प्रज्ञायोग की आत्मबोध, तत्त्वबोध प्रक्रिया

November 1982

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आत्मिक प्रगति का एक ही मार्ग पिछली योनियों में रहते समय जो पिछड़े संस्कार चेतना भूमि में जड़ जमाकर जहाँ-तहाँ बैठे हुये हैं उनका उन्मूलन किया जाय और देवी प्रवृत्तियाँ जो अभी तक समुचित परिणाम में अभी तक प्राप्त नहीं हो पाई उन्हें प्रयत्नपूर्वक अपनाया और बढ़ाया जाये। किसान वही करता है पिछली फसल के ठूँठों, झंखाड़ों को खोद-खोदकर ढूँढ़ना, ढूँढ़कर एक स्थान पर एकत्र करना और उन्हें आग लगाकर जला डालना-इतना करने के बाद खेत को खाद पानी देते-जुताई गोढ़ाई करते हैं तब कहीं बीज डालने का अवसर आता है। इससे पूर्व ही कोई बीज बिखेरने की मूर्खता तो कर सकता है पर उस स्थिति में उसे प्रतिफल प्राप्त करने की उसी तरह आशा नहीं करनी चाहिये जिस तरह सूखे आकाश से जल वृष्टि की कल्पना करना व्यर्थ होता है। आत्म-साधना भी ऐसी ही कृषि है जिसमें उपज के लिये किसान जैसी कलाकारिता से कम में काम नहीं चलता।

आत्मिक प्रगति का भवन चार दीवारों से मिलकर बनता है, चार स्तम्भों के सहारे खड़ा होता हे उन आधारभूत चार पाओ को आत्म-चिन्तन आत्म-सुधार (3)आत्म निर्माण तथा आत्म-विकास के नाम से पुकारा जाता है। इन चारों में से किसी एक को भी छोड़कर आगे नहीं बड़ा जा सकता। भोजन के साथ जल की आवश्यक है शाक और फल भी, अकेले धोती या कुर्ता वेषभूषा परिपूर्ण नहीं बनाते उनके साथ टोपी और बनियान हो तो पूर्णता आती है इन चारों में से एक भी ऐसा नहीं जिसकी उपेक्षा कर के आत्मिक प्रगति के पथ पर आगे बड़ा जा सके।

1—आत्म चिन्तन

आत्म चिन्तन का अर्थ है-आत्म-समीक्षा अपना शवच्छेद। प्रयोगशालाओं में पदार्थों का विश्लेषण वर्गीकरण करके देखा जाता है इसमें कौन-कौन से तत्व मिले हैं, पोस्ट मार्टम में यह देखा जाता है आखिर मृत्यु शरीर के किस अंग में चोट और अवरोध उत्पन्न होने के कारण हुई। आत्म-चिन्तन का अर्थ यह ढूँढ़ना है कि परमात्मा की दी हुई विभूतियों और अमानतों का कितने अंश में सही उपयोग हुआ। हर श्रेष्ठ मनुष्य को दिनचर्या में सुव्यवस्थित श्रम की दृष्टि से कुशल चिन्तन की दृष्टि से दूरदर्शी विवेकवान। आत्मानुशासन की दृष्टि से प्रखर व्यक्तित्व की दृष्टि से आत्मावलम्बी व आत्म सम्मानी होना चाहिये। ऐसा तभी सम्भव है जब आन्तरिक विभूतियों का और बाह्य साधनों का सदुपयोग हो। आत्म चिन्तन में अपने गुण स्वभाव और कर्म की कड़ाई के साथ परीक्षा करनी पड़ती है उसमें आत्मा को दीन-दलित बनाने वाले तत्व तो नहीं आ घुसे। उन्हें एक-एक करके खोज निकालना और मार भगाने का उपक्रम बनाना ही चिन्तन है।

ऐसा करते समय शरीर और आत्मा को भिन्न न माना गया, दोनों के हितों का वर्गीकरण न किया गया तो शरीर की अनावश्यक माँगों को, इन्द्रिय लिप्साओं को आत्म-हित मान लेने की भूल होती रहेगी। स्मरण रहे चरित्र और व्यक्तित्व को ऊँचे उठाने वाले प्रामाणिकता को खरा सिद्ध करने वाले आदर्श कर्तृत्व ही आत्मा की विभूतियाँ हैं उनके विकास की कल्पना करना ही सच्चे अर्थों में आत्म चिन्तन कहा गया है।

इस प्रक्रिया को वैयक्तिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन करके ही पूरा किया जा सकता है यह आत्मिक प्रगति का दूसरा चरण है। परमात्मा का प्रकाश जहाँ भी प्रकट होगा वहाँ सर्वप्रथम दुष्ट दुर्बुद्धि पर कुठाराघात होगा, अज्ञान अन्धकार मिटेगा वह आदतें जो अब तक अपनी प्रसन्नता का कारण बनी हुई थीं और बार-बार ललचाती रहती थीं उनकी निरूपयोगिता तुरन्त सिद्ध हो जाती है वे स्वतः निरर्थक उगने लगती हैं और उन्हें निकाल बाहर करने का साहस भी उमड़ने लगता है।

तो भी यह कार्य उतना आसान नहीं। इन्द्रियों का दमन होने पर वे मरती नहीं और अधिक उत्तेजित हो उठती हैं उस स्थिति में मानसिक सन्तुलन और दृढ़ता बनाये रखना, बार-बार वैराग्य भावना मस्तिष्क में उपजाते रहना आवश्यक है तभी आत्म-सुधार का क्रम पूरा होता है। इसमें निर्दयता भी अपनानी पड़ती है, तप तितीक्षा इस प्रचलित ढर्रे में परिवर्तन का ही दूसरा नाम है। यह दूसरा चरण उठ जाने पर प्रगति का चक्र गतिशील हो उठता है।

आत्म निर्माण का तीसरा चरण है आत्म निर्माण-अर्थात् श्रेष्ठ सज्जनों के गुण, कर्म, स्वभाव की जो विशेषताएँ होनी चाहिये उनकी पूर्ति के लिये योजनाबद्ध प्रयत्न। कँटीली झाड़ियाँ हटाई भर जायें तो एक ओर झाड़ियों के फिर से जड़ पकड़ लेने की आशंका रहेगी तो दूसरी ओर फूलों के खिलने से जो सुवास और सौंदर्य उपलब्ध होने वाला था वह भी हाथ नहीं आ सकता। बीमारी दूर हो गई यह आधा काम हुआ, अब स्वास्थ्य संवर्द्धन की व्यवस्था भी हो, व्यायाम भी हो टहलना और पुष्टिकारक आहार भी आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में सद्गुणों के परमार्थ के गुणों को धारण करके यह प्रतिष्ठापना की जाती है व्रत धारण किये जाते हैं श्रेष्ठता संवर्द्धन के संकल्प उबारे जाते हैं और उन पर चल पड़ने का अभ्यास किया जाता है तभी इस तृतीय चरण की पूर्ति होती है।

आत्मोत्कर्ष की अन्तिम भूमिका आत्म-विकास की है। सन्त, शहीद और सुधारक इस चतुर्थ भूमिका के ही उपादान होते हैं। चौथेपन में संन्यास का विधान शास्त्रों में है वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते ज्ञान, कर्म, भक्ति पक जाते हैं। जीवन की नश्वरता आत्मा का अविनाशी भाव स्पष्ट हो जाता है, सारा समाज एक कुटुम्ब और सम्पूर्ण सृष्टि अपने घर जैसी लगने लगती है। विश्व बन्धुत्व और वैराग्य की भावनाओं को इस स्तर तक पहुँचा देने से जिस तरह संन्यासी का जीवन समाज के लिये समर्पित हो जाता है उसी तरह की भावना इन चतुर्थ भूमिका में पहुँचने के लिये अपनानी पड़ती है। अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं, नाम, यश, पथ प्रतिष्ठा को नितान्त हेय मानकर अपनी क्षमताओं के सच्चे हृदय से लोक-कल्याण में उपभोग की रूपरेखा बनानी पड़ती। धर्म, समाज और संस्कृति के लिये काम करने में रस लेना पड़ता है आत्म-विश्वास की यह चतुर्थ भूमिका जितनी परिपक्व होती जायेगी जीवात्मा उतने ही अंशों में महात्मा, देवात्मा और परमात्मा के रूप में विकसित होती चली जायेगी।

कल्प साधना में आत्म-विकास के इन चारों ही खण्डों की पूर्ति के लिये उपयुक्त उपकरण, वातावरण और साधनाओं का अभ्यास कराये जाने की व्यवस्था की गई है।

एकान्त सेवन अन्तर्मुखी जीवनचर्या का अभिनव अभ्यास कराने की दृष्टि से आवश्यक माना गया है। इसे गुफा प्रवेश की उपमा दी जाती है। तपश्चर्यओं में एक गुफा प्रवेश भी है। सब ओर से अपने को समेट कर आत्म केन्द्रित होने-अन्तःजगत में प्रवेश करने-आन्तरिक पर्यवेक्षण एवं परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने के लिए वातावरण नितान्त आवश्यक है। आमतौर से मन बहिर्मुखी रहता है। बाहर के जाल-जंजाल बुनता रहता है। फलतः आत्म विकृति बढ़ती जाती है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित हेरा-फेरी ही सब कुछ बन जाती है और अपना स्वार्थ ओछे लक्ष्य तक विस्तृत हो जाता है। शरीर और उससे सम्बन्धित साधना ही व्यक्ति की सब कुछ बन जाते हैं। अपने आपे का होश हवास खो बैठने वाले मद्यप जिस प्रकार बेतुके आचरण करते हैं प्रायः वही स्थिति मानसिक क्षेत्र में ध्वामोहग्रस्तों की होती है। इसी झुठलाने-छलावे को माया कहा जाता है। माया के बन्धन अति निविड़ माने जाते हैं।

व्यामोह से-भव बन्धन से उतरने के लिए भी चार उपाय हैं। दो बाह्य दो आन्तरिक। बाह्य निर्भरता वाले स्वाध्याय एवं सत्संग है। आत्म निर्भर दो हैं-एक चिन्तन दूसरा मनन। इन चारों को चारपाई के चार पाये कहा जात सकता है। हाथ, पैर, धड़, सिर-इन चार भागों में शरीर विभक्त है। इसी प्रकार आत्म-निर्माण के लिए भी इन चारों का मनोयोग के साथ अवलम्बन करना पड़ता है। एकान्त एक कमरे की व्यवस्था इसी के लिए बनी है कि साधकों को उपयुक्त वातावरण में उपयुक्त अभ्यास करने में सुविधा रहे। उपरोक्त चारों अभ्यासों में से स्वाध्याय के लिए तो एक घण्टा आठ से नौ बजे तक का निर्धारित है। सत्संग के क्रम में प्रातः छः बजे नादयोग के साथ-साथ अपने कमरे में ही फिट किये गये स्वतन्त्र लाउडस्पीकर पर गुरुदेव का प्रवचन सुनने को मिल जाता है। इसके अतिरिक्त बारी-बारी से साधकों की वर्गीकृत टोलियाँ बारह से एक तक गुरुदेव के पास व्यक्ति गत परामर्श के लिए पहुँचती है। मार्गदर्शन का सामूहिक भाषण प्रवचन तो अब नहीं होते पर नियत समय पर आवश्यक विषयों पर परामर्श करने की अभी भी छुट है। इस अवसर पर पारस्परिक वार्तालाप और विचारों का आदान-प्रदान भी हो जाता है। सत्संग इतना ही पर्याप्त माना गया है। हजम हो सके तो इतना ही पर्याप्त है। इस कान से सुना उस कान से निकाला वाली अन्यमनस्कता चले तो फिर सारे दिन बकवास करते और सुनते रहते भी कुछ लाभ नहीं। अध्यात्म तत्त्वदर्शन के कुछ सीमित सूत्र हैं उन्हीं को हृदयंगम करने और स्वभाव का अंग बनाने और व्यवहार में उतारने से बात बनती है। अन्यथा वाक् विलास की तरह समय क्षेप के लिए घण्टों तथाकथित सत्संग जहाँ तहाँ चलते ही हैं। स्पष्ट है कि चिकने घड़ों जैसे श्रोता और मेंढकों जैसे टर्राने वाले वक्त अपने समय की ही बर्बादी करते हैं। शान्ति कुँज में ऐसी छूट नहीं है यहाँ अन्तरंग प्रभावित करने वाले प्राणवान वातावरण का विकास करने में पूरी सतर्कता बरती गई है।

स्वाध्याय की तरह चिन्तन, मनन को परिष्कृत प्रखर और प्रगाढ़ बनाना भी आवश्यक है। कल्प साधना की अवधि में तीन दृश्य आँखों के सामने घूमते रहने चाहिए। इनमें एक है-भवसागर में डूबना, मगरमच्छों द्वारा निगलकर उदरस्थ किए जाने से पूर्व नौका पर अवस्थित महाप्रज्ञा द्वारा उबार लिया जाना। दूसरा है-हाथ में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी, गले में लौह जंजीर की जकड़न, बढ़ने और करने में असमर्थता, दिव्य लोक से चक्र सुदर्शन का उतरना और उन बन्धनों को काटकर भव-बन्धनों से मुक्त कर देना। तीसरा है-सघन अन्धकार को छोड़कर उत्कृष्टता के चरम लक्ष्य प्रकाश केन्द्र तक पहुँचने वाली सीढ़ी पर एक− एक कदम उठाते हुए ऊपर उठना, आगे बढ़ना। क्रमशः लक्ष्य बिन्दु के समीप पहुँचते जाना। यह तीनों चित्र गायत्री चित्रावली में दिए हुए हैं। उन्हें बार-बार निहारते रहने से यह भाव-चित्र और भी अधिक सजीव होते जाते हैं। बार-बार उन्हीं का ध्यान करने, उन्हीं पर मन जमाते रहने से अपनी स्थिति तथा स्तर का ज्ञान होता है। दुःखद दुर्गति तथा सुखद सम्भावनाओं के मध्य आज की अपनी चयन कुशलता की परख होने वाला भाव उठता है। यदि उत्कृष्टता के लक्ष्य तक पहुँचना है तो साथियों की तलाश छोड़कर एकाकी बढ़ चलने का विवेकवान् साहस जुटाना है। यही है अपनी परिस्थितियों का भावात्मक चित्रण जिसके सहारे अपने आज के निर्धारण को बल मिलता है। उपरोक्त तीनों चित्र कल्प-साधना के दिनों अधिकाधिक समय तक भावना-क्षेत्र पर आरूढ़ रहने चाहिए।

मात्र शरीर के लिए जिया जाने वाला, वासना, तृष्णा, अहंता की अथाह गहराई वाला गर्त ही भवसागर है। उससे उबरने के लिए दूरदर्शी विवेकशीलता-महाप्रज्ञा का अंचल पकड़ना होता है। वैसा न करने पर रोग, शोक, पतन पराभव के मगरमच्छों द्वारा निगलना और दुर्गतिग्रस्त बनाया जाना निश्चित है। इस विभीषिका से बचने में ही कुशलता है।

भव बन्धन-लोभ मोह, विलास, अहंकार है। इन्हीं के लौहपाशों में जकड़ा मनुष्य बन्दी गृह की यातना सहता है। अपंग, असमर्थ जैसी गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहता है। इसे आदर्शवादी संकल्प साहस को चक्र सुदर्शन ही काटने में समर्थ है। इस ब्रह्मास्त्र को कल्प-साधना के दिनों में सम्भावित अनुदान माना जाना चाहिए।

पतन स्वाभाविक है। उत्थान के लिए एकाकी पराक्रम का ही आश्रय लेना पड़ता है। ईमान और भगवान की सहायता से ही इस मार्ग पर चल सकने का बल पैरों में आता है। यह बल देवत्व का है। इसे सद्गुरु परब्रह्म परमात्मा से ही प्राप्त किया जा सकता है।

उपरोक्त तीनों कल्पना चित्रों के साथ यह संगति भी बिठानी चाहिए कि उबारने वाली नौका, बन्धनमुक्त करने वाला चक्र और लक्ष्य तक ऊँचा उठा ले जाने वाला अनुदान कल्प साधना के दिनों अपने ही इर्द-गिर्द उपलब्ध है। उसे हस्तगत करने के लिए इन दिनों अपने भावभरे प्रयास प्राणपण से चलने चाहिए और इस सुयोग-संयोग का परिपूर्ण लाभ मिलना चाहिए।

कल्प साधना काल में इसी प्रकार के उच्चस्तरीय विधेयक विचारों को मन में भरे रखा जाय ताकि अभ्यस्त अनगढ़ चिन्तन को निरस्त कर सकना सम्भव हो सके। संयम, अनुशासन और सृजन की कसौटी पर खरे सिद्ध होने वाले विचार ही इन दिनों अपनाएँ जाएँ। शेष को विजातीय तत्व मानकर उन्हें दूर ही रखा जाय।

समग्र जीवन की इस रीति-नीति को भुला न दिया जाये उसके लिये कल्प साधना सत्र में आत्मबोध और तत्त्वबोध के दो अभ्यास सिखाये जाते हैं आत्मबोध प्रातःकालीन अभ्यास है। प्रातःकाल बिस्तर से सोकर जागते ही बिस्तर पर ही पूर्वाभिमुख, पालथी मार कर ध्यान मुद्रा में बैठें। तीन बार लम्बे-लम्बे श्वास लें और धीरे-धीरे साँस बाहर निकाल दें। साँस इतनी गहरी लें कि वह नाभिचक्र तक भर जाये। तीन बार यह क्रिया करने के उपरान्त अँगड़ाई लें और पुनः ध्यान मुद्रा में चले जायें अपने इष्ट को सम्मुख हुआ अनुभव करें यह नया जन्म हुआ है। परमात्मा के दिये हुए इस उपहार के मानवोचित गरिमा के साथ जियेंगे। पिछले दिन पिछले जन्मों में भूलों की पुनरावृत्ति नहीं होने देंगे दिन भर की दिनचर्या ऐसी रहेगी जिसमें सामान्य कृत्यों में भी असामान्य भावना परमार्थ परायणता के भाव जुड़े रहेंगे। मनुष्य को अन्य जीवों की तुलना में अधिक अनुदान और उपहार परमात्मा ने दिये है उसे कृतज्ञतापूर्वक स्मरण रखेंगे और ऐसा कोई कार्य न करेंगे जिससे पश्चात्ताप का सन्ताप भुगतना पड़े स्वयं को आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने के साथ-साथ संपर्क में आने वाले सभी व्यक्ति यों के साथ सज्जनता शिष्टाचार और उदारता का भाव बनाये रखेंगे।

इन्हीं भावनाओं से भरे हुए सर्वप्रथम धरती माँ का तीन बार चरण वन्दन करें और कल्पना करें हमारा जीवन धरती माता के समान ही सहनशील, उर्वर और परोपकारी बना रहेगा। इसके बाद शैया का परित्याग कर दें और दैनिक कृत्य में लग जायें। आत्म-बोध के इस अभ्यास में कुल 15 मिनट लगते हैं, पर यदि इन आदर्शों को सच्चाई से धारण कर लिया गया तो जंग लगे लोहे जैसा जीवन पारस र्स्पश से सोना बन जाने जैसी महान् उपलब्धि से विभूषित हो सकता है।

तत्त्वबोध की साधना रात्रि के समय के लिए निर्धारित है इसमें भी आत्मबोध जितना ही 15 मिनट का समय लगता है। रात्रि को सोने से पूर्व शैया पर पड़े-पड़े जीवन के अन्त का स्मरण करें। मृत्यु को अनिवार्य अतिथि मानें। उसके उपरान्त ईश्वर के दरबार में पहुँचने और जीवन सम्पदा के सदुपयोग-दुरुपयोग के सम्बन्ध में लेखा-जोखा माँगे जाने की बात सोचें। बरते हुए प्रमाद की परिणति निकृष्ट योनियों में भटकने, यन्त्रणाएँ सहने और पतन पराभव के गर्त में गिरने की यथार्थता को समझें। लोक के साथ परलोक को भी जोड़ें। वर्तमान ऐसा बनायें जिससे निर्वाह ही नहीं भविष्य भी सधे। सोते समय इन्हीं भावनाओं को लेकर चिर निद्रा की तरह दैनिक निद्रा की गोद में चले जायें। आज के दिन की समीक्षा करें। बन पड़े दोष दुर्गुणों का पश्चात्ताप प्रायश्चित्त करें और कल के लिए ऐसा विचार करें कि इसे आज की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाना है। यह तत्त्वबोध साधना निद्रा से पूर्व पन्द्रह मिनट तो चलना ही चाहिए। उसमें कल्पना को चिन्ह पूजा जैसी विडम्बना नहीं यथार्थता जैसी अनुभूति रहनी चाहिए।

प्रज्ञायोग के उपरोक्त प्रयोगों को कल्प साधना सत्र समाप्त होने के उपरान्त भी नियमित रूप से जारी रखना चाहिए। समय का अभाव रहे तो 11 माला के स्थान पर 3 या 5 माला का नियम भी संकल्पपूर्वक चलाया जा सकता है। संकल्प पूर्वक से तात्पर्य है उसकी नियमितता का निर्वाह। इसमें अनुशासन का समावेश रहे, इसलिए निभाया जाना चाहिए। व्यस्तता में साधना का समय कम किया जा सकता है। स्नान आदि न बन पड़े तो जिस भी स्थिति में रहना पड़े उस स्थिति में मानसिक रूप से भी उसे किया जा सकता है। प्रधानता अनुशासन की है। अपना संकल्प अखण्ड बना रहे यही प्रयास हो, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो।


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