यदि हम अपने चारों ओर ध्यानपूर्वक देखें तथा विचार करें कि सूर्य कैसे प्रतिदिन नियमित रूप से उदय और अस्त होता है, चन्द्रमा एवं अन्य ग्रह नक्षत्र कैसे अपनी कक्षा में ही घूमते रहते हैं, प्रकृति अपना काम नियमित रूप से कैसे करती है, तो समझ में आ जायेगा कि इसका नियन्ता भी अवश्य होना चाहिए। जॉन ग्लेन को पहली बार जब ब्रह्माण्ड की विशालता का ज्ञान हुआ तो इसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने विश्वास पूर्वक अपने विज्ञानी साथियों से कहा- ‘‘इतना बड़ा ब्रह्माण्ड बनाने वाला कोई ईश्वर ही होना चाहिए। भले ही आज उसके स्वरूप एवं क्रिया-कलापों को पूरी तरफ समझ सकना संभव न हो सके।”
ब्रह्माण्ड की विशालता जानने के लिए पहले हमें प्रकाश वर्ष जान लेना चाहिए। प्रकाश 1,86,000 मील प्रति सेकेंड की गति से चलता है जो पृथ्वी के प्रायः 7 चक्र के बराबर होता है। यदि किसी प्रकाश किरण को सीधी दिशा में छोड़ा जाय तो एक वर्ष में उसके द्वारा तय की गई 6 मिलियन मील (58,65,69,60,00,000) की अकल्पनीय दूरी को एक प्रकाश वर्ष कहा जाता है।
अब, हमारा ब्रह्माण्ड कितना बड़ा है इसकी कल्पना करें। हमारी आकाश गंगा का व्यास करीब 100, 000 प्रकाश वर्ष है। आकाश गंगा के केन्द्र से करीब 30, 000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर सूर्य अपनी कक्षा में प्रति 200 मिलियन वर्षों में एक चक्कर लगाता रहता है, जबकि आकाश गंगा स्वयं भी घूमती रहती है। सौर परिवार के बाहर इस ब्रह्माण्ड की विशालता की कल्पना करना असंभव है।
ब्रह्माण्ड में केवल हमारी आकाश गंगा ही नहीं है अपितु इसके अतिरिक्त भी लाखों-करोड़ों आकाश गंगाएं अनन्त अंतरिक्ष में अत्यंत भयंकर गति से दौड़ रही हैं। दूरबीन के सहारे हम अपने चारों और फैले इस विशाल ब्रह्माण्ड को मात्र 2 मिलियन प्रकाश वर्ष की दूरी तक ही देख सकते हैं। इसी से पता चलता है कि हमारा ब्रह्माण्ड कितना बड़ा होना चाहिए।
अब तक की खोजों के आधार पर पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु को ही माना गया है। परमाणु की संरचना का पर्यवेक्षण करने पर हमारे सौर मण्डल तथा ब्रह्माण्ड के साथ उसका अद्भुत साम्य पाया गया, क्योंकि परमाणु के अंतराल में काम करने वाले इलेक्ट्रोन आदि घटक भी अपनी धुरी पर अपनी कक्षा में ग्रह-नक्षत्रों की भाँति ही नियमित रूप से घूमते रहते हैं।
मूर्धन्य विज्ञानी कार्ल सेगन का कहना है कि यह सब एक योजनाबद्ध रूप में हुआ था। अंतरिक्ष का यह सुनियोजन एक बड़ी चीज है जो बतलाती है कि ईश्वर नाम की कोई शक्ति है अवश्य। जिसने इस सबों को परिक्रमा पथ में छोड़ दिया है और उनको एक सुसंतुलित नियंत्रण में रखे रहती है।
प्रकारान्तर में यही आस्तिकता है। सूर्य और चन्द्रमा की गतिशीलता को, तारकों और पदार्थ घटकों को अपने स्वरूप, उद्देश्य एवं अनुशासन में निरत देखकर यह विश्वास होना ही चाहिए कि यह सब अनगढ़ रूप से स्वेच्छापूर्वक नहीं हो रहा है।
न केवल ब्रह्माण्डीय विस्तार, पदार्थ का स्वरूप एवं प्राणियों का स्वभाव, निर्वाह एक सुनियोजित व्यवस्था के अनुरूप चल रहा है। वरन् जीवन को विकसित एवं व्यवस्थित रखने के भी कुछ सिद्धांत हैं। उन्हें अपनाने पर व्यक्ति सुखी रहता और समुन्नत, सुसंस्कृत बनता है। यही है वह निर्धारण एवं अनुशासन जिसे तत्त्वदर्शन के रूप में समझा और नीति मर्यादा के रूप में विज्ञजनों द्वारा अपनाया जाता है। संक्षेप में यही आस्तिकता है। इसकी अति, अवज्ञा, उच्छृंखलता बरतने पर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।