स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के परिशोधन में संयम, विवेक और श्रद्धा संवर्द्धन को आवश्यक बताया गया है। यह बौद्धिक प्रयास है, जिसमें मनुष्य को अपने मनोबल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। दूसरे तो मात्र मार्गदर्शन कर पाते हैं। पर इतने भर से काम कहाँ चलता है। आवश्यकता कुछ गहरे और सशक्त प्रयत्नों की भी पड़ती है। इसके लिए दो मार्ग हैं-एक किसी सशक्त आत्मा का असाधारण अनुदान जैसा कि विवेकानन्द को रामकृष्ण परमहंस का मिला था, दूसरा-साधना-तपश्चर्या-योगाभ्यास-का कोई ऐसा प्रयोग जिसके सहारे प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों को जागृत करके रहस्यमयी शक्ति यों को आत्म-निर्माण तथा विश्व निर्माण के प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सके।
कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्माण किया गया है सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं। इन्हें अनिवार्य साधनाओं में गिना गया है। इनमें एक बिन्दुयोग, दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिन्दुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। नादयोग को ‘अनाहत ध्वनि’ भी कहते हैं। लययोग को आत्मदेव की साधना कहते हैं। छाया पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अंतर्गत आते हैं। स्थूल शरीर के साथ लययोग, सूक्ष्म के साथ बिन्दुयोग और कारण शरीर के साथ नादयोग का सीधा सम्बन्ध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों चेतना क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत, अधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है। अन्न, जल, वायु की तरह इन तीन साधनाओं को भी समान उत्कर्ष की दृष्टि से सर्व सुगम किन्तु साथ ही असाधारण रूप से प्रभावी भी माना गया है।
बिन्दुयोग
त्राटक साधना को आज्ञाचक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र का उन्मीलन कहा जाता है। दोनों भावों के बीच मस्तक के भृकुटि भाग में सूक्ष्म स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें विचित्र की जाती हैं। दो आँखें सामान्य-एक भृकुटि स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट् के दर्शन कराये थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयंती ने भी कुदृष्टि डालने वाले व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केन्द्र से अद्भुत दिव्य दृष्टि का टेलीविजन की तरह-दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आँखों देखा हाल सुनाते रहे।
आज्ञाचक्र को शरीर विज्ञान के अनुसार पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों का मध्यवर्ती सर्किल माना जाता है और उसे एक प्रकार का किदलीय चक्र-दिव्य दृष्टि केन्द्र कहा जाता है। टेलीविजन, राडार, टेलीस्कोप के समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता के सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूर दर्शन-सूक्ष्म दर्शन-विचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिलता, किन्तु यदि इसे प्रयत्नपूर्वक जगाया जा सके तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बड़ा देता है। चूँकि यह केन्द्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिन्दु माना जाता है इसलिए उसे जागृत करने की साधना को बिन्दुयोग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटक साधना भी है।
यह साधना सरल है। आमतौर से पालथी मारकर, कमर सीधी कर एकान्त स्थान में इस साधना के लिए बैठते हैं। तीन फुट दूरी पर कन्धे की सीध में ऊँचाई पर एक दीप जलाकर रखते हैं। दस सेकेण्ड तक उसकी लौ को खुली आँख से देखना। फिर एक मिनट बन्द रखता। फिर दस सेकेण्ड देखने, पचास सेकेण्ड बन्द रखने का अभ्यास अनुमान से ही करना पड़ता है। घड़ी का उपयोग इस बीच बन पड़ता सुविधाजनक नहीं रहेगा। दूसरा कोई चुपके से धागे आदि का संकेत कर दे तो दूसरी बात है।
दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बन्द करके आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता है, साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों को जागृत कर रहा है। आरम्भ में यह ध्यान दस मिनट से आरम्भ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी-तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। खोलने बन्द करने का समय एक-सा ही रहेगा। दीपक का सहारा आरम्भ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उनकी आभा से समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिना किसी अवलम्बन के मात्र कल्पना भावना के आधार पर चलती रहती है।
दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाश पुँज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण ‘सविता’ वही है। पालथी मारना, हाथ गोदी में और कमर सीधी रखने को ध्यान मुद्रा कहते हैं। दीपक धारणा की तरह प्रभातकालीन अरुणाभ सूर्य को पाँच सेकेण्ड खुली आँख से देखकर बाद में पचपन सेकेण्ड के लिए आँखें बन्द कर लेते हैं और आज्ञाचक्र के स्थान पर उस उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। साथ ही यह धारणा करते हैं कि सविता देवता की ज्योति किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण शरीर में श्रद्धा, सम्वेदना का संचार करती और समग्र काय कलेवर को ज्योतिपुञ्ज बनाती है। सूर्य त्राटक की ध्यान धारणा आरम्भ में दस मिनट करनी चाहिए और धीरे-धीरे बीस मिनट तक बढ़ा देनी चाहिए। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण-तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। कुछ समय तो लगता ही है। बीज बोने से लेकर वृक्ष फलने तक की प्रक्रिया पूरी होने में कुछ समय तो चाहिए ही। हथेली पर सरसों तो बाजीगर ही जमा सकते हैं।
नादयोग
दूसरी साधना नादयोग की है। यह सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों द्वारा सम्पन्न की जाती है। खुले कान तो एक सीमा तक की समीपवर्ती प्रत्यक्ष ध्वनि हो सुन पाते हैं। किन्तु सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में अवणातीत दिव्य ध्वनियाँ सुनने को भी क्षमता है। प्रकृति का मूल शब्द है। वह अनादिकाल में ॐकार के ध्वनि गुँजन से ही विकसित हुई है। उसकी समस्त गतिविधियाँ परमाणुओं के अन्तराल में चलने वाली हलचलों और तरंगों के प्रवाहों पर अवलम्बित दीखती है। यदि उससे भी गहराई में उतरा जा सके तो प्रतीत होगा कि चरम मूल तक पहुँचते-पहुँचते मात्र शब्द गुँजन ही शेष रह जाता है। ॐकार एवं उसके परिकर की अन्यान्य ध्वनियाँ उस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड की भूतकालीन घटनाओं, वर्तमान की परिस्थितियों तथा भावी सम्भावनाओं का सारा ढाँचा इन्हीं चित्र-विचित्र स्तर की ध्वनि तरंगों पर खड़ा पाया जाता है। प्रकाश, ऊर्जा आदि की अन्यान्य तरंगें तो ध्वनि की परिणति एवं सहचरी मात्र है। नादयोग में इन्हीं को सुनने, समझने का अभ्यास किया जाता है ताकि उस आधार पर अपनी आन्तरिक स्थिति का विश्लेषण, पर्यवेक्षण किया जा सके एवं प्रकृति में चल रही सामयिक हलचलों का आधारभूत कारण समझकर अपनी ज्ञान परिधि को अत्यधिक व्यापक बनाया जा सके एवं भूतकाल के स्मृति-कम्पनों और भविष्य में घटित होने वाले प्रकरणों का पूर्वाभास उपलब्ध हो सके। नादयोग की शब्द साधना को ‘कालजयी’ कहा जाता है। उस आधार पर हम इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होने वाले सर्वविदित प्रचलन से छलाँग लगाकर दिव्य ध्वनियों के माध्यम से अपनी ज्ञान सम्पदा को न केवल अधिक प्रखर वरन् उच्चस्तरीय भी बना सकते हैं। ऋषियों को दृष्टा, त्रिकालदर्शी, सर्वज्ञ आदि की सिद्धियाँ इसी आधार पर उपलब्ध होती थी। यह चरम परिणति की चर्चा हुई। सामान्य स्तर पर भी नादयोग की आरम्भिक साधना परा प्रकृति और कायगत तत्व प्रपंच के साथ संगति बिठाती है और अदृश्य क्षेत्र के साथ आदान-प्रदान के नये द्वार खोलती है।
बिन्दुयोग की तरह नादयोग में भी ध्यान मुद्रा पर एकान्त स्थान में बैठते हैं। स्थूल ध्वनियों को रोकने के लिए कान में रुई लगा देते हैं। इसके उपरान्त प्रयत्न करते हैं कि प्रकृति के गर्भ में प्रवाहित दिव्य ध्वनि तरंगों का सुनना सम्भव हो सके। आरम्भ में बहुत धीमा अनुभव होता है। जो सुनाई पड़ता है वह बंसी, नफीरी बजने, झींगुर बोलने, भ्रमर गूँजने, बादल बरसते झरना झरने जैसा हलका होता है। बाद में अधिक प्रखरता, उत्तेजना और उतार-चढ़ाव भी उत्पन्न होने लगता है। यह दिव्य ध्वनियाँ बड़ी मोहक और आनन्ददायक होती है। इनकी तुलना सर्प को, मृग को मोहने वाले वीणा निनाद से दी जाती है। रामलीला में कन्हैया की वंशी बजने और गोपियों का, प्रवृत्तियों का नाच होने की संगति भी इसी नादयोग साधना के साथ जुड़ती है। ॐकार जप, सोऽहम् धारणा, मन्दिरों में शंख-घड़ियाल की ध्वनि का आधार भी यही है। नारद की वीणा, शंकर का डमरू, सरस्वती का सितार अलंकार रूप में इस नादयोग के रहस्यों का ही उद्घाटन करने वाले संकेत हैं।
कल्प साधना में तीसरा अनिवार्य अभ्यास लययोग का है। इसमें शरीराभ्यास की आत्मसत्ता के साथ समर्पित विसर्जित करना पड़ता है। आमतौर से मनुष्य अपने आपको शरीर भर मानता है और उसी की इच्छा, आवश्यकता पूरी करने में जुटा रहता है। आत्मा की उसके स्वरूप, लक्ष्य एवं उत्तरदायित्व को तो एक प्रकार से विस्मृत ही किए रहता है। यह वह भटकाव है जिसे मायापाश, भव-बन्धन आदि नामों से पुकारते हैं। यदि अपना स्वरूप समझा जा सके, क्षमताओं का अनुमान लग सके, लक्ष्य का स्मरण आ सके और भावी सम्भावनाओं की सुखद कल्पना उठ सके तो मनुष्य निश्चय ही वर्तमान की मृगतृष्णा, भटकन, विसंगति, दुर्गति से ऊँचा उठकर उस महान के साथ संयुक्त होता है जिसकी विवेचना आत्म-बोध स्वर्ग, लक्ष्यबोध, ईश्वर दर्शन, दिव्य जीवन आदि नाम के साथ की जाती है। पुरुष से पुरुषोत्तम, नर से नारायण, क्षुद्र से महान, अर्ध-मृतक से अमर होने की बात इसी स्थिति के सम्बन्ध में कही जाती है जिसमें शरीराभ्यास को आत्मानुभूति के रूप में परिणत किया जाता है। इस प्रयास को महान साहस, परम पुरुषार्थ एवं चरम सौभाग्य कहा जाता रहा है।
ध्यान मुद्रा में बैठकर दर्पण को सामने रखा जाता है। अपने चेहरे पर सज्जा सौंदर्य की नहीं एक विशेष दृष्टि डाली जाती है कि इस माँस-पिण्ड के भीतर सृष्टा का प्रतिनिधित्व करने वाली आत्मसत्ता विद्यमान है। वही इस काया की अधिष्ठात्री है। उसी का उत्कर्ष परम लक्ष्य है। काया उसी प्रयोजन की पूर्ति का वाहन, साधन, उपकरण मात्र है। शरीर की सार्थकता आत्मा के प्रति वफादार, जिम्मेदार और ईमानदार रहने में ही है। आत्मा काया का पोषण तो सही रूप से करे पर साथ ही यह भी ध्यान रखे कि उसे उच्छृंखल बनाने वाली वासना, तृष्णा, अहंता के आक्रमण से सुरक्षा का प्रबन्ध भी होता रहे। जीवन यज्ञ है। इसे भ्रष्ट करने वाले सुबाहु, मारीच और ताड़का से तुलना इन्हीं उपरोक्त दानवी महत्त्वाकाँक्षाओं से दी गई है जो विनाश और पतन के सरंजाम ही रचती रहती है।
कल्प साधना में उपरोक्त तीनों साधनों को न केवल अनिवार्य माना गया है वरन् सरल भी बनाया गया है। दीपक और सूर्य के स्थान पर नीलाभ विद्युत दीप साधकों के हर कमरे में लगाए गए हैं। नादयोग का आरम्भिक अभ्यास करने के लिए टेप रिकार्डर के माध्यम से उपयोगी स्वर लहरियाँ सुनाई जाती हैं ताकि सूक्ष्म नाद को अधिक स्पष्ट होने का मार्ग खुले। उपयुक्त साइज का दर्पण हर कमरे में पहले से ही रखा मिलता है। तीनों साधनाएँ आरम्भिक स्तर के साधक भी सरलतापूर्वक चला सकें इसके लिए यथा सम्भव अधिकाधिक सुविधा, सरलता उत्पन्न की गई है। व्यवस्था ऐसी है जिसमें उपरोक्त तीनों योगाभ्यास साधनाएँ बिना किसी कठिनाई के आरम्भ की जा सके । वे जैसे-जैसे विकसित परिपक्व होती है वैसे-वैसे अपने सत्परिणाम भी प्रत्यक्ष करती चली जाती है।