“पुत्रवधू को सास बात-बात में टोकती रहती थी। कभी कहती झाडू ठीक से नहीं लगाती, बर्तन साफ करने नहीं आते, कपड़े धोने नहीं आते, तो कभी उसकी पढ़ाई-लिखाई और माँ-बाप को खरी खोटी सुनाती। यों बहु सुशील थी, काम भी खूब करती थी, पर सा उसकी कभी भी प्रशंसा न करती थी। वे तो बस आलोचना ही किया करती थी।
आठ-दस महीने तक तो बहू सास की बातें चुपचाप सुनती रही। पर फिर उसने भी जवाब देना प्रारम्भ कर दिया। अब घर में आये दिन खूब चख-चख होती। दोनों एक दूसरे को जली कटी सुनातीं। घर में और लोगों का रहना भी दूभर हो गया। एक दिन माँ के कहने से पति ने भी बहू की खूब पिटाई की। घर के सभी सदस्य बहू को ही बुराई देने लगे। बहू ने सोचा- ऐसे जीवन से तो मरना ही अच्छा और वह आत्महत्या के विचार से घर से निकल पड़ी।
जैसे ही बहू कुंए में कूदने वाली थी, पीछे से किसी ने आकर उसे पकड़ लिया। उसने मुड़कर देखा तो सामने एक संन्यासी खड़े थे। ‘आत्म-हत्या करना पाप है।’ -वे कह रहे थे।
बहू सिसक-सिसक कर रोते हुए उन्हें अपने जीवन की व्यथा सुनाने लगी। महात्मा ने ध्यान से उसकी बात सुनी। फिर वस्त्र के छोर से कपड़ा फाड़ा, उसे बटा और मन्त्र पढ़कर बहू को देते हुए बोले- ‘लो यह मंत्रित डोरा है। जब तक सास कुछ बोले, इसे अपने दांतों के बीच में दबाये रखना। तुम्हारे घर की कलह समाप्त हो जायेगी।’
घर लौट कर बहू ने यही उपाय अपनाया। जब भी सास बोला करती, वह मुँह में डोरा दबा लेती। मुँह में डोरा दबाने के कारण बहू कुछ बोल भी न पाती थी। अकेले सास बोलते-बोलते ऊब जाती और हार कर फिर चुप हो जाती।
इस प्रकार कुछ दिन बाद सास को यह बात समझ में आ गयी कि दोष मेरा ही है। उस दिन से उसने बात-बात में बहू की गलतियाँ ढूढंना छोड़ दिया। इसके बाद परिवार का वातावरण भी सुख-शान्तिमय हो गया, घर की सारी क्लेश दूर हो गयी।
एक दिन जब वही संन्यासी मिले तो बहू ने बड़ी प्रसन्नता से उन्हें सारी बात बतायी। संन्यासी मुस्कराते हुए बोले- ‘‘बेटी, चमत्कार डोरे ने नहीं, तुम्हारी सहनशीलता ने दिखाया है। दांतों में डोरा दबाने के कारण तुम कुछ भी बोल नहीं पाती थीं। तुम्हारे चुप रहने से कलह भी नहीं बढ़ती थी। स्वयं में सहनशक्ति हो तो दूसरे को भी सन्मार्ग पर लाया जा सकता है।”