सद्ज्ञान की, स्वाध्याय की, प्रज्ञा प्रेरणा की गरिमा समझने वाले पाँच एवं पच्चीस अन्यों के मिलने से बना हुआ तीस का स्वाध्याय मण्डल अपना कार्यारम्भ तो प्रज्ञा साहित्य पढ़ने-पढ़ाने से करेगा, पर उस छोटी परिधि तक सीमित नहीं रहेगा। ज्ञान यदि जीवन्त है तो वह कर्म के रूप में विकसित होगा ही। सड़ना तो घुन लगा बीज है। जिसमें जीवन मौजूद है उसके अंकुरित पल्लवित होने में किसी व्यवधान की आशंका नहीं है।
विश्वास किया जाना चाहिए कि स्वाध्याय मंडल के सदस्य अपने चिन्तन और चरित्र में-स्वभाव और दृष्टिकोण में ऐसा उत्साहवर्धक परिवर्तन करेंगे जिससे प्रज्ञा साहित्य की प्रखरता सिद्ध हो सके। यह पठन ऐसा है जो अन्तराल के मर्मस्थल तक पहुँचने के उपरान्त-कर्म क्षेत्र में उतरने की तड़पन उत्पन्न करता है। युग सन्धि जैसे ऐतिहासिक अवसर पर तो समय की चुनौती स्वीकार करने में जागृत आत्माओं का पौरुष उन्हें दबा-दबोच कर अग्रिम पंक्ति में खड़ा होने के लिए विवश करेगा। ऐसी उमंगें जिस भी अन्तःकरण में उठती हैं उसे सत्प्रयोजनों के लिए उदार अनुदान प्रस्तुत करने के लिए विवश करती हैं। आदर्शों से अनुप्राणित व्यक्ति मूक दर्शक बन कर नहीं बैठ सकते उन्हें पठन-पाठन से एक कदम आगे बढ़ाकर समयदान और अंशदान की श्रद्धांजलि से युग देवता की झोली भरनी पड़ती है। आपत्तिकालीन आवश्यकता हर विचारशील को बेचैन करती है और विपत्ति से जूझने में पड़ने वाले घाटे को सहन करने का शौर्य साहस उभारता है। स्वाध्याय मंडल के छोटे-बड़े सदस्य यदि सचमुच महाप्रज्ञा के प्रति निष्ठावान् बन सकें तो समझना चाहिए कि उनमें से प्रत्येक का कतृत्व हजारीबाग जिले को यशस्वी बनाने वाले अनगढ़ हजारी किसान की भूमिका निभाने में पीछे न रहने देगा। पिसनहारी यदि पुण्य परमार्थ के क्षेत्र में यशस्वी हो सकती है तो कोई कारण नहीं कि प्रज्ञा पाठक मात्र वाचक व्यसन को ही गले बाँधें बैठे रहे। युग निमन्त्रण पर कान न धरे ।
प्रज्ञा पाठकों की उमंग एक से बहुत बनने के रूप में उभरेगी। हर जीवन्त प्राणी से जब भी उभरेगी वह वंश वृद्धि में रस लेगा-उसका ताना-बाना बुनेगा-संयोग जुटायेगा और अन्ततः उस मार्ग पर कदम बढ़ाने के उपरान्त जो उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर आते हैं उन्हें खुशी-खुशी निभाएगा । जब वनस्पतियों से लेकर जीव-जन्तुओं की छोटी प्रजातियों तक में यह प्रकृति प्रेरणा अपना काम निर्बाध रूप से कर रही है तो कोई कारण नहीं कि प्रज्ञा प्रेरित आत्मायें अपने साथी सहयोगी बढ़ाने का प्रयत्न न करें। वंश में प्रजनन ही नहीं विचार शृंखला की पकड़ का विस्तार होना भी एक तथ्य है। गोत्र पूर्वजों से ही नहीं गुरु परम्परा से भी चलते हैं। प्रज्ञा साहित्य से जिन्हें नव-चेतना मिली है वे उसका कार्यक्षेत्र बढ़ाये बिना विस्तार किये बिना रह ही नहीं सकते। जब चोर लवार अपने साथी बढ़ाते चलते हैं तो कोई कारण नहीं कि स्वाध्याय मंडल के सदस्यों प्रज्ञा परिजनों को वैसा करने का उत्साह न उमंगें ।
एक से पाँच का प्रजनन-विस्तार-निरन्तर आगे बढ़ता रहेगा। यह महाकाल की प्रस्तुत प्रेरणा प्रवाह को देखते हुये एक प्रकार से निश्चित ही समझा जा सकता है। एक संस्थापक, जब पाँच साथी और पच्चीस सहयोगी ढूँढ़कर तीस की मण्डली देखते-देखते बना सकता है तो कोई कारण नहीं वह वंश वृद्धि आगे न चले। इतने पर ही समाप्त हो जाय।
प्रज्ञा अभियान के समर्थक, प्रशंसक तो आमतौर से सभी हैं। जो उसके प्रतिपादनों की व्यवहार में अवज्ञा करते हैं वे भी सिद्धान्तीय विरोध करने का साहस नहीं कर सकते। बात एक कदम आगे और बढ़ने की है जहाँ परिवार में प्रवेश करने और सहयोगी के रूप में कदम से कदम मिलाकर चलने, उत्तरदायित्वों से कन्धा लगाने का साहस दिखाना पड़ता है। मिशन के सदस्य या परिजन ऐसे ही लोग माने जाते हैं। उनके लिए अपने-अपने क्षेत्रों में सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में क्रियात्मक योगदान पड़ता है। इसके दो प्रकार हैं (1)समयदान (2)अंशदान। यह दोनों ही प्रस्तुत करने पड़ते हैं।
आज से 35 वर्ष पूर्व अभियान का आरम्भ हुआ था। तब सदस्यों का न्यूनतम अनुदान दस पैसा नित्य और समय एक घण्टा था। अब पैंतीस वर्ष में महँगाई कहाँ से कहाँ बढ़ गयी। साथ ही युग सन्धि में गतिविधियाँ तीव्र से तीव्रतर हो गयीं। ऐसी दशा में उपरोक्त दोनों अनुदानों का अनुपात भी बढ़कर कम से कम दूना तो हो ही जाना चाहिए। अब जागृत आत्माओं को हर दिन दो घण्टा और बीस पैसा निकालने चाहिए। यही है वह पूँजी जिसके आधार पर लोक मानस के परिष्कार-सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन और अनुपयुक्त प्रचलनों का आमूलचूल परिवर्तन किया जाना है। हर काम श्रम और साधन माँगता है। 450 करोड़ मनुष्यों की इस दुनिया को अब अवांछनीयता से उबारना और नव− सृजन के मोर्चे पर जुटाना है। 196,938800 वर्गमील व्यास के पृथ्वी के इस धरातल की परिस्थितियों का कायाकल्प करना है तो उसी परिमाण में श्रम और साधन लगेंगे।
यह कही से दबाव देकर मिलना नहीं है। भावनाशील जागृत आत्मा जहाँ अन्तःप्रेरणा का युग चेतना का दबाव अनुभव करेंगे वहीं से ये दोनों अनुदान भी स्वेच्छापूर्वक उभरेंगे और समय की माँग पूरी करने के निमित्त कारण बनेंगे, अपना ही नहीं अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वालों का सहयोग अर्जित करेंगे। स्वाध्याय मंडल की स्थापना में रही हो रहा है। संस्थापक एक उसके घनिष्ठ साथी नैष्ठिक सदस्य पाँच। फिर उसके समर्थक पाँच-पाँच इस प्रकार बीस की एक ऐसी मंडली का निर्माण जो युग धर्म के निर्वाह में या तो कटिबद्ध हो चली या होने वाली है। यह बीस गोबर के चौथ बने रहे, एक संस्थापक ही सदा सर्वदा कट पुतलियाँ नचाता रहे, ऐसा नहीं हो सकता। आशा की जानी चाहिए कि इनमें से भी अधिकाँश लोग ऐसे निकलेंगे जो दूसरों के कन्धों पर चढ़े रहने से आगे बढ़े। अपने पैरों आप चलें। दूसरों को अपने कन्धों पर बिठाये । इस प्रकार एक से पाँच की प्रक्रिया को स्वतंत्रतापूर्वक चलाने वाले कर्मवीर भी क्रमशः निकलते ही चलेंगे। वंश वृद्धि सन्तानोत्पादन के क्षेत्र में ही रोकी जाती है। विचार क्रान्ति के क्षेत्र में ही यह एक से पाँच का क्रम अपना कर सुनिश्चित रूप से चलना चाहिए।
(1)1 से 5 (2)5 से 25 (3)25 से 125 (4)125 से 725 (5)725 से 3625 (6)3625 से 18125 (7)18125 से 90625 (8)90625 से 273125 (9)273125 से 1365625 (10)1365625 से 6828125 (11)6828125 से 34140625 (12) 34140625 से 170703125 (13) 170703125 से 853515625 (14) 853515625 से 4268068125। चौदहवीं पीड़ा पर पहुँचते-पहुँचते यह एक से पाँच का क्रम प्रायः उतना ही हो जाता है जितना कि संसार भर की जनसंख्या। वस्तुतः सुधारना सम्भालना तो इनमें से एक तिहाई को ही है क्योंकि समर्थ सक्षम तो प्रायः उतने ही है। दो तिहाई तो बच्चों-बूढ़ों अल्पवयस्क, रोगी, अपंग आदि होते हैं। इस प्रकार एक विचार पीढ़ी उत्पन्न होने में एक वर्ष से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। स्वाध्याय मंडल के पाँच नैष्ठिक सदस्य यदि एक वर्ष में अपने-अपने स्वतन्त्र पाँच स्वाध्याय मण्डल बनाले तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। हर व्यक्ति की अपनी प्रतिभा है हर व्यक्ति का अपना संपर्क क्षेत्र है। उसका उच्च उद्देश्य के लिए संकल्पपूर्वक प्रयोग बन पड़े तो अनपढ़ हजारी किसान की तरह हजार न सही पाँच बगीचे। पाँच बगीचे ही न सही पाँच पेड़ तो उगा ही सकता है। युग परिवर्तन नव निर्माण का यही तरीका सरल और व्यावहारिक है। बड़े आदमी, बड़े प्रभाव और बड़े साधनों से बड़े काम करें उसका औचित्य है, पर उनके लिए रुका तो नहीं जा सकता। नौ मन तेल जुटने पर राधा का नाच होने की प्रतीक्षा में कब तक बैठे रहा जाय। जेब की माचिस जलाकर पैर में चुभे काँटे को तो तुरन्त निकालना पड़ता है। सुराही-गिलास ढूँढ़कर तुरन्त गला गीला करना पड़ता है। इसके लिए माचिस की एक तीली का एवं एक गिलास पानी का आर्थिक दृष्टि से न सही उपयोगिता की दृष्टि से बहुत बड़ा मूल्य है।
साधनों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि श्रम की। दो घण्टा रोज समय देने में एक व्यक्ति का तप वर्ष में 720 घण्टे होता है। इसे प्रायः 100 पूरे दिन मान सकते हैं। यदि प्रज्ञा परिवार के 1 लाख प्राणवान-प्रज्ञा पुत्र इतनी छोटी श्रद्धांजलि नियमित रूप से युग देवता के चरणों में अर्पित करने लगें तो ये वर्ष में 1 करोड़ दिन होते हैं। इन्हें 360 दिनों में विभाजित किया जाय तो प्रतिदिन प्रायः 20 हजार लोकसेवी प्रतिदिन सृजन प्रयोगों में जुटे रहने जैसी चमत्कारी शक्ति हाथ लग सकती है। यही बात 20 पैसा प्रतिदिन के सम्बन्ध में भी है। एक लाख व्यक्ति हर दिन इतनी छोटी राशि निकालें तो उसका योग हर दिन 20 हजार तथा महीने में 6 लाख रूपया होता है। यह राशि कम भी है और अधिक भी। कम इसलिए कि 450 करोड़ को अगणित समस्याओं से उबारना है। अधिक इसलिए कि भाव भरे अनुदान, और उनका सर्वश्रेष्ठ उपयोग बन पड़े तो इतने भर से नव सृजन का ऐसा तूफानी आन्दोलन खड़ा हो सकता है जिसके प्रवाह में असंख्यों तिनके, पत्तों और धूल कण आकाश चूमते और घोड़े की चाल दौड़ते दृष्टिगोचर होने लगे।
प्रज्ञा परिवार में एक लाख नहीं बीस लाख नाम हैं पर हैं, उनमें से अधिकाँश भावना शून्य है। इसलिए अनुदान का वचन तो देते हैं पर निभाते नहीं। इनकी प्रसुप्त भावनाओं को झकझोरने का काम प्रज्ञा साहित्य के नियमित स्वाध्याय से कम में और किसी प्रकार बन नहीं पड़ेगा। बात वर्तमान सूची की नहीं। उसमें यदि निष्क्रियों का बाहुल्य मान लिया जाय तो भी यह भावना की जा सकती है कि स्वाध्याय मण्डलों के माध्यम से जो तीस-तीस की मण्डलियाँ बने भी उनमें आधे चौथाई अवश्य भावनाशील निकलेंगे और कम से कम न्यूनतम अनुदान प्रस्तुत करने की उदारता तो दिखायेंगे ही। फिर सभी इतने कृपण कहाँ होते हैं जो बीस पैसे से अधिक की उदारता न दिखा सकें। पारिवारिक उत्तरदायित्व से निवृत्त, आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी, जिन पर उपार्जन की जिम्मेदारी लदी ही नहीं, ऐसे अगणित व्यक्ति हो सकते हैं जो दो घण्टे की बात क्या, सोने खाने के घण्टे छोड़कर युग धर्म के निर्वाह में अंगद, हनुमान् की तरह-भीम अर्जुन की तरह-अहर्निश जुटे रह सकें। यह चर्चा मात्र एक लाख को जागृत आत्माओं की श्रेणी में मिलाकर की जा रही है। यदि वह संख्या बीस गुनी हो सके। बीस लाख तक पहुँच सके तो अपना प्रज्ञा परिवार ही समूची मानवता को प्रस्तुत विभीषिकाओं से उबारने और उज्ज्वल भविष्य के सपने साकार करने में पूरी तरह सफल हो सकता है।
युग परिवर्तन कोई जादू नहीं है। वह न तो लकड़ी घुमाकर पिटारी में से निकलने वाला है और न देवता उसे पुष्प वर्षा की तरह धरती पर बिखेरने वाले हैं। उसके लिए जागृत आत्माओं को रीछ वानरों की तरह कठोर समर्पित जीवन जीना और कठोर श्रम करना पड़ेगा। व्यक्ति और समाज के समझ हजार समझेंगे विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ प्रस्तुत हैं। उन्हें निरस्त करने के लिए अंवाछनीयताएँ के साथ जमकर लोहा लेना है। अशिक्षा, गरीबी, रुग्णता, और हीनता से ग्रसित मानवता को उबारने का-सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का-गोवर्धन उठाना है। प्रवाह को बदलना है। प्रचलनों को उलटना है। चिन्तन का परिमार्जन और चरित्र व्यवहार में नये सिरे से शालीनता को प्रतिष्ठापित करना है। इस बहुमुखी सृजन प्रयोजन के लिए अगणित भावभरे युग शिल्पी चाहिए। उन्हीं को उगाने, सींचने और पकाने के लिए प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत स्वाध्याय मण्डलों को इन दिनों प्रमुखता दी जा रही हैं। कल्प साधना के साधकों को अपना चरम पुरुषार्थ इस केन्द्र बिन्दु पर नियोजित करना चाहिए। अपने प्रभाव क्षेत्र में इन्हें अधिकाधिक संख्या में बनाने-उन्हें सुनियोजित ढंग से चलाने एवं इस निमित्त जिन साधकों की आवश्यकता है उन्हें जुटाने के लिए भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। इस उदार सेवा साधना को अपनाकर वे भूल का प्रायश्चित्त परिमार्जन तथा भविष्य निर्धारण के निमित्त आवश्यक पुण्य परमार्थ का उत्साहवर्धक अर्जन कर सकेंगे।