हमारी उपासना कितनी खरी - कितनी खोटी

April 1980

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मनुष्य को ईश्वर ने अन्य प्राणियों की तुलना में जे विशेषताएँ और विभूतियाँ दी हैं, उनका उद्देश्य एक प्राणी विशेष के साथ पक्षपात और दूसरों के साथ उपेक्षा बरतने का नहीं है। ऐसा होता है तो ईश्वर अन्यायी होता और उसे न्यायकारी, समदर्शी आदि न कहा जाता। सरकारी अफसरों के हाथ में शक्ति रहती है और साधन सामग्री भी। यह उन्हें मात्र शासन व्यवस्था एवं लोक-कल्याण में प्रयुक्त करने के लिए मिली होती है। वेतन तो निर्वाह भर के लिए सुविधाएँ मिली हैं। मनुष्य को इसके अतिरिक्त जो मिला है, वह ईश्वर की इस विश्व वाटिका को सुन्दर, समुन्नत, सुस्कृत बनाने में सहायता करने के लिए है। मनुष्य ईश्वर का युवराज है। युवराज के हाथ में शासन सत्ता का अधिक उपयोग करने की सामर्यि रहती है। पर वह उसका उपयोग अपने शौक मौज में समाप्त नहीं कर देता वरन् अपने कुटुम्बियों एवं प्रजाजनों की सुविधा, व्यवस्था में करता है। ठीक इसी प्रकार पमुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में जो भी विशेषताएँ, सुविधाएँ एवं सामर्थ्ये मिली हैं वे इसी प्रयोजन के लिए हैं कि ईश्वर के उत्तरदायित्वों में हाथ बंटाया जाय, उसकी शासन व्यवस्था को अधिक श्रेष्ठ और सुखउ बनाया जाय।

अधिकार के साथ कर्त्तव्य भी जुड़े होते है। अनुदान का प्रतिदान भी देना पड़ता है। ईश्वर ने मनुष्य को सृष्टि के शासन में हाथ बटाने का अधिकार दिया है और उसके अनुरुप बुद्धि, सुविधा एवं सम्पदा भी प्रदान की है। इस अधिकार को पाने के साथ ही कुछ कर्त्तव्य भी स्वभावतः कन्धे पर आते है। उपलब्ध विभूतियों में से उतना ही अपने लिए उपयोग करे जो हिस्से में आता है, शेष को सार्वजनिक सम्पदा समझे और उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में करके ईश्वर की इच्छा पूरी करे और अपनी ईमानदारी का परिचय दे।

अपने हिस्से का तार्त्पय है औसत नागरिक के हिस्से में न्यायोचित विभाजन से जितना आता है उतना ही उपभोग या संग्रह करें। शेष को विश्व परिवार की सम्पदा माने और जो उपलब्ध है उसे संरक्षक ट्रस्टी की तरह लोकमंगल के लिए प्रयुक्त करे। संसार में गरीब-अमीरों की मध्यवर्ती अनुपात सम्पदा थोड़ी ही होती है वह इन दिनों इतनी ही है कि हर व्यक्ति मितव्यतापूर्वक किसी प्रकार पेट भरने और तन ढ़कने का गुजारा प्राप्त कर सके। विश्व एक परिवार है। हर व्यक्ति विश्व नागरिक है। इसे विचार करना चाहिए कि परिवार के हर व्यक्ति को लगभग एक जैसे स्तर की ही व्यवस्था बनाये रहनी चाहिए। घर में कुछ व्यक्ति गुलछर्रे उड़ाये और शेष की निर्वाह की आवश्यक सुविधाओं से वंचित रहना पड़े तो यह अनीति है। समर्थ लोग ऐसा कर सकते हैं क्योंकि उनके हाथ में इतनी शक्ति होती है। कई कमाऊ लोग शराब पीते और दुर्व्यसनों में अपनी बहुत-सी कमाई फूँक देते हैं। फलतः अन्य बाल वृद्धों को अभाव और कष्ट सहने पड़ते हैं। जहाँ भी ऐसी अनीति चल रही होगी वहाँ समर्थ का अत्याचार ही निरुपित किया जायेगा। निरंकुशता बरती जाती रहे और कोई रोकथाम न बन पड़े तो भी अन्याय तो अन्याय ही रहेगा। उसके फलस्वरुप आत्मा की अवगति समाज में अव्यवथा एवं जन विवे की भर्त्सना, ईश्वरीय को प जैसे दुष्परिणाम तो भोगने ही होंगे।

ईश्वर ने मनुष्य को जो अन्य प्राणियों से अतिरिक्त दिया है उसे विशुद्ध अमानत मानकर चलना और उसका उपयोग उसकी विश्चव वाटिका को समुन्नत करने में करना ही सच्चा ईश्वर विश्वास है। अपने लिए औसत विश्व नागरिक जितना न्यूनतम निर्वाह प्राप्त करना ही ईश्वरीय व्यवस्था को सच्चे मन से स्वीकार करना है। उपलब्ध साधनों का उपयोग यदि अपने लिए अपनों के लिए ही किया जाता है तो उन सबका हक मारा जाता है जो युवराज के संरक्षण में सौंपे हुए है। युवराज का पद प्राप्त करने के साथ-साथ उसी गौरव गरिमा को बनाये रहना भी आवश्यक है।

मनुष्य और ईश्वर के मध्यवर्ती अधिकार एवं कर्त्तव्य की जागरुकतापूर्वक विवेचना करना और उसमें कहीं कुछ व्यतिक्रम चल रहा हो तो उसे ठीक करना ही आस्तिकता है। जो इस सर्न्दभ में मुँह मोड़े रहते है, मनमानी करते है, तथ्यों की उपेक्षा करते है वे नास्तिक हैं।

बैंक से ऋण मिलता है। वह पैसा हाथ आते समय कोई यह समझा बैंठे कि यह मुफ्त में मिला है और उसे चाहे जिस तरह उपयोग किया जा सकता है तो यह भूल है। बैंक सदा उत्पादक, उपयोगी कामों के लिए ही ऋण देती है और उसे नियत अवधि में ब्याज समेत वापिस करने की अपेक्षा रखती है। यदि ऋण प्राप्त करता बैंक के अनुदान को मुफ्त का माल समझे और वापिस करने की बात मन में से निकाल दे तो फिर समझना चाहिए कि बेंक व्यवस्था ही समाप्त हो जायेगी। ईश्वर ने मनुष्य को जो भसी अतिरिक्त दिया है वह विशुद्ध ऋण है। उसे प्रमाणिक और ईमानदार समझकर यह अनुदान दिया गया है। साथ ही यह अपेक्षा भी रखाी गई है कि इसे ब्याज समेत इसी जीवन की अवधि में वापिस भी कर दिया जायेगा।

निकृष्ट योनियों से ऊपर उठाकर मनुष्य जीवन का परम सौभाग्य प्रदान करना ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुग्रह है। इससे आगे की उपलब्धियाँ मनुष्य के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर हैं। संचित कुसंस्कारों से जूझने और आत्मीयता विस्तृत करने का संयुक्त प्रयास ही साधना है। उपासना इसी प्रखरता को जागृत करने के लिए की जाती है। यदि वह तथ्य को समझते हुए की गई है और भजन-पूजन के साथ साथ ही अपनी दिशाधारा मोड़ने और रीति-नीति सुधारने का प्रयत्न भी जरी रखा गया है तो उसका प्रतिफल निश्चित रुप से होना चाहिए। ईश्वर के अतिरिक्त अनुदान सन्त, सुधारक एवं शहीद की गरिमा रुप में मिलते हैं। महामानव, ऋषि, देवतात्मा बनने के उपरान्त मनुष्य अन्ततः परमात्मा के पद तक जा पहुँचता है। यह आध्यात्मिक पदोन्नति जिस ईमानदारी एवं कर्त्तव्य परायणता के आधार पर सम्भव होती है उसे ही आत्मपरिष्कार एवं परमार्थ पुरुषथ्र के रुप में देखा जाता है।

ईश्वरीय अनुकम्पा की न्यूनाधिक मात्रा को प्राप्त करना पूर्णतया साधक के पुरुषार्थ पर निर्भर है। ईश्वर की इच्छा पर नहीं। ईश्वरच्छा विभिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न प्रकार की नहीं हो सकती। समदर्शी के लिए सभी बालक समान रुप से प्रिय हैं। उसकी सभी के लिए शुभेच्छा है। प्रतियोगिता में आगे निकलने वाले सर्वत्र विशेष अनुदानों के भागी बनते रहे है। विशेष उपहार राष्ट्रपति द्वारा हर साल विशेष व्यक्तियों को दिये जाते हैं। ईश्वर के दरबार में भी यही परम्परा है। न किसी के साथ पक्षपात न किसी के साथ अन्याय। पुरुषार्थ बढ़ते हैं और सिद्धियाँ पाते हैं, अकर्मण्य पिछड़ते हैं और प्रगति से वंचित रहते है।

ईश्वर शक्तियों, सिद्धियों, विभुतियों का भण्डार है। इस जड़ जगत में जो कुछ श्रेष्ठ, सुखद और सुन्दर दीखता है वह सच्चिदानन्द परमेश्वर का ही वैभव है। मनुष्य जीवन उसी की देन है। संसार के अनेकानेक सुख साधन उसी के वैभव का विस्तार है। उस परम सत्ता के साथ जो जितना सम्बद्ध है, जिसने आदान-प्रदान के सूत्रों को जितना सक्षम बनाया हुआ है वह उतना ही ऐर्श्वयवान् बनता है। ऐर्श्वय ईश्वर की ही देन है। ईश्वर के साथ-साथ मनुष्य का सम्बन्ध सूत्र तो पहले से ही जुड़ा हुआ है, पर कषय-कल्मषों के व्यवधान ने उसे अवरुद्ध कर रखा है। फलतः जो अतिरिक्त मिल सकता था उससे वंचित रहना पड़ रहा है। ऊँचा उठने आगे बढ़ने की आकाँक्षा स्वाीविक है। अपना पुरुषार्थ सीमित मात्रा में भौतिक लाभ ही उपार्जित कर सकता है। पर वैभव और चरम उर्त्कष के लिए ईश्वर का विशेष अनुग्रह चाहिए। यह सर्व सुलभ है। आत्म-निर्माण की ईमानदारी और लोक-निर्माण की जिम्मेदारी का हम जितना बढ़ा-चड़ा परिचय देते हैं उसी अनुपात से ईश्वरीय अनुदान अनायास ही बरसने लगते हैं और मनुष्य तुच्छ से महान्, नर से नारायण बनता है। आस्तिकता का तत्वदर्श और उपासना का विधि-विधान इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है।


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