कल्पसाधना की पृष्ठ भूमि और विधि व्यवस्था

November 1982

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इन दिनों शान्ति-कुँज में एक-एक मास के अल्प साधना सत्र चल रहे हैं। इस सम्बन्ध में सभी परिजनों को कुछ अधिक जानने की इच्छा उत्सुकता स्वाभाविक है। वस्तुतः यह प्राणवान जागृत आत्माओं के लिए कायाकल्प के समतुल्य ही सुखद सद्भावनाएँ प्रस्तुत कर सकने योग्य प्रक्रिया है। समय की एक गहरी आवश्यकता की पूर्ति में इससे असाधारण योगदान मिल रहा है। इस सम्बन्ध में अधिक जानना उनके लिए भी सामयिक जानकारी की दृष्टि से आवश्यक है जो उसमें सम्मिलित होने की स्थिति में नहीं हैं।

‘कल्प’ का अर्थ होता है-व्यक्ति त्व का उपयोगी परिवर्तन। आमतौर से चर्चा का विषय ‘काया कल्प’ ही रहा है। उसी का प्रधानतया उल्लेख एवं कथनों का क्रम चलता रहता है। कारण यह कि मनुष्य अपने आपको इन दिनों शरीर भर मानता है। लाभ हानि, प्रगति अवगति की एक ही कसौटी है-सुविधा साधनों में वृद्धि होने न होने की सफलता-असफलता जब शरीर ही व्यक्ति है तो उसको प्रभावित करने वाले साधन ही सब कुछ ठहरते हैं। उनका कौन कितना अर्जन उपयोग कर सकता है, इसी आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि कौन कितना सुखी, समृद्ध एवं सफल रहा? किसके ऊपर अभावों को दुर्भाग्य लदा?

जब मापदण्ड ही गड़बड़ा जाय तो मूल्याँकन में भूल होना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में यदि व्यक्ति त्व में उपयोगी परिवर्तन को, शरीर की स्थिति में उत्साहवर्धक हेर-फेर होने की बात को ही सब कुछ माना जाता हो तो इसमें कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है। काया कल्प का प्रचलित अर्थ है-बुढ़ापे या नवयौवन में बदल जाना अथवा दुर्बलता के स्थान पर बलिष्ठता का हस्तगत होना। इस सम्भावना की कुछ कथानकों-उदाहरणों से पुष्टि भी होती है। च्यवन ऋषि जराजीर्ण थे। सुकन्या के अनुरोध पर अश्विनीकुमारों ने उन्हें कोई दिव्य औषधि दी और उन्हें युवा बना दिया। ययाति को उनके एक पुत्र ने अपना यौवन दिया था और उनकी वृद्धावस्था स्वयं ओढ़ी। बाल खिल्म एवं वैरवानस ऋषि का उदाहरण प्रख्यात है। इस मान्यता या आकांक्षा को पूरा करने के लिये मध्यकाल में भी प्रयत्न होते रहे हैं। आयुर्वेद में इनकी चर्चा स्थान-स्थान पर है। इस संदर्भ में वमन, विरेचन, स्नेहन, संवेदन, वस्ति की पंचकर्म प्रक्रिया प्रख्यात है। साथ ही ऐसे रसायनों के सेवन का भी उल्लेख है जो पौष्टिकता बढ़ाते तथा सूखे मुरझाए को हरा-भरा करते हैं। परिशोधन और परिवर्धन की यह उभयपक्षीय प्रक्रिया अनेकानेक विधि-विधानों और क्रिया-प्रयोगों के साथ आयुर्वेद में लिखी है और उसकी परिणति का आयुर्वेद में ‘काया कल्प’ नाम दिया गया है।

पाश्चात्य शरीर शास्त्रियों ने भी इस मानवी आकांक्षा को ध्यान में रखते हुए अनेक स्तर के प्रयोग किए हैं। इनमें मनुष्यों से मिलती-जुलती शरीर रचना वाले बन्दरों की पौरुष-ग्रन्थियों का मनुष्यों आरोपण करना मुख्य है। इसमें सफलता भी मिली पर वह अस्थायी ही रही। लम्बी शीत निद्रा के उपरान्त थकान मिटाकर जीवकोषों को पुनः नये सिरे से काम करने का अवसर देना अभी सिद्धान्त ही स्वीकारा गया। उसका परीक्षण भर आरम्भ हुआ है। वह स्थिति नहीं आई जिसमें उसकी सफलता का विश्वास किया या कराया जा सके। कुछ अवयवों की शल्य क्रिया, आरोपण, परिवर्तन भी अभी प्रयोग स्तर पर ही है। उत्तेजक, पौष्टिक औषधियों के भी अनेकानेक प्रयोग हुए हैं। उनकी सफलता भी जादू-चमत्कार जैसी क्षणिक ही मिलती रही हैं। किसी प्रयोग के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि उससे स्थायी लाभ का सुयोग मिल गया।

इसी प्रयोग प्रयास में एक और कड़ी जोड़ने का अपना प्रयत्न जरा भी नहीं है। क्योंकि निर्धारित लक्ष्य का मापदण्ड ही गलत है। प्रकृति का परिवर्तन चक्र सुनिश्चित है। उसमें अन्तर आने का अर्थ है-सृष्टि का मूलभूत आधार ही उलट जाना। यदि कभी वैसा हुआ तो उसका आरम्भ वर्तमान सृष्टि को समाप्त करके किसी अन्य आधार पर विश्व व्यवस्था को नये सिरे से बनाकर ही हो सकता है। ऐसी हेर-फेर को महाप्रलय से कम नाम नहीं दिया जा सकता। उत्पादन, परिपोषण, क्षरण और परिवर्तन की धुरी पर ही पदार्थ और प्राणियों का निर्वाह क्रम चल रहा है। उत्पन्न होना, बढ़ना, ढलना और अन्ततः परिवर्तन को भट्टी में नये रूप में गलने ढलने के लिये चले जाना। सभी की यही गति है। यहाँ स्थिरता कहीं नहीं। गति चक्र की धुरी पर सभी को भ्रमण करना पड़ता है।

खोये स्वास्थ्य को पुनः सुधार लेना, यह टूट-फूट की मरम्मत जैसा और समझ में आ सकने योग्य है। चिकित्सा उपचार के माध्यम से ऐसा हुआ भी है और वैसा होता भी रहेगा बात इसी सीमा पर आकर रुक जाती है। उस आकांक्षा की पूर्ति में अभी कोई आशा की किरण दिखाई नहीं पड़ती जिसमें जराजीर्ण आयु वाले फिर से नवयुवक बनने में सफल हो सकेंगे। इस सन्दर्भ में एक आधुनिक प्रयोग दृष्टव्य है। महामना मालवीय जी को किसी तपसी बाबा ने काया-कल्प का आश्वासन दिया और प्रयोग किया था। कोसी (उ.प्र.) के निकट उन बाबा के आश्रम में इस प्रयोजन के लिए एक विशेष कुटी बनाई गई थी। उसी में चालीस दिन उन्हें हवा-धूप से बचते हुए रखा गया था और औषधियों का उपचार किया गया था। इस प्रयोग का परिणाम भी वैसा नहीं हुआ जैसी अपेक्षा की गई थी। ‘उपयुक्त उपचार का उपयुक्त प्रभाव’ एक सामान्य सिद्धान्त है। उस प्रयोग के संदर्भ में भी वैसा ही तो हुआ कोई आश्चर्यजनक ऐसा परिवर्तन नहीं हुआ जिसे कायाकल्प की प्रचलित मान्यता में सफलता मिलने जैसा कुछ कहा जा सके ।

शरीर क्षेत्र में काया-कल्प इतना ही सम्भव है कि आहार-बिहार में बरती जाने वाली अनियमितताओं अवाँछनीयताओं को रोकने के लिए होने वाले अस्वाभाविक क्षरण को रोका जा सके और लम्बी आयु तक निरोग रहते हुए जीवन क्रम को उत्साहवर्धक आनन्ददायक बनाया जा सके। मानवी काया की संरचना अन्यान्य जीवधारियों की तुलना में कहीं अधिक वरिष्ठ है। जब और सभी स्वच्छन्द प्राणी निरोग रहकर पूर्णायुष्य प्राप्त करते हैं तो कोई कारण नहीं कि अकेला मनुष्य ही आये दिन दुर्बलता और बीमारी का अभिशाप सहते हुए असमय बेमौत मरता रहे। इसमें आहार-बिहार की मर्यादाओं का उल्लंघन, मानसिक उत्तेजनाएँ उभारने वाले आवेश तथा रीति नियमों का व्यतिक्रम ही वह कारण है जिनका समन्वय शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य को भी मटियामेट करके रख देता है। यदि इतना सुधार सम्भव हो सके अवांछनीय आदतों का पुनर्निर्माण नये सके से हो सके तो इतने भर से काया-कल्प की पृष्ठभूमि बन सकती है। चिकित्सा के नाम पर कुछ हल्के-फुलके प्रयोग भी रही बची कमी पूरी कर सकते हैं। इस दृष्टि से प्राकृतिक जीवनचर्या सिखाने वाले कोई सेनेटोरियम बनें और उनमें स्वास्थ्य का महत्व समझाने वाले कुछ समय निश्चिन्ततापूर्वक रहें तो विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि वर्षों आये दिन की आधि-व्याधि सहते-कराहते खीजते रहने की अपेक्षा कुछ समय की यह आरोग्य साधना कहीं अधिक सस्ती पड़ेगी। उतावले लोग विषाक्त उत्तेजनाएँ चिकित्सा के नाम पर अंग-अवयवों में भरते और जादुई लाभ लेने के लिए बालकों की तरह मचलते रहते हैं। इस विडम्बना में वे पाते कम खोते अधिक है। रंग-बिरंगे चिकित्सकों के चित्र-विचित्र उपचार करते रहने पर भी आमतौर से देखा गया है कि “मर्ज बढ़ता ही गया-ज्यों-ज्यों दवा की” वाली लोकोक्ति ही चरितार्थ होती रहती है। इस कुचक्र से छूटने का एक ही उपाय है प्रकृति की ओर वापसी। जो इतना भर समझकर कुछ कर सकें तो वे अपने बलबूते अथवा दूसरों के राई रत्ती सहयोग से खोया स्वास्थ्य पा सकते हैं।

चर्चा यह थी कि शान्ति-कुँज के कल्प साधना सत्रों का जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गठन किया गया है उसका स्वरूप और प्रतिफल क्या है? अध्यात्म विज्ञान के आधार पर ‘कल्प’ शब्द का उपयोग आन्तरिक परिवर्तन के रूप में होना चाहिए। आन्तरिक का तात्पर्य है-दृष्टिकोण परक। मान्यता, आकांक्षा, विचारणा, कल्पना के समुच्चय को अन्तःकरण या अन्तराल कहते हैं। यही है व्यक्ति त्व का आधार। सभी लोग शरीर की दृष्टि से प्रायः एक जैसे होते हैं और उनके बीच जो जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है, वह लगता भर परिस्थितिजन्य है। उसका वास्तविक कारण मनः-स्थिति का स्तर ही होता है। “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।” “जो जैसा चाहता है, वैसा बन जाता है।” ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते है” आदि-आदि अगणित प्रचलित उक्तियाँ एक ही तथ्य को प्रकट करती हैं कि मनःस्थिति जैसी भी होगी, परिस्थितियाँ वैसी ही बनती चली जायेंगी। किसी का स्वस्थ-अस्वस्थ धनी-निर्धन विंज्ञ मूर्ख, समुन्नत अधः प्रतीत होना इस बात पर निर्भर है कि उसने अपनी मान्यताएँ और आदतें किस स्तर की बनाई हैं। साधन तो आदमी जिधर भी चलता है, उसी प्रकार के मिलते जाते हैं। सहयोगी भी वैसे ही जुट जाते हैं। विपन्न परिस्थितियों में उत्पन्न अगणित व्यक्ति संसार के इतिहास में मूर्धन्य होकर चमके हैं और साधन सम्पन्नों के अगणित वंशधर व्यसनी, अनाचारी होकर पूर्वजों के यश और धन की होली चलाते और अन्ततः दुर्गतिग्रस्त जीवन जीते देखे गये हैं। तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिपात करने से एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य के अन्तराल का स्तर ही उसकी प्रगति एवं दुर्गति के लिए एकमात्र उत्तरदायी है।

निदान सही होने पर उसका उपचार भी ठीक बन पड़ता है और व्याधि निवारण में देर भी नहीं लगती। शान्ति-कुँज के कल्प साधना सत्रों में इसी आन्तरिक परिवर्तन की विधि-व्यवस्था बनाई गयी है। एक माह की छोटी अवधि इतने महान प्रयोजन के लिये हैं तो नगण्य और उपहासास्पद। फिर भी लोगों की व्यस्तता और उतावली को देखते हुए उतना ही छोटा कार्यक्रम बनाया गया है जिसके आरम्भिक अनुभव मिल सके और भविष्य में उस मार्ग पर चलते रहने का संकल्प भरा साहस उभर सके। बिगाड़ने में कम और बनाने में अधिक समय लगता है। इस दृष्टि से जितने समय में जीवन का स्वरूप बिगाड़ा गया है, बनाने में उससे अधिक समय लगना चाहिए। पर लोगों की अधीरता को क्या कहा जाय जो हथेली पर सरसों जमने जैसा चमत्कार देखने से कम की कोई बात ही नहीं सुनना चाहते। अच्छा होता लोग ऐसे महान प्रयोजन के लिए न्यूनतम एक वर्ष की अवधि निकालें पर समय की विचित्रता में वैसा कुछ सम्भव नहीं दीखता। इसलिये ‘न कुछ से कुछ’ की नीति अपनायी गयी है और एक महीने का कल्प साधना का ऐसा उपक्रम अपनाया गया जिसमें पगडंडियों के लालच में अपनायी गयी भूल भुलैयों को छोड़ने और सर्वतोमुखी व्यक्ति यों को सहमत किया जा सके।

कल्प साधना में देवत्व के साथ सघन घनिष्ठता स्थापित करने वाली उपासना-मान्यताओं में-आदतों में उत्साहवर्धक परिवर्तन करने वाली जीवन साधना-एवं लोक व्यवहार को आनन्द उल्लास से सराबोर कर देने वाली आराधना का विविध समन्वय है। इसे अन्तःकरण, व्यक्ति त्व और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश करने वाली सुनियोजित प्रक्रिया कहा जा सकता है। मान्यताओं, आकांक्षाओं, विचारणाओं और आदतों को बदलने की कल्प प्रक्रिया उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जैसी कि बुढ़ापे को जवानी में बदलने वाले काया-कल्प के बारे में लोक-मान्यता प्रचलित है। न तो बुढ़ापा अभिशाप है और न जवानी वरदान। दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही है। दोनों का अपना समय, महत्व, उपयोग और गौरव है इसलिए शरीर का प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ परिवर्तन क्रम तो नहीं बदला जा सकता और न उसके बदलने की आवश्यकता ही है। आन्तरिक परिवर्तन की अपनी उपयोगिता है। यदि वह सही रीति से बन पड़े तो उसका लाभ काया-कल्प की तुलना में अपेक्षाकृत कहीं अधिक है।

कल्प-साधना में उन सभी तत्वों का समावेश किया गया है अन्तराल के स्तर में प्राकृत उत्कृष्टता उभरती और व्यवहार में पवित्र प्रखरता का ऐसा समावेश करती है जिसको उपलब्ध करने के उपरान्त व्यक्ति धरती से स्वर्ग में जा पहुँचने जैसा अनुभव कर सके।


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