उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए उपयुक्त वातावरण

November 1982

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विशिष्ट स्तर के परिवर्तनों के लिए जहाँ उपयुक्त उपचार पद्धति, प्रयोग अधिकारी तथा आवश्यक साधन उपकरणों की आवश्यकता होती है, वहाँ परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना पड़ता है। स्थान और समय की बता ऐसी ही है, जिसे ध्यान में रखते हुए योजना में हेर-फेर करना पड़ता है। टीलों पर बाग लगाना-रेगिस्तान में खेती करना-दल-दल में नगर बसाना-इच्छा होते हुए भी नहीं बन पड़ता। इसके लिए समस्त साधन होते हुए भी स्थान बदलना पड़ता है। हर काम हर स्थान पर नहीं हो सकता। बहुत-सी दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ ऐसी हैं, जो ठण्डे या गरम प्रदेशों में ही उत्पन्न हो सकती हैं। उन्हें विपरीत वातावरण में लगाया जाय तो मेहनत और लागत बेकार चली जायेगी। अभीष्ट परिणाम की स्थिति बनेगी ही नहीं।

कल्प साधना के लिए सर्वप्रथम उपयुक्त वातावरण देखना पड़ता है। कुछ रोगों का इलाज घर बैठे भी हो सकता है, पर कुछ ऐसे हैं, जिसके लिए अस्पताल में भर्ती होने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। बड़े-बड़ों को विवशता में यही करना पड़ता है। क्योंकि डाक्टर, नर्स, परीक्षा चिकित्सा तथा शल्य-क्रिया के साधन उपकरण किसी के निजी मकान में एकत्रित नहीं किये जा सकते। हर समय, हर सुविधा उपलब्ध कराने वाले, उपयुक्त जलवायु में बने अस्पताल ही गम्भीर चिकित्सा के लिए उपयुक्त पड़ते हैं। इस तथ्य को समझने वाले बिना ननुनच किये अस्पताल में भर्ती होते हैं। घर में ही वह सब करा लेने का हठ कोई दुराग्रही ही करता होगा। कल्प साधना में जहाँ उपचार पद्धति का सही रूप में परिपालन आवश्यक होता है, वहाँ एक आवश्यकता उपयुक्त वातावरण की भी रहती है। इसकी व्यवस्था बने बिना गाड़ी रुकी ही रहती है।

लंका विजय, सतयुग स्थापन के उपरान्त राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को आत्म कल्याण की साधना आवश्यक प्रतीत हुई। गुरु वशिष्ठ ने भी उसका समर्थन किया। बात आगे बढ़ी तो प्रथम प्रश्न यही उत्पन्न हुआ कि उसे किया कहाँ जाय? यों अयोध्या में साधनों की कमी नहीं थी, उसके लिए सभी सुविधाएँ जुट सकती थीं, पर मूल प्रश्न एक ही था कि अभीष्ट वातावरण वहाँ कहाँ से आये? जन्म भूमि और कर्मभूमि के साथ मनुष्य के अनेकानेक संस्कार जड़ होते हैं। अपना-पराया रोग-द्वेष स्मृति-अभ्यास संपर्क स्वभाव के कुछ ऐसे प्रवाह मनुष्य के साथ जुड़े होते हैं कि बहुत रोकथाम करने पर भी मनुष्य की चिन्तन पद्धति, अभिरुचि और आदत उसी अभ्यस्त ढर्रे में अनायास ही घूमती रहती है। विचारों तक की रोकथाम और मोड़-मरोड़ जब कठिन पड़ती है, तब अचेतन के साथ जुड़े रहने वाले स्वभाव-अभ्यास को कैसे बदला जाय? इसके लिए स्थान बदलने की आवश्यकता पड़ती है। परिस्थितियों का भी मनःस्थिति पर प्रभाव पड़ता है। स्थान बदलने में वहाँ के पदार्थ और व्यक्ति यों के साथ सम्बन्ध भी झीने पड़ते हैं। फलतः आगे न बढ़ने देने वाले संचित संस्कारों की पकड़ भी ढीली हो जाती है। साथ ही अधिक प्रभावी वातावरण का दबाव पड़ने पर भी मन का बदलना सरल हो जाता है।

भगवान कृष्ण और रुक्मिणी का विचार एकबार उच्चस्तरीय सन्तान उत्पन्न करने का हुआ। इसके लिए उन्हें विशिष्ट तप करना था। हलकी-फुलकी साधना तो घर-गाँव में रहते हुए सामान्य क्रिया-कलापों के साथ-साथ भी चलती रहती है किंतु उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रयास ही सब कुछ नहीं होता। इसके लिए वातावरण भी चाहिए। अस्तु, दोनों को सुसम्पन्न नागरिकों में उपलब्ध अपने प्रस्तुत साधन छोड़ने पड़े और अभीष्ट प्राप्ति के लिए उपयुक्त स्थान ‘बद्रीनाथ’ ढूँढ़ना पड़ा। वहाँ उन लोगों ने बारह वर्ष तक मात्र जंगली बेर खाकर तप किया। तदुपरान्त ही अपने समान स्तर का एकमात्र पुत्र ‘प्रद्य म्न’ उत्पन्न कर सकने में सफल हुए।

महाभारत के उपरान्त पाण्डव सिंहासनारूढ़ तो हुए पर साथ ही उनकी आत्मोत्कर्ष आकांक्षा भी उमड़ती रही। भगवान कृष्ण ने उनकी अभिलाषा को समझा और इसके लिए स्थान बदल लेने का परामर्श दिया, वैसा ही हुआ था। राज-काज उत्तराधिकारियों को देकर पाण्डव हिमालय चले, कृष्ण भी साथ थे। धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती इससे पूर्व ही हिमालय निवास करते हुए आत्म साधना में संलग्न हो चुके थे। पीछे द्रौपदी समेत पाँच पाण्डव भी चले। बद्रीनाथ के निकट ही वे जिस स्थान पर बसे उसका नाम ‘पाण्डु केश्वर’ पड़ा। भगवान ने उन्हें ‘पाण्डव गीता’ यहीं सुनाई थी। वह ज्ञान भी ‘योगवशिष्ठ’ के समतुल्य ही माना जाता है। तपस्वी जीवन बिताते हुए उच्चस्तरीय साधना करते हुए, पाण्डवों ने स्वर्ग प्रस्थान किया था, यह सभी को विदित है। यह उद्देश्य वे लोग ‘इन्द्रप्रस्थ’ ‘हस्तिनापुर’ रहते हुए-राज-काज चलाते हुए नहीं कर सकते थे। वातावरण व्यक्ति का तीन चौथाई मन अपने साथ अनायास ही जकड़े रहता है। अभ्यस्त ढर्रे में स्थान के साथ-स्वजन सम्बन्धियों के साथ-जुड़े हुए सम्बन्ध इतने सघन होते हैं, जिनका उल्लंघन करते हुए पार जा सकना दुस्तर समझकर यही उपाय अपनाया जाता है कि उपयुक्त वातावरण की दृष्टि से पुराने सम्बन्धों से जकड़ा हुआ स्थान बदल दिया जाता है। पाण्डवों ने भी राम बान्धवों की तरह वही किया।

स्वास्थ्य सुधार के लिए बनाये जाने वाले सेनेटोरियम को स्थापना करने वाले सर्वप्रथम उपयुक्त जलवायु वाले स्थानों का चुनाव करते हैं। भले ही लोगों को वहाँ पहुँचने में असुविधा होती हो। ‘भुवानी’ सेनेटोरियम आदि सभी प्रायः ऊँचे पर्वतीय स्थानों स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से उपयुक्त समझे गये वातावरण में बने हैं। परिणामों को देखते हुए स्पष्ट है, रोग और उपचार अन्यत्र जैसा रहने पर भी वहाँ भर्ती हुए रोगी आशातीत प्रगति करते हैं और जल्दी अच्छे होने में इन उपचार गृहों का परिणाम आश्चर्यजनक रहता है। यह सफलता रोगी अपने-अपने स्थानों पर रह कर नहीं कर सकते। ऐसे रोगियों में हर बड़ी स्वास्थ्य सुधार ही मस्तिष्क पर छाया रहता है, जबकि घर रहने पर कुटुम्ब-व्यवसाय सम्पर्क-समुदाय से सम्बन्धित अनेकानेक समस्याएँ ध्यान बँटाती रहती हैं। पूरा मनोयोग लगना भी सफलता का बहुत बड़ा रहस्य है। कल्प साधना में भी घर छोड़कर तदनुरूप स्थान चयन करने की बात पर जोर दिया जाता है।

बम्बई का केला, नागपुर का संतरा, लखनऊ का आम, मैसूर का चन्दन प्रसिद्ध है। उन्हीं पौधों को अन्यत्र लगाया जाय, तो वे स्थान और पुष्प उपलब्ध न होंगे। इसमें माली का दोष नहीं, जलवायु का कारण है। सरहदी पठान और नम क्षेत्र के निवासी बंगाली का शरीर देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि आहार आदि की सुविधा में अन्तर न रहने पर भी स्वास्थ्य में इतना अन्तर क्यों रहता है? इसमें क्षेत्रीय जलवायु की भिन्नता ही प्रमुख कारण है। जो बात भौतिक क्षेत्र में जलवायु और जमीन पर लागू होती है। वही अध्यात्म क्षेत्र के प्रयोगों और परिणामों के सम्बन्ध में उच्चस्तरीय वातावरण पर निर्भर रहती है। इसमें भूमिगत संस्कार, प्राणवान सान्निध्य तथा क्षेत्रीय वातावरण, पुरातन संचित संस्कार आदि कितने ही कारण काम करते हैं। तीर्थों की स्थापना पुरातन काल में इन्हीं तथ्यों को समन्वित करते हुए की गई थी।

बालकों के गुरुकुल-वानप्रस्थों के आरण्यक-स्थापित करते समय सुविधा का नहीं, उच्चस्तरीय वातावरण का ध्यान रखना होता है, भले ही वह परम्परागत बना हो अथवा प्रयत्नपूर्वक बनाया गया हो। सुविधा का स्थान कौन नहीं चाहता। पर जब वातावरण के साथ जुड़ी हुई प्रगति का प्रश्न आता है तो सुविधा छोड़ने और वातावरण अपनाने को दूरदर्शिता पूर्ण निर्णय करना पड़ता है। होटल धर्मशाला में रहकर अनुष्ठान आदि की लकीर पीट लेना एक बात है और त्रिवेणी की रेती में कुटी बनाकर माघ मास का ‘कल्पवास’ करना दूसरी। साधना में मात्र कृत्य ही सब कुछ नहीं होता। उसके लिए वातावरण भी पौधे को खाद-पानी मिलने की तरह आवश्यक है। इस दृष्टि से स्थान परिवर्तन की आवश्यकता कल्प साधना में आवश्यक मानी गयी है। मालवीयजी का काया-कल्प प्रयोग हिन्दू विश्वविद्यालय में बनी उनकी कोठी पर नहीं हुआ था। इसके लिये उन्हें मथुरा जिले के एक छोटे गाँव में तपसी बाबा के तपोवन में फूँस की कुटी बनाकर रहना पड़ा था।

महामानवों में से तो प्रत्येक को स्थायी रूप से अपनी जन्म भूमि छोड़कर अन्यत्र कार्यक्षेत्र बनाना पड़ा है। ऋषि वृन्द में से प्रत्येक को अपनी जन्म भूमि छोड़नी पड़ी वे प्रधानतया हिमालय की छाया और गंगा की गोद में बसे। कुछ को अन्यत्र भी ऐसे ही पवित्र स्थान ढूँढ़ने पड़े। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, नानक, कबीर, रामानुज, चैतन्य, ज्ञानेश्वर, समर्थ, रामकृष्ण परमहंस, गाँधी, अरविन्द, रमण आदि में से एक भी अपने जन्म स्थान में नहीं बसा या उन्हें वहाँ साधन सुविधा की दृष्टि से ही सुगमता रही। ईसा, मोहम्मद और जरथुस्त्र आदि प्रमुख धर्म संस्थापकों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उन्हें जन्मभूमि से प्रेम न रहा हो, ऐसी बात नहीं है, पर परिस्थिति का मनःस्थिति पर जो प्रभाव पड़ता है और उसके कारण लक्ष्य की ओर गतिशील होने में जो व्यवधान पड़ता है, उसे देखते हुए दूरदर्शिता ने यही सुझाया कि स्थान बदल कर ही महान कार्य सम्पन्न कर सकने में सुविधा होती है।

कल्प साधना की कार्य पद्धति उतनी कठिन या जटिल नहीं है कि घर रह कर न की जा सकती हो। किन्तु कठिनाई एक ही है कि अभ्यस्त ढर्रा, आधा ध्यान अपने में ही उलझाये रहता है जबकि कल्प साधना या किसी भी साधना के लिए मन को आगे बढ़ाने वाले प्राणवान वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए बहुत समय से यह प्रयत्न चलता रहा है कि उच्चस्तरीय साधना के निमित्त उपयुक्त वातावरण वाला तीर्थ विनिर्मित किया जाय। ‘विनिर्मित’ शब्द का प्रयोग यहाँ इसलिए किया जा रहा है कि परम्परागत तीर्थों को निहित स्वार्थों की दुरभि संधियों ने इस बुरी तरह जकड़ लिया है कि वहाँ श्रद्धा संवर्धक प्रेरणा मिलना तो दूर-आवश्यक शिक्षण और प्राणवान सान्निध्य मिलना तो दूर, उलटे अश्रद्धा उत्पन्न करने वाला विक्षोभ ही हाथ लगता है। भीड़ भाड़ की घिचपिच और पर्यटकों जैसी बात चंचलता को देखते हुए वैसा अवसर ढूँढ़ निकालना कठिन है जहाँ साधना के लिए उपयुक्त सभी आवश्यक माध्यम एक साथ उपलब्ध हो सकें। ऐसी दशा में उस लुप्त परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए नये सिरे से न्यूनतम एक तीर्थ की स्थापना तो अनिवार्य रूप में आवश्यक हो ही गयी। इसके बिना प्रगति रथ एक कदम भी आगे बढ़ता प्रतीत नहीं हो रहा था।

शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ को इसी दृष्टि से विनिर्मित किया गया है ताकि उस शून्य की पूर्ति हो सके। कल्प-साधना सच्चे अर्थों में तीर्थ सेवन है। वातावरण, साधना, शिक्षण-विधान अनुशासन, अध्यवसाय की दृष्टि से यहाँ निवास करने वाले साधक को यही अनुभव होता है कि उसे तीर्थ परम्परा का जीवन्त दर्शन हो रहा है। सूत्र-संचालकों ने समय की आवश्यकता को पूरा करने के लिए इस संदर्भ में प्राणपण से प्रयास किया है। अनेक स्थूल कमियों के रहते हुए भी कोई भी सूक्ष्मदर्शी यहाँ यह अनुभव कर सकता है कि व्यवस्था को उन्हीं पद चिह्नों पर चलाया जा रहा है जिन पर देव संस्कृति के महान तीर्थों की स्थापना प्रचण्ड ऊर्जा केन्द्रों के रूप में की गयी थी। ऐसी प्रचण्ड जिसमें तपकर अनगढ़ धातुओं को गलने ढलने और बहुमूल्य बनने का अवसर मिलता था तीर्थ प्रकारान्तर से महामानव ढालने के उत्पादन केन्द्र थे जिनमें गुरुकुल बालकों का आरण्यक वानप्रस्थों का-साधनारत व्यस्त गृहस्थों का नव निर्माण करते थे।

वातावरण की चर्चा करने के उपरान्त एक प्रश्न फिर भी शेष रह जाता है कि सत्रों में सम्मिलित होने वाले साधक उपयुक्त प्रभाव ग्रहण करने योग्य अपनी मनःस्थिति बना पाते हैं या नहीं। परिस्थितियाँ कितनी ही अनुकूल क्यों न बन गई हों, पर यदि उन्हें स्वीकारने की मनःस्थिति न हो तो वह प्रयोजन सिद्ध हो नहीं सकेगा, जिसके लिए उभयपक्षीय प्रयासों की अनिवार्य आवश्यकता है, जो एकांगी होने पर बनता ही नहीं, सधता ही नहीं। एक हाथ से ताली कहाँ बजती है। एक पैर से तो बिना लकड़ी के सहारे दस कदम भी चलना नहीं हो सकता। एक पहिये की गाड़ी लम्बी यात्रा पूरी कैसे करें? सूर्य कितना ही महान क्यों न हो उसकी किरणें किसी बन्द दरवाजे में प्रवेश नहीं कर सकतीं। हवा कितनी ही स्वच्छ क्यों न हो यदि खिड़कियाँ बन्द रहें तो यह समर्थ होते हुए भी उस घर में घुस नहीं सकेगी। दृश्य कितने ही सुन्दर क्यों न हों पुतली के खराब हो जाने पर सर्वत्र अन्धकार ही दृष्टिगोचर होगा। कान के पर्दे काम न करें तो मधुर संगीत का आनन्द ले सकना सम्भव नहीं। पाचन-तन्त्र खराब हो तो पौष्टिक भोजन की कोई उपयोगिता नहीं। वाहन-साधनों की जितनी उपयोगिता आवश्यकता है, उससे भी अधिक उनका सही उपयोग कर सकने में समर्थ विवेक और कौशल की है, अन्यथा बहुमूल्य उपलब्धियाँ भी निरर्थक बनकर रह जायगी। वर्षा में सभी जल जंगल हरे-भरे दीखते हैं, पर चट्टानों पर न तो नमी के चिह्न दीखते हैं और न एक तिनका जमता है। आग को इन्धन तो चाहिए ही। अन्यथा वह प्रचंड होते हुए भी बुझ जायगी। तीर्थसेवन के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसमें उपयुक्त परिस्थितियाँ तो होनी ही चाहिए। उनके बिना उत्तम मनःस्थिति होने पर भी बात नहीं बनती, पर साथ ही इस तथ्य को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि सशक्त परिस्थितियाँ भी उपयुक्त मनःस्थिति के अभाव में अपना प्रभाव प्रस्तुत कर सकने में समर्थ नहीं हो सकतीं।

कल्प साधना के साधकों को चाहिए कि इतना समय निकालने, इतना कष्ट सहने, इतना खर्च करने का जहाँ साहस दिखाया है वहाँ इतना पुरुषार्थ और भी करें कि अपने मन को पकड़-जकड़ कर, समेट-दबोच कर इसके लिए मनाये कि इन दिनों किसी दिव्य लोक में निवास करने, दिव्य ढाँचे में ढलने, भविष्य को देवोपम बनाने के लिए जिस चिन्तन की आवश्यकता है उसे तत्परतापूर्वक अपनाये । मन उचटता हो तो उसके लिए छुट्टा घूमने के अभ्यस्त किसी वन्य पशु को प्रशिक्षित करने का कौशल अपनाया जाय। विचारों को भी विचारों से काटा जाय। लोहे से लोहा कटता है, विष को विष मारता है, काँटे से काँटा निकलता है। अनगढ़ एवं अनावश्यक विचारों के अभ्यस्त मनः संस्थान को यदि उच्चस्तरीय अनुशासन में ढालना है तो वैसा ही प्रयत्न करना होगा जैसा कि बछड़े को हल में जोतने के लिए करना होता है।

परिस्थितियाँ जितनी महत्वपूर्ण हैं उतनी ही साधक की मनःस्थिति भी। यदि मन पर कैद होने का, जितनी जल्दी हो सके मुक्त होकर भागने के विचारों को घटा टोप छाया हो तो कितना भी सशक्त वातावरण हो, भावना, विचारणा तथा शरीर संरचना में तनिक भी परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होगा। अनुकूल मनःस्थिति के साधकों को कल्प प्रक्रिया के लिए जैसी परिस्थितियों की-तीर्थ के शक्ति प्रधान वातावरण की आवश्यकता थी, वैसा ही शान्ति-कुँज को गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है। इसके लिये इस स्थान की महत्ता तो अपने स्थान पर है ही, गत बारह वर्षों के वे प्रयास भी महत्वपूर्ण हैं। जिनके माध्यम से इस तपःस्थली को संस्कारित किया गया है। सर्वविदित है कि यह स्थान सप्त ऋषियों की तपःस्थली सप्त सरोवर पर बनाया गया है। इमारत ठीक वही बनी है, जहाँ गायत्री के दृष्टा विश्वामित्र का निवास था। नौ कुण्ड की यज्ञशाला में नित्य दो घण्टे यज्ञ, पचपन साल से निरन्तर जल रही अखण्ड ज्योति, नित्य का चौबीस लाख सामूहिक जप पुरश्चरण, जड़ी-बूटी उद्यान जैसी विशेषताएँ चर्म चक्षुओं से देखी जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त वैसा भी बहुत कुछ है जिसे मात्र ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है। हिमालय की दिव्य सत्ता का संरक्षण वशिष्ठ अरुन्धती का सान्निध्य, अनुभव पूर्व मार्ग दर्शन तथा प्राणवान अनुदान जैसी ऐसी सुविधाएँ जो अन्यत्र मिल सकना कठिन है। ब्रह्मवर्चस् की शोध-युग शिल्पियों का प्रशिक्षण इस वातावरण को स्वर्ण सुयोग जैसा बना देते हैं। ‘कल्प साधना’ जैसे महान प्रयोजन के लिए इससे हल्के दर्जे का वातावरण काम भी नहीं दे सकता था। इस लिये पिछले बारह वर्ष तद्नुकूल स्थापना खड़ी कर देने के उपरान्त ही प्रखरता सम्पादन की कल्प साधना का सशक्त उपक्रम इसी वर्ष शान्तिकुञ्ज में आरम्भ किया गया है।


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