माया बन्धनों से छूटना ही मुक्ति है। मुक्ति अर्थात् दृष्टिकोण का परिष्कार, तत्व का यथार्थ दर्शन एवं वस्तुस्थिति के अनुरूप यानी विचार पद्धति और कार्य प्रणाली को सही कर लेना। माया बंधन दृष्टिकोण की निकृष्ट स्थिति का और माया मुक्ति परिष्कृत दृष्टिकोण का बोधक है। भगवत् माया तो परा-अपरा प्रकृति के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में आदिकाल से व्याप्त है। उससे छुटकारे का प्रश्न नहीं। माया की शरण अर्थात् माता की गोद। इसमें अहिर्निश सुख ही सुख है। माँ गायत्री की अचल छाया में असीम सुख-शाँति प्राप्त कर सकते हैं।
माँ भगवती कहती हैं।
“युष्मानहं नर्त्तयामि काष्ठ पुत्तलिकोपमाम्। तां मां सर्वात्किकां यूयं विस्मृत्य विजगर्वतः॥ अहंकारा वृतात्मानो मोहमाप्ता दुरन्तकम्। अनुग्रहं ततः कर्त्तुं युष्मद्देश दनुत्तमम्॥ निःसृतं सहसा तेजो मदीयं यक्षनित्यपि। अनः परं सर्वं भावैर्हित्या गर्व तु देहजम्। मामेव शरणं यात सच्चिदानंद रुपिणीम्॥
अर्थात्- मैं आप सबके हृदयान्तश्चारिणी होकर आपको काठ की पुतली की तरह नचाती हूँ। अपने अहंकार से अभिभूत होकर सभी निज गर्व से भूलकर दुर्दान्त को, मोह को प्राप्त होते हैं। उस समय आपके कार्यों की सिद्धि के लिए अनुग्रह करके आविर्भूत होकर तेजःस्वरूप में मैं अवस्थित होती हूं। इसलिये अब आप लोग सर्व से देह के गर्व को त्याग कर सच्चिदानन्द रूपिणी मुझ में ही शरण लीजिये, आपका सर्वत्र शुभ होगा।
माया और मोह परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। जहाँ माया होगी, वहाँ मोह होगा, समझना चाहिये कि मोह, माया का ही प्रभाव है। वस्तुतः समस्त प्रकृति वैभव ही माया है और माया से प्रेरित मनुष्यों से देवताओं तक चैतन्य प्राणधारियों की और दृश्य पदार्थों की गतिविधियों तक में एक माया को ही ओत-प्रोत समझना चाहिये। वस्तुतः अध्यात्म का मर्म यही है कि शक्ति और माया का सही स्वरूप लिया जाये। अज्ञान के अंधकार से जब साधक प्रकाश की ओर बढ़ता है तो उसे तत्व ज्ञान होने लगता है। आद्यशक्ति गायत्री ही समस्त सृष्टि की जननी है। लिंग भेद में पड़ने की आवश्यकता नहीं। वह उससे भी परे एक परमशक्ति, महत् सत्ता है।
अथर्ववेद के दसवें सूक्त में उल्लेख आता है कि गायत्री को जानने वाले साधको ने अमृतत्व की प्राप्ति की है-
‘यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं, त्रेष्ठुभाद्वा, त्रैष्ठुभं निरतक्षत। यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य, इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानुशः॥1॥
गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण, साम त्रेष्ठुभेन वाकम्। वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण, मिमते सप्तवाणीः॥2॥
अर्थात्- गायत्री से संबंधित जो गायत्र पद है अथवा त्रैष्टुप् पद मिलता है अथवा जगती द्वारा जो पद जगती में लक्षित है, जिन साधकों ने उसी को जाना है, उन्होंने अमृतत्व को प्राप्त किया है।
अर्थात्- गायत्री, के साथ प्रत्येक ऋचा को पढ़ा जाता है एवं ऋचा के साथ साम गाया जाता है। त्रिष्टुप के साथ वाक् और वाक् से द्विपदा-चतुष्पदा अक्षर सहित सात छन्दमय सब वेद के अनुवाक् पढ़े जाते हैं। अर्थात् चारों वेद जो सात छन्दों में छंदबद्ध हैं, गायत्री और त्रिष्टुप के आधार पर स्थित हैं।
तैत्तरीयोपनिषद् में भी उल्लेख है-
“गायत्रं प्रातः सवनं त्रैष्ठुभं माध्यं दिनं सवनं जागतं तृतीयं सवनम्॥ (तै.सं. 2, 2, 9, 5-6)
अर्थात्- गायत्री से प्रातः सवन, त्रिष्टुप् से माध्य दिन सवन और जगती से सायं सवन करने वालों को जिस पद की प्राप्ति कही गई है वह ब्रह्म पद ही अमर पद है।