आहार साधना एक महत्वपूर्ण तपश्चर्या

November 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आहार कल्प स्वयं में एक परिपूर्ण चिकित्सा है। यह तो मात्र मन की दुर्बलता है जो व्यक्ति को भाँति-भाँति के आहार स्वादेन्द्रिय की तृप्ति ग्रहण करने हेतु लालायित करती रहती है। स्वास्थ्य के बिगड़ने, जीवनी शक्ति कमजोर होने की प्रक्रिया यहीं से आरम्भ होती है। अच्छा होता कि व्यक्ति प्रकृति में विचरण करते प्राणियों से कुछ शिक्षा लेता, अपना जीवन क्रम यथा सम्भव स्वाभाविक बनाये रखता। परन्तु कृत्रिम जीवन का अभ्यासी मनुष्य आज अपने ढर्रे में कोई परिवर्तन किसी भी परिस्थिति में स्वतः स्वीकार नहीं करता। प्रकृति ही अपनी ओर से उसे दण्ड देती है तो उसे रोग विषयों में पथ्या पथ्य के रूप में स्वाद को अच्छी लगने वाली वस्तुएँ बरबस छोड़ना पड़ती हैं।

इस ढर्रे को तोड़ने की विधि एक ही है, किसी तरह अपने वर्तमान परिकर से निकलकर न्यूनतम एक आहार पर रहने के क्रम को अपनाया जाय। इसके लिये किंचित् से मनोबल से ही काम चलाया जा सकता है। यह मृदु तपश्चर्या सफल हो गयी तो आगे कड़ी तपस्या भी सम्भव है। आहार कल्प की दृष्टि से सामान्यतया अमृताशन का प्रयोग सर्वसुलभ माना जाता है। गेहूँ, चावल, मूँग इन तीन के मिश्रण से दाल− चावल-दलिया-दाल का संयोग बनता है। अच्छा तो यह है कि एक धान्य से काम चलाया जाय। दलिया या चावल को दूध-गुड़ आदि के संयोग से स्वादिष्ट भी बनाया जा सकता है। अकेली मूँग भी उबाल कर एक महीने तक भोजन का काम भली प्रकार दे सकती है। आग्रह या असमर्थता हो तो दो का संयोग करना चाहिए। स्मरण रहे हर धान्य अपने आप में पूर्ण है। उसमें वे सभी वस्तुएँ मौजूद हैं जो शरीर के लिए आवश्यक हैं। सच तो यह है कि शरीर के पाचक रस ही विभिन्न खाद्यान्न को अपने उपयुक्त परिवर्तित करते और बदलते हैं। सुअर और दुम्बा मेढ़ा के शरीर में चर्बी की मात्रा अत्यधिक होती है। वे इसे मात्र घास से ही प्राप्त कर लेते हैं। जबकि घास में चर्बी का अंश अत्यल्प मात्रा में होता है। शरीरगत पाचक रस सत्तू जैसी स्वत्व रहित वस्तु को भी उलट-पुलट कर शरीर के लिए उपयुक्त क्षमता वाले रक्त में बदल देते हैं। शाकाहार में, एक अन्न, एक फल, एक शाक भर रहने में हर्ज नहीं। कल्प का वास्तविक तात्पर्य यही है। दूध कल्प, छाछ कल्प, आम्र कल्प, खरबूजा कल्प आदि का तात्पर्य ही यह है कि नियत अवधि तक उस एक ही वस्तु का सेवन किया जाय। दूसरी और कोई वस्तु पेट में न जाने दी जाय। एक अन्न से नाक भौं सिकोड़ते वालों के लिए ही मूँग की दाल का मिश्रण करके संख्या दो कर लेने की छूट दी गई है। अन्यथा उपयुक्त यही है कि किसी एक अन्न पर निर्भर रहा जाय। उसके साथ दूसरी वस्तु का मिश्रण न किया जाय। किसी खाद्य पदार्थ को अपना पूरा प्रभाव दिखाने का अवसर इसी आधार पर मिलता है। अन्यथा दो या अधिक वस्तुओं का मिश्रण करने पर हर वस्तु अपना प्रभाव खोती चली जाती है। मिश्रण के आधार पर नये-नये किस्म के चित्र-विचित्र प्रभाव उत्पन्न होते हैं और मूल विशेषता एक प्रकार से समाप्त ही होती जाती है।

अन्नों में प्राकृतिक अन्न कहीं अधिक प्राणवान होते हैं। गेहूँ, चावल आदि की प्रचलित किस्में चित्र विचित्र संकरत्व करके, विलक्षण-विलक्षण खाद देकर-कलम बनायी विकसित की गयी हैं। फलतः आकृति मूल रूप से मिलती-जुलती रहने पर भी उनके गुणों में भारी अन्तर आ गया है। ऐसी दशा में अच्छा तो यही होता कि मनुष्य की करतूत अछूत वन्य प्रदेशों में अपने आप उगने वाले धान्यों का प्रयोग कल्प काल में किया जाय। ऐसे धान्यों में उत्तर प्रदेश की भूमि में सामाँ, मकरा, माल-काँगड़ी चना, महुआ जैसे जंगली अन्न कुछ समय तक पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न होते थे। गरीब लोग उन्हीं पर निर्वाह करते थे। वे अपेक्षाकृत अधिक पौष्टिक, सात्विक एवं गुणकारी होते हैं। जौ की एक प्राकृतिक किस्म ‘जई’ होती है। चावल में जंगली चावल को ‘साठी’ कहते हैं। इन सबके गुण पृथक्-पृथक् हैं। यदि इनमें से किसी एक अन्न का कल्प किया जा सके तो उसके चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होंगे।

कठिनाई एक ही है कि अब भूमि का उपयोग कीमती फसल उत्पन्न करने में होने लगा है। फलतः जंगली अन्नों के उत्पादन का क्षेत्र समाप्त होता चला जाता है। गरीब लोग भी अब उनके लिए प्रयत्न नहीं करते। फलतः वे अधिक पौष्टिक और सात्विक प्रजातियाँ क्रमशः लुप्त और समाप्त होती चली जा रही है। फिर भी उन्हें अन्न कल्प करना हो उन्हें इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि जिसका सेवन किया जाय वह सात्विक क्षेत्र में सात्विक खाद पानी से उत्पन्न किया गया हो। आजकल बूचड़-खानों का रक्त , मछली का खाद, मनुष्य के मल-मूत्र की खाद वाले एवं गन्दे पानी से सींचे गये अन्न अधिक मात्रा में उपजते तो हैं पर गुणों की दृष्टि से उनका स्तर घटिया एवं विकृत होता चला जाता है। रासायनिक खादें एवं कीट नाशक दवाएँ जब आहार का रंग बन जाती हैं तो पेट भरने के लिए उनका उपयोग भले ही होता रहे वे अल्प जैसे उच्चस्तरीय उद्देश्यों में प्रयुक्त होने योग्य रहती ही नहीं।

आहार की किस्म ही नहीं, उसका स्तर भी उत्तम हो तभी अभीष्ट उद्देश्यों की पूर्ति भली प्रकार होती है। पकाने वाले के व्यक्ति त्व का प्रभाव भी कम महत्व का नहीं। चाहे जैसी प्रकृति आदत वाले, अस्वस्थ, अस्वच्छ, दुष्ट, दुर्गुणी, मूर्ख, अनगढ़ व्यक्ति का बनाया-परोसा भोजन भी उस उद्देश्य की पूर्ति में बाधा ही डालता है, जिसके लिए कि कल्प साधना जैसी तपश्चर्या की योजना बनी है।

अन्न के बाद फल, ऋतु फल, एवं शाक का नम्बर आता है। जिनका अपना बगीचा है वे बिना कलम वाले पेड़ पर पके फल लेकर कल्प कर सकते हैं। बाज़ार में जो बिकते है उनमें से बहुत कम ऐसे है जिनका कल्प के लिए उपयोग हो सके। आमतौर से वे पेड़ से कच्चे तोड़े जाते है। समय बीतते-बीतते पक जाते है या भूसी-अनाज आदि में दबाकर पकाये जाते हैं। इनका स्वाद भले ही मीठा हो जाय गुणों की दृष्टि से वे नितान्त कच्चे ही होते है और लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाते हैं। कलमी आम, बेर, चीकू, जामुन, अमरूद आदि का इन दिनों खूब प्रचलन है। आकार का स्वाद उनका भले ही बड़ा रहे पर वे अपनी मौलिक विशेषताओं से कहीं अधिक दूर हट गये होते हैं। अस्तु उनके प्रयोग की उपेक्षा ही की जानी चाहिए। वे महँगे भी तो होते है।

फलों के बाद मौसमी फलों की बारी आती है। इनमें आम, शहतूत, लीची, शरीफा, अनानास, बेर, अमरूद आदि को चुना जा सकता है। खरबूजा, तरबूज अपनी किस्म के आम है ये भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं। शाकों में लौकी, तोर, परवल, टमाटर, गाजर, मूली, शलजम जैसी हलकी प्रकृति वाले ही लेने चाहिए। आलू, अरबी, शकरकन्द, जमीकन्द, रतालू आदि भी यों शाकों में गिने जाते हैं। वस्तुतः वे गुणों की दृष्टि से अन्न वर्ग में आते हैं, भारी पड़ते हैं। पत्तीदार शाकों में पालक, चौलाई, मेथी, सरसों ग्राह्य हैं पर उन्हें पूरे आहार की तरह पचाने की क्षमता किन्हीं-किन्हीं में ही होती है। जिनका पेट गड़बड़ाता है, उन्हें दस्त होने लगते हैं। पीपल, बरगद, गूलर, अंजीर किस्म के फल भी अपने प्रकृति के अलग ही हैं। महुआ का फूल भी इस प्रयोजन में आ सकता है पर इनका पूर्ण परीक्षण इसी प्रकार कर लेना चाहिए, जैसे कि पेनेसीलीन आदि के प्रयोग से पूर्व उसकी जाँचने या चमड़ी पर जाँच पड़ताल की जाती है। इनमें से किसी का प्रयोग करना हो तो पहले दस-पाँच दिन उन पर निर्भर रह कर पेट की क्षमता परख लेनी चाहिए। तब एक महीने की कल्प क्षमता में उनका निश्चित उपयोग करने की बात सोचनी चाहिए।

ये कल्प हर किसी से नहीं निभ पाते। अपनी मनःस्थिति अपने से नहीं सही आँकी जा सकती। मार्ग दर्शन से पूछे बिना किसी भी प्रयोग को आरम्भ न कर हर पक्ष पर पहले पूरा विचार कर लेना चाहिए। वर्णित धान्य फल, ऋतु फल, शाक आदि में से चाहे जो चुन लिया जाय ऐसा नहीं हो सकता। इन्हें उपचार की ही तरह प्रयुक्त किया जाता है इसके लिए निर्णय करने से पूर्व साधक की शारीरिक मानसिक स्थिति देखनी जाँचनी होती है। उपरोक्त खाद्यों में से प्रत्येक की अपनी-अपनी विशेषताएँ तथा खामियाँ हैं। इसी प्रकार किसी प्रकृति या परिस्थिति के लिए कोई वस्तु अनुकूल कोई प्रतिकूल पड़ती है। एक वस्तु सभी के लिए एक जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करें, ऐसा नहीं होता। इससे पेट के पाचक रसों को अभ्यस्त ढर्रे की भिन्नता के कारण एक ही खाद्य पदार्थ कई मनुष्यों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव छोड़ता है। इसलिए खाद्य की विशेषताएँ और उपयोगिताओं का अपनी भिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए अनुभवी व्यक्ति यों को ही यह निर्णय करना चाहिए कि किसे किस अन्न-शाक या फल आदि का कल्प कराया जाय। इसमें उपभोक्ता की रुचि के साथ भी तालमेल बिठाने की आवश्यकता पड़ती है। यदि कोई व्यक्ति किसी पदार्थ से सर्वथा अरुचि व्यक्त करे तो उसके उपयोगी होते हुए भी मनोवैज्ञानिक कारणों से वह उलटी प्रतिक्रिया प्रकट करती है। जो लोग प्याज-लहसुन नहीं खाते उन्हें उनकी गन्ध तक नहीं सुहाती और लाभ-हानि की चर्चा करने से पूर्व ही उन्हें पूर्वाग्रहों के कारण उलटी आने लगती है। ऐसी दशा में कल्प कैसे हो?

जड़ी-बूटी कल्प का अपना पृथक् विज्ञान है। किस व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप किस बूटी के रासायनिक पदार्थ उपयोगी पड़ते हैं। इसका तालमेल बिठाते हुए ही यह निर्णय करना पड़ता है कि किसके लिए किसका उपयोग समाधानकारक रहेगा।

कल्प साधना में आहार कल्प की तरह बूटी कल्प भी कराया जाता है। इसके लिए उसे एक महीने तक 50 ग्राम नित्य कल्क पेट में पहुँचाया जाता है। कल्क से तार्त्पय है-पतली चटनी। लगभग ठण्डाई से कुछ गाड़ी सीरप स्तर की। निर्धारित बूटी का कल्क प्रातःकाल खाली पेट लिया जाता है।

कल्प प्रयोजन के लिए पाँच बूटियाँ ली गयी हैं। (1)तुलसी (2)शंख पुष्पी (3)ब्राह्मी (4)शतावरी (5)अश्वगंधा। यों उनके अतिरिक्त कई कल्प व्यवस्था में आयुर्वेद में प्रचलित हैं जिनमें (1)त्रिफला (2)हरीतकी (3)पुनर्नवा(4)आँवला (5)दिधारा (6)गिलोय (7)सोंठ (8)बिल्व (9)निर्गुण्डी (10)मुशली आदि प्रमुख हैं। किन्तु उन्हें विशेष परिस्थितियों में-विशेष व्यक्तियों के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है। सामान्यतः उपरोक्त पाँच में से सभी अपने पुष्पों के अनुरूप सभी प्रकृति के व्यक्ति यों की काया तथा मानवीय संरचना के अनुसार सन्तुलन बिठाने में काम दे जाती है। युवा व्यक्ति यों को एक महीने में 50 ग्राम नित्य बूटी सेवन कराई जाती हैं। यह सेवन उतार-चढ़ाव का चांद्रायण पद्धति से होता है। प्रथम पन्द्रह दिन थोड़ी-थोड़ी करके मात्रा बढ़ाना और फिर बाद के पन्द्रह दिन में मात्रा को क्रमशः चढ़ाते चलना। कल्प प्रयोग की यह एक विशेष पद्धति है। बूटी कल्प में गंगाजल ही प्रयोग होता है। उसे पीसने-छानने-बनाते समय उस प्रयोजन के लिए निर्धारित नियमों का पालन करने वाले हाथ ही काम करते हैं। अन्नाहार एवं शाकाहार में पकने की पद्धति में भी अध्यात्म स्तर के साथ जुड़ी हुई पद्धतियाँ अपने-अपने प्रभाव का समावेश कर देती हैं और वह सामग्री अपने ढंग की आन्तरिक विशिष्टताओं से सम्पन्न हो जाती है।

पदार्थ के तीन स्वरूप हैं-ठोस द्रव तथा वायु। उसी को आहार में अन्न, जल और साँस के माध्यम से ग्रहण किया और जीवित रहा जाता है। इसी क्रम का स्तर बढ़ा दिया जाय तो उसकी प्रभाव परिधि स्थूल शरीर में आगे बढ़कर सूक्ष्म और कारण शरीर तक जा पहुँचती है कल्प साधना में वह आहार सेवन कराया जाता है जिसमें उसकी सूक्ष्म और कारण शक्ति भी संयुक्त रूप में सम्मिश्रित हुई हो। इस प्रकार उसे एक प्रकार का-तप साधन जैसा डडडड उपवास स्तर का-परम सात्विक एवं दिव्य औषधि जैसी विशेषताओं से युक्त करने का प्रयत्न किया जाता है। आहार की उत्कृष्टता एवं निर्माण तथा सेवन में जुड़ी हुई भावना का समावेश होने से उसका लाभ और भी अनेक गुना बढ़ जाता है।

अमृताशन में अन्न, बूटी कल्प और प्रज्ञापेय में जप तथा नित्य के अग्निहोत्र में सम्मिलित रहने पर वायुभूत आहार को मुख नासिका तथा अन्यान्य छिद्रों के माध्यम से भीतर पहुँचाया जाता है। यह समग्र समुच्चय ऐसा है जिसमें तीनों शरीरों के परिशोधन एवं संवर्द्धन-ये दोनों ही उद्देश्य भली प्रकार पूर्ण होते हैं। अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ मात्र व्यक्ति के अंग विशेषों का उपचार करती हैं और कारण समझे जाने वाले विष को अन्य विषाक्त द्रव्य से मारने का प्रयत्न करती है। किन्तु कल्प साधना में प्रयुक्त होने वाला आहार उपचार ऐसा है जिसमें मात्र निवारण-निराकरण नहीं वरन् परिवर्तन भी जुड़ा हुआ है।

अन्न को ब्रह्म कहा गया है। काया का समूचा ढाँचा प्रकारान्तर से खाद्य की ही परिणति है। व्यक्तित्व का गुण, कर्म, स्वभाव का-मूलभूत ढाँचा आहार के आधार पर ही बनता है। शिक्षा आदि से तो उस ढाँचे को संभाग संजोया भर जाता है। यही कारण है कि अध्यात्म विज्ञान में आहार की उत्कृष्टता की अन्तःकरण विचार तन्त्र एवं काय-कलेवर की पवित्रता प्रखरता को सर्वोपरि माध्यम माना गया है। व्रत उपवास में खाली पेट रहने के अतिरिक्त ऐसे पदार्थ सेवन करने का विधान है जो परम सात्विक हो तथा स्वल्प मात्रा के लिए गये हों। यह पद्धति कल्प साधना में अपनाई जाती है। इस प्रकार आहार साधना को एक प्रकार का उपवास समझा जा सकता है एवं इसके माध्यम से आत्म-परिष्कार की सम्भावना पर भली-भाँति विश्वास किया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118