प्राचीन काल में शरीर को एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला मानकर उसमें चेतना क्षेत्र को परिष्कृत करने वाले अनेकानेक प्रयोग किये जाते थे। ऋषि इसी अन्वेषण प्रक्रिया में निरत रहते थे। इसके लिए उन्हें शान्त-एकान्त वातावरण की आवश्यकता पड़ती थी। साथ ही आहार-विहार में कई तरह के परिवर्तन करके काय प्रयोगशाला की परिस्थिति ऐसी बनानी पड़ती थी, जिसमें अभीष्ट अन्वेषण सरलतापूर्वक सम्पन्न हो सके। जन-संपर्क से चिन्तन एवं अन्वेषण में विघ्न पड़ता है। यह तथ्य आज भी प्राचीनकाल की तरह ही यथावत् बना हुआ है।
पुरातन योगी अपना रहन-सहन भी ऐसा रखते थे, जिसमें सुदूर एकान्त में रहते हुए भी निर्वाहक्रम चलता रहे। मृग चर्म, भोज पत्र आदि के वस्त्र, सहज उपलब्ध घास-फूँस के झोपड़ों, लौकी जैसे कड़ी छिलकों के कमण्डलु पात्र, शीत तथा हिंस्र पशुओं से रक्षा के लिए अग्नि धूनी, वस्त्रों के अभाव में शरीर पर भस्म पोतना, स्वयं उगाये या सहज पाये कन्द शाकों का आहार, हजामत की सुविधा न रहने से केश वर्धन, स्त्री बच्चों का उत्तरदायित्व बढ़ने से एकाग्रता में अवरोध जैसे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उन दिनों जो प्रक्रिया शोधकर्ताओं द्वारा अपनाई जाती थी। उसका अनुकरण करना सर्वसाधारण के लिए उन दिनों भी आवश्यक नहीं थी। राजाजनक जैसे अनेक ब्रह्मवेत्ता सामान्य जीवनयापन करते और योगाभ्यास के उच्चस्तरीय प्रयोगों में निरत रहते थे। अन्वेषी वैज्ञानिकों को शोध काल में अपनी काया का प्रयोगशाला बनाने के निमित्त जो असाधारण प्रक्रिया अपनानी पड़ती है, उसे आज के सामान्य अभ्यासी भी अपनाये इसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। शोध विज्ञानियों की परिस्थिति दूसरी होती है और निर्धारित प्रक्रिया पूरी करते रहने वाले कारीगरों की दूसरी।
भगवान शंकर योगेश्वर कहे जाते हैं वे सद्गृहस्थ थे। पत्नी और बच्चों समेत रहते थे। योगिराज कृष्ण का जीवन भी पारिवारिक था। वशिष्ठ के सौ पुत्र होने की कथा प्रख्यात है। सप्त ऋषियों में से सभी गृहस्थ थे और पत्नियों समेत अपनी गतिविधियाँ सुसंचालित रखते थे। विवाहित या अविवाहित रहना सामान्य जीवन में भी स्वेच्छा पर निर्भर रहता है। योग प्रयोगों के अभ्यास भी इस संबंध में अपनी सुविधा या इच्छा से निर्णय कर सकते हैं। ऐसा कोई बंधन है कि योगाभ्यासी अविवाहित ही रहें और जो गृहस्थ हैं वे अपने परिवार का परित्याग ही कर दें। भगवान बुद्ध जैसे कुछ उदाहरण ऐसे हैं जिन्हें आपत्तिकालीन आवश्यकता की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसे तो राष्ट्र रक्षा के लिए सैनिक भी बिना घर परिवार की चिन्ता किये सर्वस्व बलिदान का साहस लेकर युद्ध मोर्चे पर जाते हैं। न तो हर सैनिक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने बाल-बच्चों से मुँह मोड़ ले और न हर योगाभ्यासी के लिए यह अनिवार्य है कि गृह-त्यागी बैरागी होकर रहे।
मध्यकाल में विशेषतया बौद्धकाल में, गृह त्यागी भिक्षुजनों का प्रवाह उत्पन्न हुआ था। विश्व परिष्कार के लिए उस समय उस प्रकार की सेना भरती करनी पड़ती थी जो सुदूर देशों में जाकर धर्मचक्र के प्रवर्तन में निश्चिंततापूर्वक संलग्न रहें। उस स्तर के लोगों के लिए इन दिनों भी वैसे ही अनुकरण की आवश्यकता है किंतु जिन्हें मानसोपचार एवं व्यक्तित्व के समान सम्वर्धन के लिए योगाभ्यास करता है उनके लिए उस अनुसरण की आवश्यकता नहीं जो किन्हीं विशेष परिस्थितियों में किन्हीं विशेष व्यक्तियों द्वारा विशेष उद्देश्यों के लिए अपनाया गया था।
आज योगाभ्यास के पूर्ण निर्धारित विधि-विधानों से लाभ उठाने भर की आवश्यकता है। ऐसी दशा में शोधकर्ताओं की तरह काया की प्रयोगशाला बनाने की बात सर्वसाधारण के सोचने की नहीं है। फिर भी भ्रान्तियाँ तो भ्रान्तियाँ ही हैं वे मान्यता बन जाती हैं जो जड़ जमा लेती हैं। आज कोई अभिभावक अपने बच्चो को योग संबंधी पुस्तकें पढ़ते या इस प्रकृति के लोगों के साथ मिलते-जुलते देखता है तो नाराजी व्यक्त करता और रोकता है। माता अपनी सन्तान को, पत्नियाँ अपने पतियों को योग चर्चा में रस लेते सहन नहीं करतीं। इसका कारण है-तथाकथित योगियों का आर्थिक परावलम्बन उत्तरदायित्वों से पलायन- अकर्मण्य समयक्षेप तथा अनुपयोगी असामाजिक जीवनक्रम। स्वभावतः ऐसी हेय स्थिति उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया के प्रति जनसाधारण में तिरस्कार उभारना ही चाहिए। उसे अपनाने में असहमति रहनी ही चाहिए।
इतने पर भी वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। बदली छा जाने पर सूर्य कुछ डूबा हुआ प्रतीत तो होता है, पर तथ्यतः वह कुहासे से ढका भर होता है। बदली हटते ही वह अपने वास्तविक रूप में बिना किसी कठिनाई के प्रकाशवान हो उठता है। योग विज्ञान के संबंध में भी ऐसी ही बात है। वह पदार्थ विज्ञान की तरह ही अध्यात्म विज्ञान भी है। एक प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करता है दूसरा पुरुष से, चेतन से संबंधित तथ्यों को प्रकाश में लाता है। अध्यात्म विज्ञान के दो पक्ष हैं- (1) तत्व-दर्शन (2) योगाभ्यास। तत्व दर्शन की विवेचना ब्रह्म विद्या के अंतर्गत की गई है। इससे दृष्टिकोण का परिष्कार होता है। मान्यता, भावना, आकाँक्षा, सम्वेदना एवं विचारणा को उच्चस्तरीय बनाने में ब्रह्म विद्या के तत्व दर्शन की भूमिका ही काम करती है। संक्षेप में इसे व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का उपचार कह सकते हैं। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन और मनन यह चार अवलम्बन ब्रह्म विद्या को हृदयंगम कराते हैं। उपनिषदों का यही विषय है।
अध्यात्म विज्ञान की दूसरी धारा है- योगाभ्यास। जिसे साधना विधान एवं तप उपचार भी कहते हैं। ब्रह्म विद्या भोजन है तो योगाभ्यास व्यायाम। स्वास्थ्य संवर्धन की प्रक्रिया अनुशासनपरक है। चिकित्सा उपचार में घुसी हुई विषाक्तता से निपटने की विधि व्यवस्था है। एक-दूसरे के पूरक होते हुए भी दोनों आत्म-निर्भर है। दोनों की अपनी स्वतन्त्र विधि-व्यवस्था है।
यहां चर्चा योगाभ्यास की हो रही थी। इसे प्रधान रूप से मानसोपचार कह सकते हैं, यों उसमें शारीरिक अंग अवयवों को उपयुक्त कृत्यों में लगाकर आरोग्य सम्वर्धन की व्यवस्था भी बनाई जाती है। आसन प्राणायाम, बेध, मुद्रा आदि उपचार इसी प्रकार के हैं। प्रत्यक्षतः वे दिखते तो व्यायाम स्तर के हैं, पर तथ्यतः उनमें भी कुछ रहस्य भरी विशेषताएं सन्निहित रहती हैं। मनःशास्त्र के उच्चस्तरीय सिद्धांतों का समावेश तो योग साधना की प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रक्रिया में अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यों योग की मूल धारा मनःशास्त्र से संबंधित है और उस क्षेत्र की विकृतियों का निराकरण करने के उद्देश्य से ही विकसित हुई है, तो भी उसमें शारीरिक व्याधियों से छुटकारा दिलाने वाले कतिपय प्रयोग उपचार भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार योग को एक समग्र चिकित्सा शास्त्र भी कहा जा सकता है।
मानसिक आधियों और शारीरिक व्याधियों से छुटकारा पाने के लिए शरीर शास्त्रियों ने पिछले दिनों कितनी ही चिकित्सा पद्धतियों का विकास किया है। इनमें से ऐलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद यूनानी जैसी कई पद्धतियां प्रख्यात हैं। इन सबमें एक कमी समान रूप से है कि उनकी पहुंच शारीरिक कष्टों के शमन तक ही सीमित होकर रह जाती है। आरोग्य संवर्धन के लिए आहार-विहार के कई निर्धारण सामने आये हैं। कई प्रकार की अंग साधनाएं इस प्रयोजन के लिए निकली हैं। काया-कल्प जैसे नामों से कई प्रकार के ऐसे दावे प्रस्तुत किये गये हैं जिसमें दुर्बल काया को बलिष्ठ कर दिखाने की बात कही गई है। कसौटी पर इन दावों में से अधिकाँश खोटे निकले हैं। मात्र व्याधि निवारण के क्षेत्र में शल्य क्रिया विष दमन, प्रसुप्तीकरण के कुछ प्रयोग ही तात्कालिक राहत दिला सकने में प्रभावी सिद्ध हुए हैं। शेष उपचार तो अन्धे के हाथों बटेर पड़ने की तरह तीर-तुक्का भर हैं। यदि ऐसा न होता तो सुयोग चिकित्सक हर रोगी को निरोग बना देते। सम्पन्न व्यक्ति महंगे चिकित्सक और औषधों के सहारे रुग्णता से सहज छुटकारा पा लेते। किन्तु ऐसी सफलता दावे के साथ प्रस्तुत कर सकने वाले कहीं कोई दृष्टिगोचर नहीं होते। यही कारण है कि मरीज एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे चिकित्सक का दरवाजा खटखटाते और बहुत-सा धन तथा समय गंवाने पर भी निराश खाली हाथ लौटते हैं।
यहाँ शरीर को ही सब कुछ मानने और उसमें लगे पदार्थों के सहारे हेरा-फेरी करने वाली चिकित्सा पद्धतियों पर दृष्टिपात किया गया है। प्रतिपादन का विषय किसी खण्डन में उलझना नहीं, वरन् यह है कि समग्र आरोग्य के लिए मनःतत्वों को आधार माना जाय और उसी के सहारे मानसिक तथा शारीरिक व्याधियों से छुटकारा पाने की बात सोची जाय। यह इसलिए कहा जा रहा है कि चेतना स्वतन्त्र ही नहीं समर्थ भी है। उसी के नियन्त्रण में पाँच तत्वों से बने काय कलेवर का सारा ढाँचा गतिशील रहता है। मस्तिष्क को शरीर का अवयव मानने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती किन्तु मनःतत्व और मस्तिष्क को एक मान बैठना गलत है।
चेतना का काया पर आधिपत्य है। उसके विलग होते ही अच्छी-खासी काया सड़ने लगती है। मस्तिष्क को चेतना का प्रधान उपकरण माना जा सकता है, पर यह मानना गलत है कि मस्तिष्क ही चेतना का आदि और अंत है। भौतिक शास्त्र मानवी सत्ता को पंच भौतिक मान्यता है इसलिए उसके आरोग्य संबंधी प्रतिपादन एवं उपचार भी उसी स्तर के हैं। अध्यात्म शास्त्र ने जीव सत्ता को चेतना प्रधान माना है, साथ ही इसी क्षेत्र की विकृतियों की शारीरिक तथा मस्तिष्कीय व्याधियों का करण माना है। ऐसी दशा में योगाभ्यास के आधार पर अपनाया गया मानसोपचार ठीक उसी प्रकार तर्क संगत बैठता है। जैसा कि शरीर शक्तियों द्वारा प्रस्तुत औषधोपचार।
बात यहाँ आकर अड़ती है कि मानवी सत्ता को पदार्थजन्य मानकर उसकी शारीरिक और मानसिक व्यथाओं को दूर करने में रासायनिक हेर-फेर करने वाली उपचार पद्धति को पर्याप्त माना जाय? अथवा जीवन चेतना का अधिकार स्वीकार करते हुए मानसोपचार पद्धति को प्रमुखता दी जाय?
अच्छा तो यही होता कि योगाभ्यास की मानसोपचार पद्धति को शारीरिक और मानसिक व्यथाओं में प्राचीन काल की तरह प्रयोग किया जाता और दुहरा लाभ उठाया जाता, पर यदि ऐसा इन दिनों संभव न हो सके तो शारीरिक कष्टों में औषधि चिकित्सा और मनोरोग में योग चिकित्सा का उपचार तो हर दृष्टि से उपयुक्त हो सकता है। इन दिनों औषधि के लिए लोकमानस में गहरा अंधविश्वासी आग्रह है। दूसरी ओर योग चिकित्सा भी परिष्कृत रूप में विकसित नहीं हो पायी है। इसलिए इस मध्यान्तर अवधि में काम चलाऊ तरीका यही अपनाया जा सकता है कि शरीरगत व्यथाओं को शरीर शास्त्री सम्भालें और मनोरोगों के क्षेत्र में मानसोपचार पद्धति अपनाकर योगाभ्यास द्वारा सम्भालने का प्रयत्न किया जाय।
वर्तमान परिस्थितियों में योगाभ्यास को मानसोपचार के रूप में लिया जाय और उसे क्षेत्र में विकसित किया जाय तो इतने भर से इतना बड़ा प्रयोजन पूरा हो सकता है, जो सिद्धि चमत्कार ढूंढ़ने, स्वर्ग मुक्ति की उड़ाने उड़ने तथा देवी-देवताओं को वशवर्ती करने जैसी प्रचलित मान्यताओं के सही सिद्ध न होने पर भी विश्व मानव के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध हो सके। योगाभ्यास का मानसोपचार पक्ष इतना वास्तविक और इतना महत्वपूर्ण है कि उसे अपनाकर उस अभाव की पूर्ति हो सकती है, जिसे कर सकने में आज का चिकित्सा विज्ञान असफल रह रहा है। मनोविकारों का शमन, मनःशक्तियों का जागरण, मनोबल का संवर्धन मानवी प्रगति और सुख-शान्ति का महत्वपूर्ण अंग है। इस प्रयोजन में निस्संदेह योगाभ्यास के मानसोपचार पक्ष की महत्ती भूमिका हो सकती है।