अंधकार अस्थिर, प्रकाश शाश्वत

April 1980

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प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते है। एक उज्ज्वल तो दूसरा इसके विपरीत कालिमा से भरा। दिन भर में बारह घण्टे प्रकाश तो बारह घण्टे अन्धकार होता है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण के रुप में माह में दो बार अंधेरा और उजाला अपने प्रधान रुप मं रहता है। अन्धकार के साथ प्रकाश का एक अविच्छिन्न समन्वय सृष्टा ने अपनी हर मूकृति में किया है। अन्धकार से भटकाव होता है। इससे मनुष्य को उबारने के लिये कहीं न कहीं से प्रकाष किरणें आती है और सही मार्ग दिखाती है।

अन्धेरी रात में अपना मार्ग ढूँढता राही चन्द्रमा की किरणों में या झिलमिल तारों की रोशनी में अपना रास्ता बना लेता है। इसी तरह समाज में दुराचारों, पापों की अभिवृद्धि के रुप में जब उसका अन्धकार वाला पक्ष प्रबल होने लगता है तो महामानवों में प्रेरणाप्रद विचारों एवं उत्कृष्ट चिन्तन के रुप में प्रकाश किरणें आती है और अन्धकार के साम्राज्य को मिटा देती है।

मानवता का अब तक का इतिहास यही बताता है कि अँधियारा वाला पक्ष कभी भी उजले पक्ष पर हावी नहीं हो पाया। जब-जब भी ऐसे प्रयास हुए हैं-’दैवी चेतन शक्ति के प्रकाश पुन्ज उठ खड़े हुए और उन्होंने तम से मोर्चा लेकर अन्धकार को मिटाकर ही दम लिया’। अधर्म के विनाश और सर्त्धम की स्थापना के लिये, दुष्प्रवृत्तियों के निवारण और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना के लिये ऐसे प्रकाश पुत्र जन्म लेते है और अपनी प्रचण्ड विचार शक्ति द्वारा चारों ओर प्रातः के उदीयमान सूर्य की तरह प्रकाश किरणें बिखेर देते है।

प्रकृति के अन्तराल में भी विश्वनियन्ता ने ऐसी ही कुछ विचित्रताओं का समावेष कर रखा है जो अपनी अद्भुतओं से मानव को हतप्रभ भी कर देती हैं एवं विकास के पथ पर चलते रहने की सतत् प्ररेणा देती रहती हैं। पृथ्वी के दोनों ध्रवों पर सूर्य छह-छह माह प्रकाशमान रहता है। जिस समय एक ध्रव पर प्रकाश होता है, दूसरे ध्रव पर अन्धकार का साम्राज्य छाया रहता है; लेकिन इसी अन्धकार के समय दोनों गोलार्धें में एक ऐसी आकर्षक प्रकाश ज्योति दिखाई देती है जो वास्तविक होते हुए भी लगती काल्पनिक ही है। जैसे-जैसे अन्धकार घना होता जाता है, यह प्रकाश ज्योति प्रकट होने लगती है और धीरे-धीरे उज्ज्वल प्रकाश की एक पट्टी के रुप में बदल जाती है। इस असाधारण प्रकाश पुन्ज को पृथ्वी से साठ से लेकर पाँच सौ किलो-मीटर की ऊँचाई तक देखा जा सका है। सौ मीटर से लेकर कई किलोमीटर लम्बी यह पट्टी निरन्तर प्रकाशमान रह कर अन्धकार को चुनौती देती रहती हैं।

प्रकृति जगत के अन्तराल में ऐसी अनेकानेक व्यवस्थाएँ है जो हमें सृष्टा की विराट्ता का मात्र परिचय ही नहीं देती, वरन् निरन्तर प्रेरणा देती रहती हैं। वस्तुतः प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। निराश, हीन भावनाग्रस्त व्यक्ति को उसका अन्धकार वाला पक्ष ही प्रबल दिखाई देता है तो आशावादी, महात्वाकाँक्षी व्यक्ति उस अन्धेरे में भी अपना मनोबल बनाये रख कर अपना पथ ढूँढ़ता चला जाता हैं। पतितों, पददलितो एवं पिछड़ों को अन्धकार से उबार कर प्रकाश की ओर ले जाने के लिये ही समाज सेवियों, महामानवों का आविर्भाव होता है। अपने चिन्तन, उपदेश एवं सत्परामश्द्वारा वे समाज को नयी दिशा देते है।

अन्धकार स्थायी नहीं है। उसे तो मिटना ही है। चिरपुरातन काल से ऋषि ‘तमसो माज्योतिर्गमय’ की प्रेरणा अपनी ऋचा में देते आ रहे हैं। आवश्यकता मात्र स्वयं को पहचानने की है, अज्ञान के-अन्धकार के अभाव के-पथ से हटाकर स्वयं को प्रकाश की ओर उन्मुख करने की है। तम से समझौता करने वाले प्रकाश पुत्रों को, अन्धकार स्वीकारने वाले प्राणियों को भी प्रकृति यही सतत प्रेरणा देती आ रही है कि वे स्वयं को उस दिव्य प्रकाश की ओर अग्रसर करें, जो मानव का अन्तिम लक्ष्य है।


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