तप, करुणा और त्याग

June 1981

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शैलसुता भगवती पार्वती ने भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए निर्जन वन में घोर एकान्त में तप किया। स्वजनों ने बहुत समझाया कि सर्प, वृश्चिक और भूत-प्रेतों को साथ रखने वाले शरीर पर भस्म मलने वाले अवधूत भगवान भूत भावन के साथ रहकर क्या सुख मिलेगा? विशाल साम्राज्य के उत्तराधिकारी युवराज तुम्हारा वरण करने के लिए तैयार हैं। हठ छोड़ो और सुखद गार्हस्थ्य जीवन का वरण करो।

परन्तु पार्वती अपने संकल्प पर अडिग ही रहीं और निरन्तर तप-तितिक्षा का अनुष्ठान करती रहीं। घोर तप से उन्होंने अपनी सुकुमार काया को तृणवत् जीर्ण बना लिया। तप साधन में अनेक व्यवधान हुए परन्तु वे अविचल निष्ठा से शिव की आराधना में लगी रही।

अन्ततः उनकी अचल निष्ठा और कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिए और पार्वती ने उन्हें पति रूप में पाने की कामना की। आशुतोष शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें यही वर दिया। जानते थे वे कि पार्वती और कोई नहीं पूर्व जन्म की उनकी अर्द्धांगिनी ही है, जिसने अपने पति का अपमान होते देखकर पिता के यज्ञ में आत्मदाह कर लिया था और यज्ञ विध्वंस कर दिया था। सो उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार करने के लिए भगवान शंकर को कोई आपत्तिजनक बात प्रतीत नहीं हुई।

पत्नी रूप में स्वीकार करने के बाद भगवान शंकर अन्तर्धान हो गए। अपनी तपस्या सफल हुई देखकर पार्वती प्रसन्न मन पर्णकुटी के बाहर एक शिला पर बैठी थीं। तभी उन्हें एक बालक का रुदन स्वर सुनाई दिया। बालक आर्त स्वर में पुकार रहा था, हाय! हाय!! मुझे बचाओ। मुझे ग्राह ने पकड़ लिया है।’

बालक का आर्तनाद सुनकर पार्वती दौड़ी गईं। सरोवर तट पर जाकर उन्होंने देखा एक सुन्दर बालक की टाँग मुँह में दबाए ग्राह उसे जल में खींच रहा है। बालक ने पार्वती को देखा तो वह फिर चीखा, ‘मुझे बचाओ देवि! यह ग्राह मुझे अभी ही चबा जायेगा। मैं अपने माता-पिता का एकमात्र पुत्र हूँ।’

बालक का आर्त स्वर सुनकर पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने ग्राह से निवेदन किया ‘महाराज! बालक बड़ा दीन है। इसे छोड़ दीजिए।’

ग्राह ने कहा, देवी! मेरा नियम है कि दिवस की अपराह्न बेला में जो मेरे पास आएगा या मुझे दिखाई देगा उसे ही मैं अपना आहार बनाऊँगा। विधाता ने इस बालक को मेरे पास इसी समय भेजा है इसलिए यह मेरा आहार है।

उत्तर देते समय ग्राह के बंधन कुछ ढीले हो गए और बालक उससे छूटकर पार्वती के पास आ खड़ा हुआ तथा उनके आँचल से लिपट गया। भय के कारण वह थर-थर काँप रहा था।

‘मैं आपसे इस बालक का प्राणदान माँगती हूँ ग्राहराज! आप इसके बदले में जो चाहें मुझसे प्राप्त करे लें।’

ग्राह ने कहा, मैंने सुना है कि ‘आपने ही हिमालय की चोटी पर तप कर भगवान शंकर को प्रसन्न किया है।’

‘आपने ठीक सुना है ग्राह देव! आप चाहें तो मैं उस तप का सम्पूर्ण बल आपको दे सकती हूँ’ पार्वती ने प्रस्ताव किया।

‘तो ठीक है देवी, आपने जो उत्तम तप किया है वही मुझे अर्पण कर दीजिए। मैं इसे छोड़ दूँगा।’

पार्वती ने संकल्प लिया और जल छोड़ा।

इतना करते ही ग्राह का शरीर तप के तेज से चमक उठा। वह एक मानवाकृति में बदल गया और बोला देवी! आपने यह क्या किया? कितना कष्ट सहकर आपने तप किया था और किस महान् उद्देश्य से किया था। ऐसे महान तप का त्याग कर कहीं आप अदूरदर्शिता तो नहीं कर रही हैं?”

‘नहीं देव!’ पार्वती ने कहा ‘‘प्राण देकर भी इस दीन बालक की बचाना मेरा कर्तव्य था। तप तो मैं फिर भी कर लूँगी परन्तु यह बालक फिर कहाँ से आता? मैंने सब कुछ सोचकर ही बालक को बचाया है।’’

यह कहकर पार्वती बालक को लेकर वहाँ से चली गईं। वे पुनः तप का विचारकर पर्णकुटी में संकल्प करने जा रही थी कि भगवान शंकर प्रकट हुए और बोले, ‘नहीं देवि! तुम्हें फिर से तप करने की आवश्यकता नहीं। तुमने जिस करुणा और त्याग का परिचय दिया। उसका पुण्य फल किये गए तप से हजार गुना अधिक है। जाओ, अब तुम पितृगृह जाओ।’


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