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November 1982

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कल्प साधना के दिनों में यदि किसी प्रकार का चिन्तन तेजस्वी स्तर पर उभरा होगा और उससे पश्चात्ताप जैसा कुछ मरोड़ने वाला दर्द हुआ होगा तो फिर उसका समाधान एक ही हो सकता है-भविष्य का शानदार निर्धारण। मनन तभी सार्थक है जब उससे विगत के प्रमाद की भरपाई करने के लिए चौगुने, सौगुने पराक्रम की उमंगें उभरें। इस एक मास की अवधि में चिन्तन तो दो चार दिन का ही पर्याप्त हो सकता है। शेष 26 दिन एक ही योजना बनानी चाहिए कि जिन आदर्शवादी प्रेरणाओं का यहाँ माहौल है। उनका अवधारण-कार्यान्वयन कैसे सम्भव हो। उसके लिए किस क्रम में क्या कदम उठाये जाने चाहिए और उस निर्धारण में जो आन्तरिक प्रमाद तथा बाह्य व्यवधान आड़े आने वाला है उससे कैसे निपटा जाना चाहिए। असल में यही है कल्प साधना के दिनों की महानतम उपलब्धि। यदि इस प्रयत्न के फलस्वरूप उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण बन पड़ा तो उसका श्रेय सुअवसर सहयोग को नहीं, साधक की अपनी दूरदर्शी विवेकशीलता एवं संकल्पवान साहसिकता को ही मिलेगा।

व्यक्ति त्व के विकास में आने वाले कुछ प्रमुख सूत्र हैं। उनकी उपयोगिता और फलश्रुति समझनी चाहिए तथा उनके कार्यान्वयन का क्रम बनाने से लेकर अपनाये रहने का संकल्पवान व्रत भी धारण करना चाहिए। ऐसे निर्धारणों में कुछ निम्नलिखित हैं—

व्यक्तित्व का विकास

[1] प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य काम-काजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्यकर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालने चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिए। इससे कम में पुण्य परमार्थ के सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारित स्वभाव का अंग बनता है और न व्यक्ति त्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।

[2] आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें, परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरतापूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनाये जो सभी के लिये अनुकरणीय हो। ठाट-बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।

[3] अहिर्निशं पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते हैं। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूर्ति में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिए। भव− बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है-प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा-थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिए। स्वाध्याय को भजन से भी अधिक प्रमुखता दी गई है। इसलिए उसे नित्य कर्म में सम्मिलित करना चाहिए और कभी प्रमाद न करना चाहिए सद्विचारों की यह स्वाध्याय संचित पूँजी ही मनुष्य की सच्ची आध्यात्मिक सम्पदा है।

[4] प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध-सोते समय तत्त्वबोध । नित्यकर्म से निवृत्त होकर जप ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन-मनन में उपयोग। यही है-त्रिविधि सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त-व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिए। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिये सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञायोग‘ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठापूर्वक निभाया जाय।

[5] दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकना चाहिए और जो उपलब्धियाँ हस्तगत हैं, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिए और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते हैं।

कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकाँक्षाओं के रंगीले महल न रचे । ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौंदर्य निहारें आशंका ग्रस्त, भयभीत, निराश, न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बनें। आत्मावलम्बन सीखे। अहंकार तो हटाये पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपने समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठाये । सहायता करें पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़ें और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्त्वाकाँक्षा संजोयें। स्मरण रखें, हंसते-हंसते रहना और हलकी-फुलकी जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।

परिवार निर्माण परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला-पाठशाला समझें। इस उद्यान में सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगायें। हर सदस्य को स्वावलम्बी, सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने को भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह स्वयं आदर्शवान् बनें ताकि कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे साँचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है-संचालक का आदर्शवादी ढाँचे में ढलना, दूसरा है माली की तरह हरे पौधे को शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।

[2]परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्रय असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चों को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्त्व पालन तभी हो सकता है जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। आज के समय में बच्चों की संख्या वृद्धि हर दृष्टि से अवांछनीय है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें। थोड़े लोगों का परिवार ही सुसंस्कारी बन सकता है। स्वावलम्बी सदस्यों को अलग होने की अपेक्षा छोटों की सहायता और बड़ों की सेवा करने की प्रेरणा देनी चाहिए।

[3] संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्परायें प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाय। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले। सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये, व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना उपहासास्पद पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदे । नाक, कान छेदने और उनके चित्र विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीक फैशन कोई महिला न अपनाये । विचार संयम के लिए कुविचारों का आक्रमण घर में ही हो उसके लिए सद्विचारों का स्वाध्याय और कथा कहानी परस्पर विचार विनिमय का नियमित कार्यक्रम चलता रहे। गृहपति स्वयं चतुर्विधि संयम पालें और घर के अन्य सदस्यों को भी इस शालीनता को निशानी संयमशीलता का अधिकाधिक अभ्यास करायें।

[4] पारिवारिक पंचशीलों में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीन-शिष्टता और उदार सहकारिता की गणना की गयी है। इन पाँच गुणों को हर सदस्य के स्वभाव में कैसे सम्मिलित किया जाय। इसके लिए उपदेश देने से काम नहीं चलता, वरन् ऐसे व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं जिन्हें करते रहने से वे सिद्धान्त व्यवहार में उतरें। इसलिए घर के लोगों को साथ लेकर परिवार प्रमुखों को कुछ कर्तव्य करने होते हैं तभी अन्यों को उनको आरम्भ करने से भविष्य में अपनाये रहने की आदत पड़ती। यह क्रिया द्वारा शिक्षा देने की विधि ही आदत डालने या सुधारने में काम आती हैं।

[5] उत्तराधिकार का लालच किसी के मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए, वरन् हर सदस्य के मन में यह सिद्धान्त जमना चाहिए कि परिवार की संयुक्त सम्पदा में उसका भरण-पोषण शिक्षण एवं स्वावलम्बन सम्भव हुआ हैं। इस ऋण को चुकाने में ही ईमानदारी है। बड़ों की सेवा और छोटों की सेवा के रूप में यह ऋण हर वयस्क स्वावलम्बी को चुकाना चाहिए। कमाऊ होते हो आमदनी जेब में रखना और पत्नी को लेकर मनमाना खर्च करने के लिए अलग हो जाना प्रत्यक्ष बेईमानी है। उत्तराधिकार का कानून मात्र कमाने में असमर्थों के लिए लागू होना चाहिए, न कि स्वावलम्बीयों की मुफ्त की कमाई लूट लेने के लिए। अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों ही इस मत के हैं कि पूर्वजों को छोड़ी कमाई को असमर्थ आश्रित ही तब तक उपयोग करें जब तक कि वे स्वावलम्बी नहीं बन जाते। परिवार में उत्तराधिकार का प्रचलन इसी आधार पर करने की पहल पहले अपने घरों से करना चाहिए। इसके लिए मिशन के सूत्र संचालक का, वाजिश्रवा का, मैत्रेयी का, महर्षि कर्वे का उदाहरण हम सबके मस्तिष्कों में घूमता रहना चाहिए।

समाज निर्माण

[1]हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गूँथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल-जुलकर काम करने और मिल-बाँटकर खाने की आदत डाली जाय। भगवान को विराट् विश्व के उस पक्ष के समकक्ष माना जाय जिसमें उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समुच्चय है और मात्र सत्प्रवृत्तियों के रूप में उसकी लीलाओं का पर्यवेक्षण किया जाय। समाज निष्ठा जगे।

[2] मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्त उसका सतत् प्रवाह सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिये ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीतिभोजों का जहाँ औचित्य हो वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के समर्थ लोग उठाते हैं-अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिये उदार, श्रमदान और धन दान को अधिकाधिक प्रोत्साहित भी किया जाय।

[3] किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुये भी परम्परा के लाभ पर गले बँधा हो, उसे फेंका जाय। समय-समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक-अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से लिंग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय। इसी प्रकार वैयक्तिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र में संव्याप्त अनेकानेक चित्र-विचित्र परम्पराओं में से जो विवेक की कसौटी पर उपयोगी सिद्ध हो उन्हें अक्षुण्ण रखते हुए शेष को बिना बहुजन मान्यता की परवाह किये बहुजन हिताय की बात को महत्व देना चाहिए और आवश्यक परिवर्तन प्रस्तुत करने के लिए एकाकी बढ़ चलना चाहिए।

(4)सहकारिता का प्रचलन हर क्षेत्र में किया जाय। अलग-अलग पड़ने की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों और संस्थानों को महत्व दिया जाय। विश्व परिवार का आदर्श कार्यान्वित करने का ठीक समय यही है। सभी प्रकार के विलगावों को निरस्त किया जाय। व्यक्ति की सुविधा की तुलना में समाज व्यवस्था को वरिष्ठता मिले। प्रशंसा ऐसे ही प्रयत्नों की हो जिन्हें सर्वोपयोगी कहा जाय। व्यक्तिगत समृद्धि, प्रगति एवं विशिष्टता को श्रेय न मिले। उसे कौतुक-कौतूहल मात्र समझा जाय।

(5)अवाँछनीयताओं, मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों को छूत की बीमारी समझा जाय। वे जिस पर सवार होती हैं उसे तो मारती ही हैं, अन्यान्य लोगों को भी चपेट में लेती और वातावरण बिगाड़ती है। इसलिए उनका असहयोग विरोध करने की मुद्रा रखी जाय और जहाँ सम्भव हो उनके साथ समर्थ संघर्ष भी किया जाय। समाज के किसी अंग पर हुआ अनीति का हमला समूचे समाज के साथ बरती गई दुष्टता माना जाय और उसे निरस्त करने के लिए जो मीठे-कड़ुवे उपाय हो सकते हों, उन्हें अपनाया जाय। अपने ऊपर बीतेगी, तब देखेंगे इसकी प्रतीक्षा करने की अपेक्षा कहीं भी हुए अनीति के आक्रमण को अपने ऊपर हुआ हमला माना जाय और प्रतिकार के लिए दूरदर्शितापूर्ण रणनीति अपनायी जाय।

व्यक्तिगत परिवार, और समाज क्षेत्र के उपरोक्त पाँच-पाँच सूत्रों को उन-उन क्षेत्रों के पंचशील माना जाय और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए जो भी अवसर मिले उन्हें हाथ से जाने न दिया जाय।

आवश्यक नहीं कि इस सभी का तत्काल एक साथ उपयोग करना आरम्भ कर दिया जाय। उनमें से जितने जब जिस प्रकार कार्यान्वित किये जाने सम्भव हों तब उन्हें काम में लाने का अवसर भी हाथ से न जाने दिया जाय। किन्तु इतना काम तो तत्काल आरम्भ कर दिया जाये कि इन्हें सिद्धान्त रूप से पूरी तरह स्वीकार लिया जाये। आदर्शवादी महानता से गौरवान्वित होने वाले जीवन इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर जिये जाते हैं। अनुकरणीय प्रयास करने के लिए जिन्होंने भी श्रेय पाया है उनने त्रिविधि पंचशीलों में से किन्हीं सूत्रों को अपनाया और अन्यान्यों द्वारा अपनाये जाने का वातावरण बनाया है।

कल्प साधना के साधक एक मास की अवधि में यह निश्चित करें कि उन्हें भविष्य में आदर्शवादी जीवन जीना है। जो बीत गया सो गया पर जो शेष है उसका उपयोग इस प्रकार करना है जिससे आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण के दोनों ही प्रयोजन साथ-साथ सधते रहे। जीवन सम्पदा को यदि शरीर और आत्मा की साझेदारी माना जा सके तो दोनों पक्षों को उसके उपार्जन का समान लाभ मिलना चाहिए। अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व में एक आदर्शवादिता को-प्रज्ञा अभियान का ही एक सदस्य मान लिया जाय और जिस प्रकार अन्य कुटुम्बियों के लिए समय, धन लगाया जाता है उसी प्रकार इस महान प्रयोजन के लिए उतना ही करते रहा जाय तो इस व्रत निर्वाह से हर कल्प साधक निकट भविष्य में महामानवों की पंक्ति में खड़ा दृष्टिगोचर हो सकता है। यही सच्चे अर्थ में काया-कल्प है।


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