प्रायश्चित और उत्कर्ष के लिए ज्ञान-यज्ञ का प्रज्ज्वलन

November 1982

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परिशोधन के लिए तप, प्रगति-परिष्कार के लिए पुण्य का सुयोग बिठाना पड़ता है। तीर्थसेवन में भी यही करना पड़ता है। तीर्थयात्रा, पदयात्रा में जहाँ संयम बरतने, साधु जीवन अपनाने की आवश्यकता पड़ती है वहाँ सद्ज्ञान की धर्मधारणा जन-जन को हृदयंगम कराते हुए प्रयास क्रम में क्रमशः आगे बढ़ना होता है। इस उद्देश्य के लिए प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत दो-दो की साइकिल टोलियाँ प्रव्रज्या पर निकलने की उपयोगिता बतायी है और युग शिल्पियों को इस प्रक्रिया में जुटने के लिए कहा है। दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन जहाँ अवसर हो वहीं ढपली पर युग संगीतों का गायन, रात्रि को ज्ञान गोष्ठी-विचार-विनिमय क्रम चलता रह सकता है। साइकिलों को भारवाहन के रूप में पदयात्रा का एक सहायक वाहन उपकरण भर माना गया है। उसका उपयोग आवश्यक सामान लादने तथा सुविधानुसार सवारी गाँठने का उपक्रम चलाते रहा जा सकता है। अपने घर से हरिद्वार तक की तीर्थयात्रा इसी प्रकार की जा सकती है। एक रास्ते जाने दूसरे से आने में भिन्न भिन्न मार्गों गाँवों के निवासियों से संपर्क बनता है। इन दिनों इसी आधार पर तीर्थयात्री टोलियाँ चलनी चाहिए। सत्रों में सम्मिलित होने वाले इसी प्रकार आवा जाया करें तो उनकी सत्र-साधना में तीर्थ-सेवन के तत्व और भी अच्छी तरह बढ़ी-चढ़ी मात्रा में मिल जाया करेंगे।

कई लोगों को अनेकानेक तीर्थों को देखने की इच्छा होती है और वे उसी निमित्त खर्चीली और कष्टसाध्य यात्रा करते भी हैं। स्पष्ट है कि इस भगदड़ में पर्यटन तक का आनन्द न रहने पर उसका पुण्य फल तो मिलता ही कहाँ है। प्रस्तुत लकीर पीटने वाली चिन्ह-पूजा में आँखों से ही मन्दिरों का आकार-प्रकार देख लेने भर का लाभ है। इस ललक को पूरा करने की भी शान्ति-कुँज में व्यवस्था की गई है। इसमें भारत के सभी महत्वपूर्ण तीर्थ-देवालयों के बड़े साइज के असली फोटो चित्र स्थापित किये गये हैं। साथ ही उनके साथ मन्दिरों जैसी सज्जा भी बिठा दी गई है। भाव-श्रद्धा के साथ इनका दर्शन-नमन करने का वही पुण्यफल प्राप्त हो सकता है जो उन-उन स्थानों में जाकर उन इमारतों, प्रतिमाओं को देखने से मिलता। स्पष्ट है कि प्रतीकों की अपनी कोई शक्ति नहीं, वे भक्त की श्रद्धा के अनुरूप ही अपनी सामर्थ्य का परिचय देते हैं। मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली, एकलव्य के मिट्टी से बने गुरु कितने सच्चे और कितने समर्थ थे-यह सर्वविदित है। यह समर्थता उन भक्तों ने अपनी श्रद्धा का प्रतिरोपण करने से प्रकट की थी। अश्रद्धालुओं के लिए तो तब भी पाषाण खण्ड मात्र थे और अब भी उन प्रतिमाओं का वास्तविक मूल्य नगण्य जितना है। इस श्रद्धा के बल पर ही गणेश जी धरती पर ‘राम नाम’ लिखकर उसकी परिक्रमा करने वाले देवताओं की तुलना में वरिष्ठ सिद्ध हुए थे। तीर्थ स्थानों के दर्शनों पर निकलने वाले यात्रियों का प्रयोजन यदि वस्तुतः तीर्थ दर्शन में विश्वास हो तो उसकी पूर्ति गायत्री तीर्थ में प्रतिष्ठित “तीर्थ मंडल कक्ष” का भावनापूर्वक दर्शन-नमन करते रहने से भी पूरी हो सकती है।

हिमालय को देवात्मा माना गया है। जड़ होते हुए भी अपनी आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण उसे प्रत्यक्ष देवता माना गया है। इसी प्रकार गंगा की पवित्रता प्रख्यात है। उसे तरण-तारिणी कहा जाता है। हिमालय की छाया और गंगा की गोद में साधना की उच्चस्तरीय सफलता मिलने की फलश्रुति कही सुनी जाती है। इन दोनों का भी गायत्री तीर्थ में एक समन्वित देवालय बनाया गया है। यह दर्शनीय है। आदि उद्गम पर भागीरथ को और अन्त समापन पर परशुराम को प्रहरी माना जाता है। उनके प्रतीक भी इस देवात्मा हिमालय कक्ष में प्रतिष्ठित हैं। इन्हें देख कर समूचे हिमालय में परिभ्रमण की-उसके दिव्य दर्शन की-भावना को एक सीमा तक पूरा किया जा सकता है। प्रतीकों की दुनिया में भावुक जनों की श्रद्धा को ही प्राण माना गया है। उसे शान्ति कुँज में अवस्थित प्रतीकों के साथ यदि जोड़ा जा सके तो समग्र हिमालय, सम्पूर्ण गंगा उनके अंचल में अवस्थित तीर्थों का दर्शन एक ही स्थान पर गणेशजी की तरह घर बैठे किया जा सकता है। गायत्री के गर्भ में सभी देवताओं का, सभी मन्त्रों का निवास है। प्रयत्न यह किया गया है कि गायत्री तीर्थ, शान्ति कुँज में उपरोक्त सभी महान प्रतीकों के दिव्य-दर्शन एक साथ उपलब्ध हो सकें। इस दर्शन का कितना पुण्यफल मिलेगा? इसका उत्तर एक शब्द में दिया जा सकता है कि साधक की जितनी गहरी-उथली श्रद्धा होगी, उतना। इस दृष्टि से सम्पूर्ण तीर्थयात्रा का लाभ मिल सकने वाला सुयोग भी कल्प साधकों को सहज उपलब्ध होता है। इस प्रकार दर्शन-झाँकी से सम्बन्धित तीर्थ प्रयोजन की यहाँ बिना किसी खर्च या कष्ट के भली प्रकार पूर्ति हो जाती है।

प्रायश्चित्त प्रकरण में जहाँ तक तितीक्षा का सम्बन्ध है वह चांद्रायण व्रत के समान ही आहार कल्प के माध्यम से भली प्रकार पूर्ति हो जाती है। आधे पेट रहने का जो सिद्धान्त चांद्रायण में है उसी की पूर्ति दूसरे तरीके से कल्प प्रक्रिया में भी हो जाती है। अनुष्ठान, जप, तप का जो विधान प्रायश्चितों के अवसर पर करना होता है, उससे कम नहीं कुछ अधिक ही इस साधना में समाविष्ट किया गया है। जप-ध्यान-उपवास के अतिरिक्त अनुष्ठानों में दशांश या शतांश आहुतियों का भी नियम है। कल्पकाल में हुए अनुष्ठान के अनुपात से शतांश नहीं दशांश आहुतियाँ भी इस एक महीने के नित्य हवन-क्रम के साथ सम्पन्न हो जाती है।

आत्मिक प्रगति के प्रमुख अवरोध संचित दुष्कर्मों का निष्कासन प्रायश्चित प्रक्रिया से ही सम्भव है। उसका पूर्वार्ध दुर्घटनाओं का किसी अनुभवी अध्यात्म चिकित्सक के सम्मुख वमन-प्रकटीकरण एवं आत्म प्रताड़ना के रूप में व्रत-अनुष्ठान की कष्ट सहन तप-साधना से पूर्ण हो जाता है। कल्प-साधना के दिनों ही यह दोनों प्रकरण पूरे हो चुके होते हैं। उत्तरार्ध में उस क्षति को पूरा करना चाहता है जो अनीति आचरण के द्वारा अवांछनीय परम्पराओं के प्रचलन के रूप में फैलायी गई होती हैं। पाप-कर्मों में कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें शोषण-अत्याचार तो नहीं कह सकते, पर उनके कारण उपयोगी मर्यादाओं का उल्लंघन एवं अवांछनीयता का छूत रोगों की तरह विस्तार होता है। एक से दूसरे तक दुष्प्रभाव पहुँचता है और प्रकारान्तर से समूचे समाज को दुःखद दुष्प्रवृत्तियों के गर्त में धकेलता है। उदाहरण के लिए व्यभिचार और रिश्वत दो ऐसे पाप हैं, जिनका सहयोगपूर्वक ही आदान-प्रदान होता है। अत्याचार होना ही पाप की परिभाषा होती तो इन्हें पाप न गिना जाता, पर चूँकि उनसे भ्रष्टाचार की छूत फैलती है और मर्यादाओं का व्यतिक्रम होता है, अतएव वे पाप माने गये हैं। समर्थ होते भी दान, जुआ, दहेज, लाटरी, उत्तराधिकार आदि के रूप में लिया हुआ धन भी बिना परिश्रम के होने के कारण हेय माना गया है। व्यक्तिगत आत्महत्या के रूप में आलस्य, प्रमाद, नशा दुर्व्यसन, अपव्यय, आदि को भी पातक माना गया है। चोरी, हत्या, ठगी आदि तो आक्रामक उत्पीड़क होने के कारण प्रत्यक्ष पाप है ही। इन सबसे व्यक्ति विशेष को भी हानि पहुँचती है, पर सबसे बड़ा अनाचार समूचे समाज में दुर्बुद्धि का, दुष्प्रवृत्तियों का विस्तार होना है। पाप-पुण्य का तत्व-दर्शन यही है कि उससे मानवी श्रेष्ठता या निष्कृष्टता पर क्या प्रभाव पड़ा। यों आक्रामक अनीति भी कम निन्दनीय नहीं है, पर उससे भी बड़ी बात समग्र शालीनता है। उस पर पड़ने वाले प्रभाव को ही प्रमुख माना जाता है। हत्या तो कई बार न्यायाधीश भी अपराधी को मृत्यु-दण्ड देकर करा देते हैं।

कल्प साधना के साधक अपने पापकर्मों का प्रकटीकरण करते हैं। उनमें से कुछ घटनाएँ विशिष्ट होने के कारण उन्हें विशेष परामर्श दिये जाते हैं। ऐसे अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी को एक ही सुझाव दिया जाता है कि वे सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के निमित्त जितना अधिक सम्भव हो उतना समयदान, साधनदान प्रस्तुत करें और प्रायश्चित का उत्तरार्ध प्रक्रिया भी पूर्ण करें।

इन दिनों आपत्तिकाल जैसी स्थिति हैं। सर्वत्र आस्था संकट छाया हुआ है। दुर्बुद्धि ने भ्रष्टता और दुष्टता को चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। बौद्धिक, वैज्ञानिक, आर्थिक प्रगति कम नहीं हुई है, फिर भी दुर्बुद्धि की बहुलता ने हर क्षेत्र को कठिनाइयों, समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं से भर दिया है। ऐसी दशा में दुर्घटनाग्रस्तों का अस्पताल भिजवाने की तरह इन दिनों लोकमानस के परिष्कार की ही बात सोचनी चाहिए। उस एक में ही समस्त समस्याओं का समाधान सन्निहित है। प्रज्ञा अभियान इसी प्रयास का नाम है। विचारक्रान्ति, ज्ञानयज्ञ, आदि नाम इसी के हैं। प्रायश्चित की दृष्टि से भी इस सामयिक आवश्यकता की पूर्ति अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इतना ही नहीं जन-कल्याण और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण भी, इसी के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे उच्चस्तरीय पुण्य-परमार्थ भी कह सकते हैं।

प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत यों अनेकों कार्यक्रम आते हैं जिनसे व्यक्ति , परिवार और समाज के नव-निर्माण में सहायता मिलती है। उनमें से कितने ही सुधारात्मक भी है, जिन्हें नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्राँति के नाम से जाना जाता है। इन सब का यदि एक केन्द्र बिन्दु ढूँढ़ना हो तो उसे स्वाध्याय मंडलों का संस्थापन और संचालन कह सकते हैं। यह हर स्थिति के व्यक्ति के लिए नितान्त सरल है। साथ ही उस बीजारोपण का अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होना भी हथेली पर सरसों जमने की तरह हाथों-हाथ देखा जा सकता है। प्रज्ञा साहित्य जिनने पढ़ा है वे जानते हैं कि उनकी बाजारू किताबों से कोई तुलना नहीं। इसे तत्व-दर्शन का, नीति शास्त्र का, सामाजिक आदर्शवादिता का सार-संक्षेप एवं मणु-संचय कह सकते हैं। जिसने इसे एकबार पढ़ा अनुप्राणित एवं चमत्कृत होकर रहा है। यह आलोक जहाँ भी जला है प्रकाश फैलाये बिना नहीं रहा। यह लपटें जहाँ भी उठी हैं वहीं उष्मा और आभा का तत्काल अनुभव हुआ है। इसके पठन-पाठन की सुनियोजित प्रक्रिया को अग्रगामी एवं व्यापक बनाने की दृष्टि से ही इन दिनों सर्वत्र स्वाध्याय मंडलों की स्थापना की जा रही है। इस युगान्तरीय चेतना में अपना समय एवं धन जितना भी लग सके प्रायश्चित एव पुण्य अर्जन की उभयपक्षीय आवश्यकताओं का दृष्टि से जी खोलकर लगाया जाना चाहिए। ऐसे ही दान बीजारोपण कहे जाते हैं। मक्का के एक दाने से एक पौधा उत्पन्न होता है। एक पौधे पर पाँच भुट्टे आते हैं। एक भुट्टे में प्रायः पाँच सौ दाने होते हैं। इस प्रकार एक बीज की परिणति ढाई हजार बीजों के रूप में तीन महीने के भीतर ही हो जाती है। लगभग इसी स्तर का प्रयास स्वाध्याय मंडलों में से प्रत्येक को तीस स्वाध्यायशीलों का एक सर्किल बनाना होता है। नियमित रूप से बिना मूल्य प्राणवान साहित्य मिलते रहने से इस मंडली के जीवन-क्रम स्तर में जो उत्साहपूर्वक परिवर्तन होता है उसका आभास पाने भर से हर किसी को उनकी उपयोगिता एवं गरिमा का विश्वास होता चला जाता है।

स्वाध्याय मण्डलों की रूपरेखा अत्यन्त सरल है। एक भावनाशील व्यक्ति आगे बढ़े। अपने जैसी प्रकृति के अन्य चार भी ढूँढ़े। यह पाँच नैष्ठिक सदस्यों का एक स्वाध्याय मण्डल बना। इन पाँचों को अपने-अपने संपर्क क्षेत्र के पाँच-पाँच व्यक्ति ऐसे तलाश करने होते हैं जिनका रुझान धर्म एवं विवेक की ओर हो। वे अपने से सम्बन्धित लोगों को नियमित स्वाध्याय के लिए सहमत करें साथ ही, ऐसा प्रबन्ध करें कि पाँचों सदस्य अपने सम्बन्धित पाँच-पाँच स्वाध्यायशीलों तक प्रज्ञा साहित्य नियमित रूप में देने और वापस लेने का क्रम चलाते रहें। संक्षेप में यही है वह स्वाध्याय मण्डल योजना जिसे प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत सर्वोपरि प्रमुखता दी जा रही है। कल्प साधक अपने पाप नाश एवं पुण्य संवर्धन की दृष्टि से इस प्रयास में पूरी तत्परता के साथ संलग्न हों


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