकती ये हैं तो प्रतीकोपचार, पर इनसे जुड़ी भावनाएँ-श्रद्धा समर्पण अध्यात्म की प्रगति पथ की यात्रा का महत्वपूर्ण सोपान है। एक-एक करके एक छोटी तश्तरी में इन पाँचों को पूजा अभ्यर्थना के उद्देश्य से समर्पित करते चलें।

(3) जप

जप और ध्यान ये दोनों उच्चस्तरीय साधना क्रम के मध्यवर्ती विधान के अंतर्गत आते हैं। पर इन्हें प्रज्ञायोग उपासना का प्रमुख आधार मानकर नित्य किया जाना अनिवार्य है। इनका एक ही उद्देश्य है-शरीर के जड़ और मन के अर्ध चेतन स्तरों को जो सामान्य स्थिति में अविकसित ही होते हैं, परिष्कृत बनाना, अपना आपा इतना ऊँचा उठा देना कि दिव्य सत्ता हमें आध्यात्मिक प्रगति के लिये वाँछित अनुदान कर सकें।

जप सामान्यतः गायत्री मन्त्र की न्यूनतम तीन माला का किया जाता है जो पन्द्रह मिनट में पूरा हो जाता है। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम है। कल्प साधकों के लिए 11 माला प्रतिदिन का निर्धारण ताकि एक माह में 24 हजार का गायत्री अनुष्ठान पूर्ण हो सके। पूर्णाहुति सत्र समाप्ति के अन्तिम दिन करनी चाहिए। माला का उद्देश्य घड़ी से भी पूरा हो सकता है। नियत समय तक यदि ध्यान मिश्रित जप प्रक्रिया की जाती रहे तो भी वही लाभ मिलता है। होंठ-कण्ठ मुख के अंग-प्रत्यंग हिलते रहें एवं ध्यान कहीं और हो तो जप समय क्षेप बनकर ही रह जाता है। जप को एक प्रकार की मलशोधक रगड़ माना जाय जिस पर बार− बार घिसने पर वस्तुएँ चिकनी हो जाती हैं। साबुन रगड़ने से मैल छूटता है। घर में नित्य बुहारी लगानी होती है। बर्तनों को नित्य माँजना पड़ता है। मन पर नित्य ही वातावरण में उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है। उस मलीनता को धोने के लिए नित्य ही उपासना करनी होती है। नाम के आधार पर ही किसी सत्ता का बोध और स्मरण होता है। ईश्वर को-उच्चस्तरीय आदर्शों को अपने स्मृति पटल पर प्रतिष्ठापित करने के लिए नित्य उसके नाम का सहारा लेना पड़ता है। स्मरण से आह्वान, आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि की क्रम व्यवस्था मनोविज्ञान द्वारा भी तर्क सम्मत सिद्ध होती है।

चेतना के प्रशिक्षण के चार अभ्यास सर्वविदित हैं। शिक्षण प्रक्रिया में पहले लर्निंग, फिर रिटेन्शन, फिर रिकाँल एवं फिर रिक्रिएशन-इन चार उपक्रमों को अपनाना होता है। लर्निंग अर्थात् पुनरावृत्ति-बार-बार याद करना, रिटेन्शन अर्थात् प्राप्त जानकारी को अभ्यास का अंग बना लेना, रिकाँल अर्थात् अपनी विस्मृत जानकारी को कुरेद बीन कर पुनः संजीव कर लेना एवं रिक्रिएशन अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना। आदर्शों को-श्रेष्ठता को बार-बार याद कर उन्हें अभ्यास का अंग बनाना-अपने प्रसुप्त सुसंस्कारों को उत्तेजित कर जगाना एवं उन्हें श्रद्धा-विश्वास में परिणति कर देना ही जप प्रक्रिया का मूल प्रयोजन है। जब तक पत्थर पर रस्सी की रगड़ नहीं लगेगी, निशान नहीं पड़ेगा। हमारी कठोर मनोभूमि पर श्रेष्ठता के संस्कार स्थापित करने के लिये उनका बार-बार स्मरण जरूरी है। जप प्रक्रिया को एक प्रकार से चिन्तन क्षेत्र की जुताई कह सकते हैं। खेत को बार-बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है, फसल लहलहाती है। नाम जप का आशय यही है कि जब तक आदर्शों के प्रति अगाध निष्ठा और व्यवहार में उतारने की परिपक्वता न उत्पन्न हो, अपने चिन्तन को सतत् उस दिशा में क्रियाशील रखा जाय।

जप शब्द विज्ञान पर आधारित एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। शब्दशक्ति एक प्रकार की आध्यात्मिक ऊर्जा है जो प्रसुप्त को जगाती-दिव्य सामर्थ्यों का उद्भव करती है। शब्द प्रवाह के साथ उनके प्रभावोत्पादक चेतन तत्व भी जुड़े होते हैं। वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुले रहकर जहाँ भी टकराते हैं, चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं। साधना का परिणाम सिद्धि है। शरीर-मन-अन्तःकरण में चक्रों-ग्रन्थियों भेद-उपत्यिकाओं के रूप में दिव्य विलक्षण क्षमताएँ विद्यमान हैं, जिन्हें जगाया जा सके तो व्यक्ति अतीन्द्रिय सामर्थ्य सम्पन्न देवमानव-महामानव बन सकता है। यदि जप में मात्र क्रिया ही नहीं, ईश्वर को अपने अन्तराल में घुल जाने के लिए आग्रहपूर्वक आमन्त्रित करने को प्रधानता दी जाने लगे तो जप सार्थक हो जाता है।

(4) ध्यान

परम तत्व में मन को नियोजित करने के लिए जप के साथ ही ध्यान की अनिवार्य हो जाता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के आँचल की छाया में बैठने तथा उसका सुधार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होते रहने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में प्रभात कालीन स्वर्णिम सविता देव की किरणों के शरीर में प्रवेश होने की भावना की जाती है। इस दिव्य ऊर्जा द्वारा अन्तःकरण में श्रद्धा, मस्तिष्क में प्रज्ञा, काया में निष्ठा के दिव्य अनुदान उतरने की मान्यता को परिपक्व किया जाता है। इन दोनों में से जो भी जिसे अनुकूल पड़े, अच्छा लगे, जप के साथ करना चाहिए। चित्त की एकाग्रता जप और ध्यान के समन्वय से ही बन पड़ती है। आत्म-सत्ता पर दिव्यता की छाप बिना एकाग्र हुए पड़ती नहीं।

आध्यात्मिक ध्यान का एकमात्र उद्देश्य है अपने स्वरूप और लक्ष्य की विस्मृति के कारण उत्पन्न विपन्नता से छुटकारा पाना। जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। आत्मा को परमात्मा के समकक्ष बनाने के लिये पूर्णता प्राप्ति के लक्ष्य पर ध्यान एकाग्र करना होता है। चारों ओर संव्याप्त उद्विग्नताओं से-विक्षोभों से मस्तिष्क को उबारने, उसे सन्तुलित स्थिति में बने रहने का अभ्यास ध्यान साधना द्वारा ही सम्भव है। ध्यान का अर्थ-चिन्तन प्रवाह को अवांछित दिशा से हटाकर सुनियोजित कर देना। स्थिरता नहीं लक्ष्य के साथ तल्लीनता ध्यान है। भटकाव का स्वेच्छाचार रोककर मन को नियत निर्धारित दिशा में-इष्ट की ओर लगाना होता है। इसका लाभ आत्मिक एवं भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से मिलता है। पूरी तन्मयता-तत्परता नियोजित होने पर कार्य का स्तर ऊँचा उठता है, सफलता का पथ प्रशस्त होता है। मन एक प्रकार का जंगली हाथी है जिसे पकड़ने-पालतू बनाने-प्रशिक्षित करने के लिए ध्यान का रस्सा ही काम आता है। सधी हुई बुद्धि ऐसे नियन्त्रित मन को सत्प्रयोजनों में संलग्न हो सकने योग्य सुसंस्कृत बनाती है। आत्मिक क्षेत्र में ध्यान की यही प्रक्रिया प्रसुप्त शक्ति यों के जागरण से लेकर ईश्वर प्राप्ति तक का महत्वपूर्ण माध्यम बनती है।

(5)सूर्यार्ध्य दान-पूर्णाहुति-नित्य उपासना के इस अन्तिम कृत्य में पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में चढ़ाया जाता है। इसके पीछे भाव एक ही है-आलोक फैलाने वाले आदर्शों को कभी अभिसिंचन की कमी न पड़ने पावे। हमारी कामना उस समय यही रहे कि हे सूर्य भगवान —हमारे द्वारा समर्पित यह जल भाप बनकर आकाश में उड़ जाये। यह यज्ञ कृत्य भविष्य में कभी बन्द न हो। हमारा श्रद्धा समर्पण से भरा यह अन्तिम कृत्य जितने गहरे स्तर का होगा, हम कभी अन्तः की सम्पदाओं से रिक्त नहीं होगे। हमारा अपना वैभव समष्टिगत सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में काम आये, यही सूर्यार्ध्य का भाव है। परमात्मा सत्ता से मिलन, शरणागति, एकत्व आदि अभिव्यक्ति यों का व्यावहारिक स्वरूप यही है कि हमारा जीवन, छोटे कलश तक सीमित न रहे-वह बाहर निकले-भगवान के, समष्टि के काम आये।

इतना करने पर प्रज्ञायोग साधना का उपासनापरक पूर्वार्ध समाप्त हो जाता है। चिंतनपरक उत्तरार्ध दो चरणों में आत्म बोध एवं तत्व बोध की साधना के रूप में सम्पन्न होता है।


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