दिव्य अनुदान की ध्यान धारणा

November 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

युग सन्धि के इस पावन पर्व पर हिमालय के अध्यात्म ध्रुव केन्द्र से जागृत आत्माओं को नव सृजन की क्षमता में अतिरिक्त अभिवृद्घि के लिए कुछ विशेष अनुदान वितरित किया जा रहे हैं। उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और सुसंस्कृत लोक-व्यवहार की दिव्य विभूतियों में अभिवृद्घि करने के लिए कोई भी भावनाशील इन्हें सहज ही उपलब्ध कर सकते है इस दैवी अनुग्रह को जो जितना समेट सकेंगे वे अपना व्यक्ति त्व विकसित करेंगे और आन्तरिक पवित्रता के अतिरिक्त प्रतिभा एवं प्रखरता भी विकसित करेंगे। स्मरण रहे यह अनुदान मात्र उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए ही है, संकीर्ण स्वार्थपरता की मनोकामना तथा लोभ, मोह, विलास एवं अहंकार की लिप्सा तृष्णा पूरी करने के लिए इन दिव्य अनुदानों का उपयोग न हो सकेगा।

इस प्रवाह का समय सूर्योदय के पूर्व से लेकर सूर्योदय का एक घण्टा ही निर्धारित है। इससे पूर्व या पश्चात् उस विशिष्ट अनुदान की उपलब्धि न हो सकेगी। साधना का क्रम-विस्तार इस प्रकार है—

एकान्त खुली हवा का कोलाहल रहित स्थान ढूँढ़े। आसन बिछाकर हिमालय की दिशा में मुँह करके बैठे। पालथी मारकर ध्यान मुद्रा बनायें। ध्यान मुख के पाँच अनुशासन हैं। (1) स्थिर शरीर (2) शान्त चित्त (3) कमर सीधी (4) हाथ गोदी में (5)आँखें बन्द। शरीर और मन की स्थिति ऐसी बना देने में दस पाँच मिनट का समय लगता है। इसके उपरान्त भावनापूर्ण ध्यान करना चाहिए और आँखें बन्द करके कल्पना चित्र इस प्रकार निर्मित करने चाहिए।

हिमाच्छादित हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य का उदय।

—स्वर्णिम किरणों का हिमालय से साधक तक प्रवाह। किरणों का साधक के हृदयचक्र में प्रवेश। इसके उपरान्त उस ऊर्जा का ऊपर मस्तिष्क सहस्रार चक्र तक और नीचे मूलाधार चक्र तक उसका विस्तार। मस्तिष्क और धड़ के सभी अवयव उस आलोक से प्रकाशित। पुलकित और अनुप्राणित।

नस-नस में-रोम-रोम में दिव्य ज्योति का अभ्यास। साधक की आत्मसत्ता प्राण पुँज। प्रज्ञा पुँज। ज्योति पिण्ड जैसी।

—स्थूल शरीर निष्ठावान् । सूक्ष्म शरीर प्रज्ञावान। कारण शरीर श्रद्धावान।

—साधक पर त्रिपदा की स्नेह वर्षा। सविता की शक्ति वर्षा। अनन्त अन्तरिक्ष से अमृत की विपुल वर्षा।

—अन्तरात्मा साधक की रस विभोर। आनन्द से सराबोर। अनुभूति-तृप्ति तुष्टि। शान्ति।

—हिमालय की शक्ति धारा से साधक का परिवर्तन। परिवर्तन-प्रत्यावर्तन-पुनर्जीवन

—परिवर्तन क्षुद्रता का महानता में। परिवर्तन वासना का भावना में। परिवर्तन नर का नारायण में। परिवर्तन उद्वेग का समाधान में।

—विलय, विसर्जन-आत्मा का परमात्मा में। अनुभूति एकत्व अद्वैत।

पाँच बार मन ही मन ॐकार गुँजन। तीन बार प्रार्थनाएँ-असतो मा सद्गमय। मृत्योः माऽमृतंगमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

उपरोक्त ध्यान मौन रूप से मन ही मन किया जाय। मुख से उच्चारण कुछ भी न करें। टेप से उपरोक्त निर्देश मिलते रहें तो उस आधार पर ध्यान-धारणा में सहायता मिलता है और कल्पना चित्र अच्छे उभरते हैं। अन्यथा उपरोक्त सारी क्रम शृंखला पहले बार-बार दुहरा कर स्मृति पटल पर बिठानी पड़ती है। तब प्रवाह ठीक प्रकार बनता है।

यह ध्यान-धारणा नित्य न बन पड़े तो सप्ताह में एक दिन गुरुवार या रविवार को भी की जा सकती है। उस दिन ब्रह्मचर्य, अस्वाद व्रत का पालन हो सके एवं सुविधा के समय दो घण्टे का मौन रखते हुये वह समय आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास के चिन्तन मनन में लग सके तो और भी अच्छा। इस सुयोग से हिमालय की शक्ति धारा को साधक की आत्म सत्ता में गहराई तक प्रवेश करने और रोम-रोम में रम जाने का अवसर मिलता है। यह साधना एकाकी भी हो सकती है और टेप रिकार्डर की सहायता से सामूहिक भी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles