साधना ही नहीं जीवन निर्माण का अनुपम शिक्षण भी

November 1982

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मध्याह्न काल के दो घण्टे विश्राम के लिए मिलते हैं। उसमें नींद तो तभी लेनी चाहिए जब रात्रि को किसी कारणवश कमी रह गई हो। आमतौर से पेट अधिक भरा होने के कारण ही नींद उचटती है। यदि पेट हलका रहे तो गहरी नींद आने में कठिनाई न रहे। ऐसी दशा में दोपहर को सोने के लिए नहीं, थकान उतारने के लिए विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। इस अवधि में शान्त चित्त बिस्तर पर पड़े रहने के संयम भी विचार तन्त्र को चिन्तन और मनन में नियोजित रखना चाहिए। चिन्तन भूतकाल का और मनन भविष्य का होता है पिछले दिनों स्तर का समय बीता? कितना खाया पाया? इसका पर्यवेक्षण अपने को आत्मा मानकर करना चाहिए। शरीर मानकर इस प्रकार का विहंगावलोकन सम्भव नहीं। शरीर तो मात्र साधनों की न्यूनाधिकताओं, व्यक्ति यों की भली-बुरी गतिविधियों का और प्रभाव छोड़ने वाली घटनाओं के ऊहापोह में ही उलझा रहता है। यदि शरीराभ्यास में निमग्न रहकर आत्म-निरीक्षण किया जाएगा तो उपरोक्त स्तर का जाल-जंजाल ही मस्तिष्क पर छाया रहेगा और भूतकाल के आध्यात्मिक पर्यवेक्षण का कोई आधार ही न बन सकेगा। चिन्तन में अपने को आत्मा और शरीर को वाहन उपकरण भर मानने के उपरान्त ही वास्तविक हानि-लाभ का लेखा-जोखा ले सकना सम्भव होता है। सोचना यह होता है कि सृष्टा ने जिस प्रयोजन के लिए यह बहुमूल्य अमानत सौंपी उसका अभीष्ट उद्देश्य के निमित्त कितना, कब, किस प्रकार उपयोग हुआ? यदि पेट-प्रजनन की पशु-प्रवृत्तियों में ही वह अवसर चला गया तो तत्त्वतः बड़ी भूल हुई। मध्याह्न काल के विश्राम वाले दो घण्टे इसी ऊहापोह में व्यतीत होने चाहिए। अधिकाँश समय भविष्य के योजनाबद्ध निर्धारण का ताना-बाना बुनने में व्यतीत होना चाहिए। विचारणाएँ ही कालान्तर ये आकांक्षा बनती, क्रिया में परिलक्षित होती और भली-बुरी परिस्थितियों, परिणतियों का निर्धारण करती है। अस्तु, इस समय को कल्पनाओं की उड़ान नहीं वरन् सुनिश्चित लक्ष्य को पूरा कराने में असाधारण सहायता करने वाली प्रक्रिया मानना चाहिए।

मध्याह्न में बारह से एक तक का समय पूज्य गुरुदेव व वन्दनीया माताजी से परामर्श एवं आपस में अथवा प्रशिक्षकों के साथ परामर्श करने का है। विचारों के इस आदान-प्रदान के कई बार अत्यन्त महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगते हैं।

मध्याह्न से पूर्व बारह बजे तक साधना और मध्याह्नोत्तर 1 से 5 बजे तक चार घण्टे प्रशिक्षण का क्रम है। प्रशिक्षण में लोक-व्यवहार में शालीनता एवं कुशलता के समावेश की ऐसी शिक्षा आवश्यक समझी गई है जिससे व्यक्ति अपने गुण, कर्म, स्वभाव को पवित्र एवं प्रखर बना सके। सज्जनता की जितनी आवश्यकता है उतनी ही जागरूकता, सतर्कता की भी। भलो के साथ सहयोग की तरह अवांछनीय से आत्मरक्षा तथा कुचक्र आक्रमण को निष्फल बनाने की रणनीति को समझना, बरतना भी उतना ही आवश्यक है। ऐसी जीवन साधना सम्बन्धी रीति-नीति की एक कक्षा प्रतिदिन होती है और समझाया जाता है कि परिवार का पाठशाला, प्रयोगशाला बनाकर दुलार और सुधार का उभयपक्षीय अभ्यास किस प्रकार किया जाय? व्यक्ति को समाज के प्रति समुचित व्यवहार कैसे करना चाहिए इसका सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक प्रयोग करने के लिए परिवार से बढ़कर और कोई क्षेत्र नहीं हो सकता। इसमें सत्प्रवृत्तियाँ बोने और सुखद उपलब्धियाँ कमाने के लिए अपना परिवार ही एक छोटा समाज एक छोटा राष्ट्र है। आत्मीयजनों को संस्कारवान्, स्वावलम्बी कैसे बनाया जा सकता है, अपना और कुटुम्बियों का भविष्य साथ-साथ उज्ज्वल कैसे बनाया जा सकता है-इसकी समन्वित प्रक्रिया परिवार निर्माण ही है। इसका दर्शन और अभ्यास करने के लिए कल्प साधना की एक कक्षा लगती है।

दूसरी कक्षा को समाज सेवा कहना चाहिए। इसमें वक्तृत्व कला, कुशल सम्भाषण एवं गायन-वादन के त्रिविध अभ्यास कराये जाते हैं। अपने समय की सबसे बड़ी विपत्ति ‘आस्था संकट’ है। अपने समय की सबसे बड़ी सेवा ‘लोकमानस का परिष्कार’ है। इसके लिए वाणी को मुखर करने और जन-जन के मन-मन तक युगान्तरीय चेतना का आलोक पहुँचाने की आवश्यकता है। यह कार्य वाणी को मुखर करने से शक्य हो सकता है। अस्तु, उस कौशल के अभ्यास की त्रिविधि कक्षाएँ बारी-बारी चलती है।

तीसरी कक्षा स्वास्थ्य संवर्धन की है। आसनों द्वारा शारीरिक और प्राणायामों द्वारा मानसिक रोगों का निवारण करने वाली योग चिकित्सा सर्वथा हानि रहित, परिपोषण एवं बलवर्धक है। आहार-बिहार को प्राकृतिक बनाने के नियमों से परिचित कराने के अतिरिक्त सर्वतोमुखी व्यायाम उपचार की प्रक्रिया आसन-प्राणायामों की वैज्ञानिक विधि-व्यवस्था में सम्मिलित है। इस कक्षा में उसका अच्छा-खासा अभ्यास करा दिया जाता है। इसके अतिरिक्त बीस जड़ी-बूटियों के माध्यम से सामान्य स्तर के सभी रोगों से निपटने की एक विशेष चिकित्सा पद्धति ब्रह्मवर्चस् शोध के अंतर्गत प्रस्तुत की गई है। रोगियों को कष्ट मुक्त करने में यह चिकित्सा पद्धति जहाँ सन्तोषजनक फलदायक है वहाँ सर्वथा निर्दोष भी है। तीसरी कक्षा में इन्हीं सब जानकारियों और अभ्यासों का समावेश है।

चौथी कक्षा धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण की है। नवयुग के निर्माण में प्रमुखतया इसी स्तर के प्रयासों की प्रमुखता रहेगी । अन्तराल को परिवर्तित, परिष्कृत करने में धर्मतन्त्र की सफल हो सकता है। उसके साथ प्रगतिशीलता जोड़ते हुए लोक श्रद्धा में आदर्शों का सघन समावेश कैसे किया जा सकता है इसके सभी भेद-उपभेद उतार-चढ़ाव दर्शन-प्रयोग इस कक्षा में सिखाए जाते हैं। साधारणतया उन कर्मकाण्डों और प्रतिपादनों की संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जानकारी इस कक्षा में करा दी जाती है। वह इस स्तर की है जिससे पौरोहित्य का समग्र उत्तरदायित्व निभाया जा सके। अग्निहोत्र, संस्कार, पर्व, कथा, ज्ञानगोष्ठी आदि की कामचलाऊ शिक्षा इस कक्षा के अंतर्गत मिल जाती है। इस माध्यम से श्रद्धा भरे वातावरण में ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का व्यावहारिक स्वरूप समझने-समझाने की सरल प्रक्रिया हाथ लगती है। संक्षेप इसे व्यक्ति परिवार और समाज के भावनात्मक नवनिर्माण की पुरातन एवं परीक्षित पद्धति कहा जा सकता है।

उपरोक्त चारों कक्षाएँ एक दिनों के बीच देकर अर्थात् हर दिन दो-दो होती हैं। इस प्रकार एक महीने की अवधि में चारों वर्गों के पन्द्रह-पन्द्रह भाषणों और अभ्यासों का एक समन्वित प्रशिक्षण बन जाता है। इतने कम समय में इतना विस्तृत एवं इतना महत्वपूर्ण समग्र शिक्षण बन पड़ना अद्भुत एवं अनुपम है। उसे ‘गागर में सागर’ की उपमा बिना संकोच दी जा सकती है, उपासना, साधना, आराधना के तीनों पक्ष इस चार घण्टे प्रतिदिन चलने वाली कक्षाओं में मात्र एक महीने सम्मिलित रहकर साधक अनुभव करता है कि उसने इतनी छोटी अवधि में जितनी उपयोगी जितनी सुनियोजित शिक्षा प्राप्त की कदाचित उतनी वह जीवन भर में उपलब्ध नहीं कर सका होगा। उच्चस्तरीय एवं सामयिक व्यवहार दर्शन की ऐसी समन्वित दिशाधारा अभी तक कहीं अन्यत्र नहीं देखी गई जैसी कि कल्प साधना के साधकों को सार-सूत्रों सहित, सरल प्रतिपादन एवं सुगम शैली में हस्तगत होती है।

सायंकाल सभी गंगादर्शन के लिए जाते हैं। इसी में टहलना तथा प्रकृति दर्शन भी हो जाता है। प्रातःकाल की तरह सायंकाल भी गायत्री माता की आरती में सब लोग सम्मिलित होते हैं। रात्रि को 7 से 8॥ तक प्रज्ञापुराण की कथा तथा भावभरे युग संगीत का कीर्तन होता है। इसके उपरान्त सभी अपने-अपने कमरों में जाकर सो जाते हैं। नींद न आने पर भी भगवान के ध्यान में निमग्न रहकर चुपचाप पड़े रहने का अनुशासन है जो सभी को पालना पड़ता है।


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