वृक्ष जिस बीज से उत्पन्न होता है, अपने उत्कर्ष में उसकी ओर ही धावित होता है। शिशु की उमंगें परिपक्व मानवता की ओर उमड़ा करती हैं। प्रत्येक जीवित वस्तु अपने स्वरूप को ही फिर उच्चतर रूप में प्राप्त करना चाहती है। इसी का नाम उत्कर्ष है, जो जीवन का सहज स्वभाव है।
मानव स्तर पर ही उद्देश्य सज्ञान रूप धारण कर लेता है। मन अपने आपे से बाहर निकलकर प्रकृति के अध्ययन में जब श्रृंखला, व्यवस्था, नियम, उद्देश्य और सौंदर्य की खोज करता है तो वस्तुतः वह अपने को ही प्रकृति में उसी प्रकार से पाना चाहता है- देखना चाहता है जैसे आँख स्वयं को दर्पण में। सच पूछा जाय तो प्रकृति आत्म-दर्शन के लिए एक विराट् दर्पण ही तो है।
जीवन एक क्रमागत गति है। उत्तरोत्तर विकास तथा नूतन प्रकाश की प्राप्ति हेतु वह सतत् प्रयत्नशील रहता है। यह इच्छा आदिम भी है और अन्तिम भी। इसका स्वभाव लगातार आगे बढ़ना एवं ऊपर उठना है। पीछे को लौटना, आत्म केन्द्रित होना और विकास की सम्भावनाओं को निरस्त करना इसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं।