धर्म धारणा की उपेक्षा उसकी विकृतियों के कारण

June 1981

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मोटी दृष्टि से देखने पर धर्म कोई ऐसी मान्यता प्रतीत होती है जो देवी-देवताओं को रिझाने या परलोक में स्वर्ग मुक्ति आदि की उपलब्धियाँ प्राप्त करने से संबंधित है। किसी को धार्मिक, धर्म प्रेमी कहा जाता हो तो समझा जायेगा कि यह व्यक्ति पूजा पाठों, कथा-पुराण जैसे क्रिया-कलापों में निमग्न रहता होगा और सामान्य उत्तरदायित्वों के प्रति उपेक्षा दिखाता होगा। धर्म चर्चा का प्रसंग जहाँ चल रहा हो, समझना चाहिए वहाँ पर लोक का या कथा-पुराणों का ऊहा-पोह हो रहा होगा।

साधारण मनुष्य की समझ में प्रस्तुत धार्मिकता की उपयोगिता नहीं आती। वह उससे नाक-भी सिकोड़ता है। कारण कि उसे इन तथाकथित धर्म प्रेमियों के चिंतन, चरित्र एवं व्यक्तित्व में ऐसी कोई बात दृष्टिगोचर नहीं होती, जिसके आधार पर उनकी किसी भौतिक या आत्मिक प्रगति का पता चलता हो और न उनकी गतिविधियाँ यही सिद्ध करती हैं कि उस चिंतन को अपनाये रहकर वे भविष्य में अपना या अपने संबद्ध व्यक्तियों का कोई भला कर सकेंगे।

धर्म के प्रति अवज्ञा बरते जाने का एक कारण यह भी है कि बहुत समय से धर्म शब्द सम्प्रदायवाद के मत-मतान्तरवाद के लिए प्रयुक्त होता रहा है। प्रथा-परम्पराओं को सम्प्रदाय कहते हैं। इनमें कुछ उचित होती हैं कुछ अनुचित, कुछ उपयोगी, कुछ अनुपयोगी। समय के बदलाव के साथ-साथ कितने ही प्रचलन अनावश्यक हो जाते हैं। सामान्य विवेक बुद्धि के अनुसार उन्हें सुधारा और बदला जाना चाहिए। टूट-फूट की मरम्मत होती रहती है। उसी प्रकार एक समय की उपयुक्तता दूसरे समय अनुपयुक्त हो जाती है। विवेकशील उनमें सामयिक सुधार परिवर्तन करते रहते हैं किन्तु कट्टरवादी धार्मिकता पिछले प्रचलनों को ही पूर्वजों की धरोहर और धर्म मर्यादा मानकर अपनाये रहने के लिए हठ करती है। इस हठवाद में औचित्य का विरोध और अनुचित का समर्थन भी भरा रहता है। ऐसी दशा में विवेक की दृष्टि में धार्मिकता अहितकर सिद्ध होती है और उसके प्रति बुद्धिवादी समाज में उपेक्षा एवं अवज्ञा की वृत्ति पाई जाती है।

धर्म के नाम पर मात्र अपने को ही सही और अन्य सबों को गलत मानने की अहमन्यता पनपती है। हमारे धर्म में सभी दीक्षित हो जायें, यह अत्युत्साह कभी-कभी धर्मोन्माद के रूप में परिणित होता देखा गया है। धर्म परिवर्तन करने के लिए ‘कत्लेआम’ हुए हैं और रक्त की नदियाँ बही हैं। प्रलोभन देकर बहका-फुसलाकर दबाव देकर धर्म परिवर्तन की घटनाएं आये दिन सुनने में आती रहती हैं। सामान्य बुद्धि सोचती है कि जब धर्म के प्रति अत्युत्साह बरतने वालों का यह हाल है तो फिर उसे अपनाने से सर्वसाधारण का क्या हित साधन हो सकता है? धर्मोपदेशकों ने- धर्म ध्वजियों ने जिस प्रकार भ्रान्तियाँ फैलाने और भोले लोगों को ठगने का धन्धा अपना रखा है उससे भी धर्म का गौरव किसी विचारशील व्यक्ति की दृष्टि से बढ़ता नहीं है और न उस ओर किसी प्रकार का आकर्षण पैदा होता है। यही कारण है कि मरने के उपरांत किसी सुखद लोक की कल्पना से कुछ वयोवृद्ध लोग धर्म चर्चा करते देखे गये हैं। कार्य व्यस्त लोग कहते हैं इन बातों के लिए हमें फुरसत कहाँ? इसका अर्थ यह हुआ कि निठल्ले लोगों के लिए ही धर्म प्रसंग उपयुक्त हो सकता है।

संक्षेप में आज यही है धर्म के संबंध में जनसाधारण की मान्यता। जिसकी उपयोगिता समझ में न आने से सहज ही उस ओर अरुचि होती है। जो उसमें बहुत रस लेते हैं वे या तो धर्म व्यवसाई माने जाते हैं या फिर उन्हें भूला भटका माना जाता है।

धर्म जिसे मानव जीवन का प्राण कहा जाता है उसकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई? शास्त्र का प्रतिपादन रहा है कि “जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता है वह बेमौत मरता है।” ऐसा महत्वपूर्ण आधार उपेक्षित इसलिए हो गया कि उसका वास्तविक स्वरूप एक प्रकार से ओझल ही हो गया और उस स्थान को धर्म विडम्बना ने हथिया लिया। मूलतः धार्मिकता, कर्तव्य परायणता जो वैयक्तिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को मानवी आदर्शवादिता के आधार पर पूरा करने की प्रेरणा देती है, ऐसी कर्तव्य परायणता जिसके प्रकाश में मनुष्य का चिन्तन और चरित्र दिन-दिन परिष्कृत होता चलता है।

धार्मिकता को दूसरे शब्दों में शालीनता कहा जा सकता है। इसे अपनाने पर व्यक्तित्व का हर पक्ष उदात्त बनता है। अपनी और पराई अवांछनियता पर अंकुश लगाने से जिससे शौर्य उदारता हो और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न करता हो वह धार्मिकता सर्वत्र सराही गई है। सदा सर्वदा उसकी उपयोगिता समझी गई है। उसे व्यक्ति और समाज के लिए हर दृष्टि से हितकर माना गया है। उसी के सहारे प्रगति एवं सुख शान्ति के चिरस्थायी आधार खड़े होते हैं। जब धर्म की अपेक्षा होने लगती है तो व्यक्ति पतन के गर्त में गिरता है और समाज का ढाँचा चरमराने लगता है। वह असन्तुलन देर तक बना रहे तो महाविनाश की घड़ी इस या उस मार्ग से सामने आ खड़ी होती है। ऐसे विषम समय जब कभी आते हैं तो सृष्टा की सन्तुलन शक्ति अवतरण धारण करती है। ऐसा प्रवाह उत्पन्न करती है जिससे असन्तुलन को सन्तुलन में बदला जा सके। अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते रहने की ईश्वरीय प्रतिज्ञा के पीछे यह कारण है कि अधार्मिकता बढ़ने से कहीं संसार के सामने सर्वनाश का संकट न आ खड़ा हो।

धर्म के प्रति दृढ़ रहने के लिए शास्त्रों ने अत्यधिक बल दिया है। आप्त वचनों में जन-साधारण से सही अनुरोध किया गया है कि जीवन को धर्म निष्ठा के साथ पूरी तरह जुड़ा रखा जाय। धर्मकृत्यों और धर्मानुष्ठानों का उद्देश्य एक ही है कि उस क्रिया-कलाप को अपनाये रहने से मनुष्य की धर्म प्रवृत्ति जागरूक बनी रहे। उस प्रेरणा से व्यक्ति सत्कर्म परायण बने, संमार्ग पर चले और अपने तथा दूसरों के लिए हर दृष्टि से उपयोगी सिद्ध हो। धर्म धारणा के प्रति आकर्षण एवं उत्साह उत्पन्न करने से पूर्व आवश्यक है कि सर्वसाधारण को उसका वास्तविक स्वरूप एवं परिणाम समझा जाय। यदि धर्म का तथ्य ठीक प्रकार समझा जा सके तो उसे उतना ही उपयोगी समझा जा सकेगा जितना कि विज्ञान को समझा जाता है। मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं विज्ञान के सहारे पूरी होती हैं और भावनात्मक आन्तरिक समस्याओं का समाधान धर्म तत्व की सहायता से होता है। शरीर की तरह ही यदि आत्मा का भी महत्व समझा जा सके- शरीर पोषण की तरह यदि आत्मा की आवश्यकता पूरी करने को भी महत्व दिया जा सके तो फिर धर्म का स्वरूप जानने की ही नहीं, उसे अपनाने की फलश्रुतियाँ भी समझी जा सकेंगी। ऐसी दशा में आज जो धर्म के प्रति अश्रद्धा है वह उलटेगी और सर्वत्र धर्म परायणता पर बल दिया जाने लगेगा।


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