तीर्थ सेवन का पुण्य धर्मशास्त्रों और आप्त वचनों में असाधारण बताया गया है। उस प्रक्रिया का माहात्म्य इतना अधिक बताया गया है जिसकी तुलना में अन्य सब धर्मानुष्ठान हल्के पड़ते हैं। प्राचीनकाल में जीवन का पूर्वार्द्ध व्यतीत होते-होते लोग वानप्रस्थ धारण करते थे और संचित कुसंस्कारों का प्रायश्चित करने तथा धर्म प्रचार का पुण्य परमार्थ अर्जित करने की दृष्टि से लम्बी तीर्थ यात्रा पर निकलते थे। इस प्रकार का सोद्देश्य और कष्टसाध्य प्रयास तपश्चर्या में गिना जाता था। इसलिये उस प्रयास को पदयात्रा द्वारा करने का विधान है, ताकि अधिक जनसंपर्क सध सकें और रास्ते में मिलने वालों की धर्म-धारणा उत्तेजित उत्साहित करने का अधिकाधिक अवसर मिल सके। ढर्रे का जीवनक्रम एक प्रकार के कठोर बन्धन के रूप में बँध जाता है, फलतः आदर्शों के सम्बन्ध तो सोचते रहना भर ही सम्भव होता है, करते-धरते कुछ बन नहीं पड़ता। इस व्यवधान को रास्ते से हटाने के लिए कुछ समय पर छोड़ने की आवश्यकता पड़ती है, ताकि अभ्यस्त ढर्रे का चक्रव्यूह तोड़ा नहीं तो शिथिल तो किया ही जा सके। तीर्थयात्रा का सारभूत स्वरूप और उद्देश्य वही है।
पापों के प्रायश्चित्त में तीर्थयात्रा का सुनिश्चित प्रावधान है। मात्र क्षमा माँगने से दुष्कर्म का संचित भण्डार हटता नहीं, स्थान-दर्शन जैसी चिन्ह-पूजा भी इतने बड़े भार को हटाने में समर्थ नहीं हो सकती। खोदी हुई खाई पाटने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। इन कुकर्मजन्य कुसंस्कारों को निरस्त करने से ही आध्यात्मिक प्रगति का पथ-प्रशस्त होता है, इसलिए कुछ ऐसा साहस करना होता है जिससे कषाय-कल्मष धुले और प्रस्तुत श्रद्धा-सद्भाव नये सिरे से उभरें। यह समूचा प्रयोजन दीर्घ सेवन से पूरा होता है, इसलिए उसे तीन उद्देश्य पूरा करने वाला माना गया है। पाप कर्मों का प्रायश्चित-मध्यवर्ती परिवर्तन का साधना− विधान-उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित निर्धारण और उसे कार्यान्वित करने का व्रत-धारण यह तीनों प्रयोजन जहाँ पूरे होते हों, समझना चाहिए कि वह समग्र तीर्थ यात्रा विधिवत् सम्पन्न हुई और शास्त्रों का पुण्यफल का अवसर बना। कल्प-साधना वस्तुतः तीर्थ सेवन की पुरातन परम्परा का समयानुसार सुनियोजित संस्करण है।
रास्ते में धर्म-प्रचार की पदयात्रा तो जब बन पड़े तब करनी चाहिए, किन्तु मध्यवर्ती परिवर्तन का साधना-विधान कल्प-साधना के दिनों पूरा करने का सुयोग सहज सम्मुख है। उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण भी यही हो सकता है। उसका कार्यान्वयन बाद की बात है। यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रह सकती है।
इन पुरातन तीर्थ परम्परा का तो इन दिनों लोप ही हो गया दृष्टिगोचर होता है। चिन्ह पूजा तो अभी भी होती है। स्थान भी पुराने हैं, उनके साथ जुड़ा इतिहास बड़े जोशीले शब्दों में व्यक्त करने वाले बकवादी भी पाये जाते हैं। फिर भी वहाँ अब जो वातावरण है उसे देखकर समझदार व्यक्ति अपना वहाँ जाना निरर्थक ही मानता है। उस वातावरण में उबले मनोरंजन और आत्म-प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता। श्रद्धा बढ़ने के स्थान पर अश्रद्धा ही पनपती है। इस निराशा के वातावरण में आशा की एक किरण के रूप में ही शान्ति कुँज गायत्री तीर्थ का नवनिर्माण हुआ है। यहाँ आकर कोई भी साधक मनःस्थिति का व्यक्ति तीर्थ सेवन तथा कल्प साधना के द्विविधि लाभ भली भाँति पा सकता है। विगत की भूलों का परिमार्जन− प्रायश्चित्त तथा भावी जीवन की रूप-रेखा का कल्प-प्रक्रिया में अनुपम निर्धारण किया गया है। कल्प साधना के लिये आये साधकों से सत्र के प्रारम्भिक दिन ही अपनी व्यक्ति गत कठिनाइयों, चिन्ताओं, समस्याओं एवं आकांक्षाओं अनुभव करते रहते हैं कि उन्हें परोक्ष रूप से सूत्र-संचालकों का नित नया सन्देश परामर्श मिल रहा है।
इस विचार विनिमय में एक पक्ष तो वर्तमान समस्याओं से सम्बन्धित है। दूसरा भूतकालीन ऊहापोह और तीसरा भविष्य निर्धारण सम्बन्धी निर्देश। आध्यात्मिक प्रगति में सबसे अधिक बाधक वे कुकृत्य होते हैं जो पके फोड़े पर चुभे काँटे की तरह अंतःक्षेत्र में कुसंस्कार बन कर जमे-गढ़े और कसकते रहते हैं। इन्हें यथावत् रहने दिया जाय तो वे अन्तःचेतना को सन्मार्ग की ओर बढ़ने का जो दण्ड विधान दुर्गति के रूप में भुगतना शेष है उसके लिए सन्मार्ग पर चलने से रोकना ही नरक व्यवस्था का निर्धारित क्रम है। इस अवरोध को हटाने के लिए प्रायश्चित ही एक मात्र उपाय उपचार है। खोदी गयी खाई को पाटना ही होगा। गबन का भुगतान करना ही होगा। क्षमा प्रार्थना नहीं प्रायश्चित साहसिकता अपनाने से ही काम चलता है। अन्यथा अध्यात्म प्रगति को तथा त्रुटिवश हुए पापकर्मों का ब्यौरा लिखवा लिया जाता है। उन्हें मात्र गुरुदेव-माताजी ही ध्यानपूर्वक पड़ते हैं तथा स्वयं निश्चय करते हैं कि किस साधक के लिये क्या निर्धारण किया जाय? कल्प आरम्भ के पूर्व का यह आध्यात्मिक वमन-विरेचन हर किसी के समक्ष नहीं मात्र उन्हीं के समक्ष करना चाहिए जिनके संरक्षण में अपना भावकल्प कराने के लिये साधक स्वयं को सौंपते हैं।’
किसके लिये क्या किया जाता है-इसमें परामर्श और अनुदान दोनों ही सम्मिलित हैं परामर्श में कुछ तो वाणी से कह दिया जाता है। शेष का उत्तर साधक के अन्तराल तक पहुँचाने के लिए मध्यमा, परा पश्यन्ती नाम से समझी जाने वाली त्रिविधि श्रवणातीत वाणियों का उपयोग होता रहता है। साधक एकान्त काल में यह में कोई न कोई विघ्न उत्पन्न होते ही रहेंगे। अस्तु पापों का प्रायश्चित्त तो मानसिक परिमार्जन के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि शरीर के संचित मलों का निष्कासन। कृत्य प्रक्रिया के ये दोनों ही अविच्छिन्न अंग हैं। अस्तु जहाँ साधकों के शरीरगत विकारों का निष्कासन और विशिष्टताओं का अभिवर्धन अभीष्ट है वहाँ यह भी आवश्यक है कि मनःक्षेत्र में कुकृत्यों के कारण उत्पन्न कुसंस्कारों और अवरोधों का भी परिमार्जन किया जाय। इसके लिए किसे क्या करना होगा? इसका निर्णय कराने के लिए साधक अपनी भूलों का उल्लेख करते हैं जिसे पढ़कर उन्हें वापस कर दिया जाता है ताकि अन्य कोई उसे पड़ न सके। इसके साथ ही यह भी बता दिया जाता है कि उन्हें प्रायश्चित्त की दृष्टि से और क्या कुछ करना चाहिए।
शारीरिक, मानसिक विकृतियों के अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयाँ भी सत्र प्रवेश के दिन लिखकर देनी होती है, पर उतने भर से काम नहीं चलता। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के कुशल चिकित्सक हर साधक का शारीरिक, मानसिक पर्यवेक्षण करते हैं।
उसकी विधिवत् रिपोर्ट देते हैं। इस विश्लेषण के आधार पर भी साधकों में से प्रत्येक को जो पृथक्-पृथक् करना होता है उन उपचारों को तभी अलग बता सिखा दिया जाता है। इन विशिष्ट साधना क्रमों में बदलती परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन निर्धारण भी होते रहते हैं। यह जाँच आखिर, मध्य और अंत में तीन बार होने से यह पता चल जाता है कि कल्प साधना किस के लिए किस क्षेत्र में कितनी उपयोगी, अनुपयोगी सिद्ध हुई। इस प्रकार यह एक मास की तीर्थसेवन अवधि यदि ठीक प्रकार निभ सके तो भूतकाल की तुलना में भविष्य को अत्यधिक सफल समुन्नत बनाने वाली सिद्ध होती है।