सत्यं शिवं सुन्दरम् से युक्त जीवात्मा

June 1981

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‘सत्य’ का अनुसंधान नवजात शिशु पृथ्वी पर आते ही आरम्भ कर देता है। पग रखते ही वह संसार की जिज्ञासा भरे नेत्रों से देखता है। अपनी मूक भाषा में वह पूछता है, यह संसार क्या है? मैं कौन हूँ? भाषा ज्ञान होने, बोलने योग्य होने पर वह माता-पिता से प्रश्नों की झड़ी लगा देता है। अमुक वस्तु क्या है- क्यों है, कैसी है जैसे प्रश्नों का समाधान चाहता है। सीमित बुद्धि असीम तथ्यों को एक ही समय में जान लेना चाहती है। यह प्रचण्ड जिज्ञासा अन्तरंग में सत्यानुसंधान की प्रबल इच्छा का ही परिचायक है। जो शिशु को संसार की प्रत्येक वस्तु को जानने के लिए प्रेरित करती है। इसकी आपूर्ति के लिए परमात्मा ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ साधन बुद्धि दी है जो अन्याय प्राणियों को दुर्लभ है। बुद्धि ने सत्य को जानने के लिए ज्ञान-विज्ञान की रचना की। इतिहास, भूगोल, भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र, जीवन-विज्ञान, अर्थशास्त्र, नीति-शास्त्र, गणित शास्त्र की रचना कर डाली। यह बौद्धिक प्रयास आँतरिक जिज्ञासा का ही प्रतिफल है जिसके कारण ज्ञान-विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ संभव हो सकी हैं। सुख-सुविधाओं से लेकर वैज्ञानिक आविष्कार तक बुद्धि बल के ही चमत्कार हैं। सभ्यता एवं संस्कृति मानवी विचारणा के ही परिणाम हैं। सृष्टि के मूल रहस्यों को जानने की अभिप्रेरणा द्वारा जीवात्मा अपने सत्य स्वरूप की झाँकी परोक्ष रूप में कराती है।

बुद्धि के अतिरिक्त मनुष्य को दूसरी विशेषता ‘नैतिक’ भावना के रूप में मिली है। वह शिव है। शिव अर्थात् श्रेष्ठ कल्याण। जीव-जन्तु भले-बुरे का भेद नहीं कर पाते। उनकी क्रियाएं प्रकृति प्रेरित हुआ करती हैं। खाने-पीने, बच्चे पैदा करने में नीति-मर्यादाओं का वे पालन नहीं करते। मनुष्य को यह विशेषता जन्मजात मिली है। शिक्षित हो अथवा अशिक्षित अच्छे-बुरे का ज्ञान सबको होता है। असभ्य, बर्बर एवं जंगली जातियों में भी नैतिक भावना होती है। भले ही वह न्यून, अपरिष्कृत रूप में हो, पर वे नैतिकता से सर्वथा रहित नहीं हो सकते। जंगली असभ्य समझे जाने वाले व्यक्ति भी सामाजिक नियमों एवं नीति-मर्यादाओं का पालन करते हैं। बच्चे को जन्म के साथ प्राप्त पारिवारिक स्नेह-सहयोग एवं सामाजिक सहयोग मानवी उदात्त भावना का ही प्रतिफल है। जो बच्चे को श्रेष्ठ-चरित्रवान एवं उदात्त अन्तःकरण सम्पन्न बनने की प्रेरणा देती है। स्नेह भावना से अभिपूरित संरक्षित एवं अनुकूल परिस्थितियाँ परमात्मा ने जन्म के साथ ही प्रदान की हैं। जो शिवत्व की ओर बढ़ने की परोक्ष प्रेरणा देती है। बाह्य कल्याणकारी परिस्थितियाँ अंतःसत्ता के शिवत्व स्वरूप का बोध कराने के लिए ही विनिर्मित की गई हैं।

मनुष्य को तीसरी विशेषता परमात्मा द्वारा मिली है, सुन्दरम्- सौंदर्य बोध की क्षमता। यह प्रकृति कितनी आकर्षक एवं सौंदर्य युक्त है, इनका आभास अन्य जीव-जन्तुओं को नहीं मिल पाता। मनुष्य स्वभाव से ही सौंदर्य प्रिय है। प्रातः उदीयमान स्वर्णिम सूर्य, मोती जैसे बिखरे नभ के तारे, ग्रह, नक्षत्र, चाँदनी बिखेरता चन्द्रमा, कलकल नाद करती नदियाँ, खिलते पुष्प, खिल-खिलाते बच्चे, अगाध समुद्र, विराट् पहाड़, अनन्त अंतरिक्ष मनुष्य को एक अनिवर्चनीय आनन्द में डूबो देते हैं। मनुष्य की सौंदर्य प्रियता ने कला, नृत्य, वादन, गायन की रचना कर डाली। वस्तुतः अन्तःस्वरूप ही बाह्य सौंदर्य प्रियता के रूप में प्रकट होता है। जीवात्मा सुन्दर है। जहाँ कही भी सौंदर्य दिखायी पड़ता है। वह अन्तःप्रकाश की ही अभिव्यक्ति है। सौंदर्य बोध की क्षमता परमात्मा द्वारा अन्तरंग में निवास करने वाली सत्ता के स्वरूप को समझने के लिए दी गई है।

सत्यम् शिवं और सुन्दरम् से युक्त करके परमात्मा ने मनुष्य को पृथ्वी पर भेजा। लक्ष्य था इन विशेषताओं से युक्त मनुष्य कल्याणकारी मार्ग पर चलते हुए जीवन उद्देश्यपूर्णता को प्राप्त करे? पिण्ड में समायी आत्मा और ब्रह्माण्ड में व्याप्त परमात्मा का दर्शन करे। पर मनुष्य अपने लक्ष्य को भूल गया। परिवर्तनशील वस्तु एवं जगत को ही स्थायी एवं वास्तविक मान बैठा। सत्यानुसन्धान पदार्थों को जुटाने, उन्हें उधेड़ने, पता लगाने में सिमट कर रह गया। भौतिक ज्ञान और विज्ञान ही शोध का लक्ष्य बनकर रह गया। प्रबल जिज्ञासा अन्तरंग को समझने के लिए अभिप्रेरित थी। आत्मा एवं परमात्मा का साक्षात्कार उसे अभीष्ट था, पर भटकाव के कारण स्थूल जगत ही एकमेव लक्ष्य बनकर रह गया। बहिर्मुखी दृष्टि ने अज्ञानवश अन्तःप्रेरणा की उपेक्षा कर दी। जिसे सत्य माना जाता है उसे प्राप्त करने की कामना भी रहती है। पदार्थ सत्ता को ही जब यथार्थ मान लिया गया तो उसे अधिक से अधिक मात्रा में संग्रहित करने की होड़ चलना स्वाभाविक भी है, पदार्थ शक्ति को एकत्रित करने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी। सुख-साधनों से लेकर शक्ति संग्रह की स्पर्धा ने अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया। प्रकृति के सीमित साधनों से असीम इच्छाओं की पूर्ति संभव न हो सकी। अधिक पाने- उपभोग करने की प्रवृत्ति ने संघर्ष को जन्म दिया। ईर्ष्या, वैमनस्य, द्वेष, लोभ जैसी संकीर्ण प्रवृत्तियाँ भौतिकवादी दृष्टिकोण के ही परिणाम हैं। उनकी क्षण-भंगुरता नश्वरता को समझा गया होता तो इतनी समस्याएं उत्पन्न नहीं होतीं। चेतना की समर्थता, सत्यता का बोध रहा होता, सत्य के साक्षात्कार की प्रबल जिज्ञासा बाह्य जगत में उलझकर न रह जाती। वह अन्तर्मुखी होकर अपने शाश्वत स्वरूप का दर्शन करती। पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड में समायी चेतना के दिव्य स्वरूप को दिग्दर्शन एवं उससे मिलने वाले अनुदानों का रसास्वादन करती। जो बुद्धि अन्तर्मुखी होकर प्रज्ञा का रूप ले सकती और दिव्य दृष्टि सम्पन्न बन सकती थी- वह भी जड़ वस्तुओं के उपयोग का साधन बनकर रह गई। सत्य की प्रबल जिज्ञासा और उसे जानने की श्रेष्ठ साधन बुद्धि का सदुपयोग न हो सका। मनुष्य का इसे सबसे बड़ा दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि ईश्वर प्रदत्त इस विशिष्ट साधन का सदुपयोग न हो सका और वह अपने स्वरूप को जानने से वंचित रह गया।

दुरुपयोग नैतिक भावना का भी हुआ। बुद्धि ने जब जड़-पदार्थों को ही सत्य माना तो उसे उनको प्राप्त एवं उपयोग करने में ही कल्याण दिखायी पड़ा। अपनेपन की परिधि संकीर्ण होने से शरीर से जुड़े परिवार के सदस्यों को पालन-पोषण कर देने, जैसे-वैसे सुख-साधन जुटा देने में ही नैतिक भावना के इति श्री मान ली गई। शिवत्व की भावना परिवार को विकसित कर देने मात्र तक ही सिमट गई। जो विस्तृत होकर समष्टिगत बनकर अजस्र आनन्द का स्त्रोत बन सकती है वह क्षणिक मोह से जुड़ी मानसिक तुष्टि बनकर रह गई। यह आत्म प्रवंचना और नैतिक पराभव का ही परिचायक है।

उपयोग सौंदर्य बोध की क्षमता का भी न हो सका। जब सत्य पदार्थ सत्ता को पाया गया, कल्याण उसके संग्रह एवं उपभोग में देखा गया तो फिर उसके रंग-बिरंगे आकर्षणों में आकृष्ट होना स्वाभाविक और शरीरगत इन्द्रियों एवं पदार्थगत साधनों के क्षणिक रंग रूप को ही स्थायी समझा गया। सौंदर्य की उपलब्धि है- स्थायी आनन्द। भ्रमवश बाह्य आकर्षणों में आनन्द ढूंढ़ा जाने लगा। पत्नी, बच्चो में, भौतिक साधनों के उपभोग में आनन्द प्राप्त करने की परम्परा चल पड़ी है। मृग मरीचिका के समान बाह्य अस्थायी सौंदर्य के पीछे मनुष्य दौड़ता रहा। अन्तः की अतृप्ति वैसी ही बनी रही।

जीवात्मा सत्य है- शिव है और सुन्दरता से युक्त भी। उसी की शक्ति एवं प्रकाश की छाया से बहिर्जगत यथार्थ लगता है। सुखानुभूति उसकी ही एक तरंग है। सौंदर्य उसकी अभिव्यक्ति है। अन्तः सौंदर्य ही बाह्य जगत में प्रतिबिंबित होता है। उसकी सौंदर्य किरणें विश्व ब्रह्माण्ड में अन्तः से निकलकर प्रस्फुटित होती दिखायी देती हैं। सत्य और शिव से, सुन्दरता से युक्त जीवात्मा की प्रतिच्छाया मात्र से यह संसार इतना यथार्थ, सुन्दर एवं आनन्ददायक लगता है। फिर उसका शाश्वत स्वरूप कितना सुन्दर, चिरन्तन आनन्द देने वाला होगा इस कल्पना मात्र से मन एक अनिवर्चनीय आनन्द से पुलकित हो उठता है।


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