जीवन परम पुरुषार्थ-मुक्ति

April 1980

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मुक्ति को जीवन का परम पुरुषार्थ कहा गया है। आत्म स्वातन्त्रय मनुष्य को सर्वाधिक प्रिय है। वह उसके लिए सभी कुछ न्यौछावर कर देने को बड़े से बड़े कष्ट उठाने को तत्पर रहता है। शास्त्रकार ने भी आत्म-स्वान्त्रय के लिए शेष सब उर्त्सग कर देने की प्रेरणा दी है- “आत्मार्थें पृथिवीम् त्वजेत” कहा है। आत्म स्वातन्त्रय को भारतीय मनीषी सदा ही सर्वाधिक महत्व देते रहे है। मनुष्य मात्र के भीतर मुक्ति का, स्वतन्त्रता का प्रचण्ड वेग सदा जागृत रहता है, भले ही अपनी किन्हीं दुर्बलताओं के कारण उसे विविध बन्धनों में बंधे रहना पड़े।

मुक्ति की इस प्रबल कामना के बाद भी मनुष्य इतना अधिक बंधा हुआ क्यों रहता है ? लगता है जैसे वह जकड़ कर बाँध रखा गया है और इच्छानुसार एक काम भी नहीं कर सकता, एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। परिस्थितियाँ और मन की प्रवृतियाँ उसे विवश करती रहती है कि जहाँ है, वहीं रहे, आगे बढ़े नही।

तब मुक्ति के परम पुरुषाथ को कैसे प्राप्त किया जाये। अनेक लोग सोचते है कि कर्म में प्रवृत होना ही बंधन में बंधना है। इसलिए कर्म मत करो, कर्म से दूर रहो, तो बन्धन से दूर रहोगे और मुक्ति के निकट पहुँचोगे। कुछ लोग सोचते है कि मुक्ति तो मरने के बाद ही होती है और उसका अर्थ यह है कि इस लोक से भिन्न किसी अन्य लोक विशेष में रहने की खास सुविधा मिलेगी, अवसर मिलेगा। मुक्ति की ऐसी मान्यताएँ बुद्धि विकार या भ्रान्ति मात्र है। जहाँ जक कर्म से भागने की बात है। मनुष्य बिना कर्म किये एक क्षण भी नहीं रह सकता। जैसा कि गीता में कहा है-

न हि कश्यित्क्षणामपि जातु तिष्ठत्पकर्मकृत। कार्यते ह्मवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै॥

अर्थात् कोई भी प्राणी कर्म किये बिना क्षण भी भी नहीं रहता। सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणों द्वारा परवश रहते हुए कर्म में प्रवृत्त रहते है। (क्याँकि सोना बैठना, चुप रहना, निश्चल बैठना या लेटना आदि भी कर्म ही है। व्यक्ति या प्राणी जो भी क्रिया कर रहा होता है, वह सब कार्य या कर्म ही है।)

प्रत्येक कर्म अपना संस्कार व्यक्ति चित्त पर अंकित करता रहता है। संचित संस्कारों के ही अनुपार वासनाएँ उदित होती रहती है। प्रारब्ध का स्वरुप भी संस्कारों एवं वासनाओं के ही अनुसार बनता है। फिर उसी प्रारब्ध से पुनः कर्म प्रेरणा मिलती रहती है। इसी चक्र में प्रत्येक जीव घूमता रहता है। सभी जीवों के मन में जीव भाव आते प्रबल रहता है। आत्मभाद की तो वे यदा-कदा चर्चा या स्मरण मात्र ही करते है। जब तक वासना के आधार इस दृश्य जगत का तथा स्वयं वाना का उसके अधिष्ठान अन्तःकरण का और इन सबकी साक्ष्ीभूत चैतन्य आत्मसत्ता का तात्विक स्वरुप आँशिक रुप में जान नहीं लिया जाता, तब तक मुक्ति का सच्चा संल्प तक नहीं उदित हो सकता उस ओर प्रयास करने की वृति होने का प्रश्न ही नहीं। जब दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों के बंधनों का स्वरुप समझ में आ जायेगा, उनकी भीषणता स्पष्ट हो जायेगी तभी मुक्ति की तीव्र छटपटाहट जन्म लेगी।

मुक्ति की लालसा मात्र से मुक्ति नहीं मिल जाती। लालसा मन में उत्पन्न होने वाली एक तरंग है, जो बदलती रहती है।

मुक्ति कोई चमत्कार या रहस्य नहीं है। वह तो जगत और आत्मा दोनो का वास्तविक तत्व जानने तथा इस बोध को व्यक्ति चेतना की सहज स्थिति बना डालने की साधना है।

मुक्ति का बाह्य प्रकटीकरण भौतिक जगत में स्वतन्त्रता का आभ्युदय है। राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक साँस्कृतिक दासताओं को उखाड़ फेंकना, उनके स्थूल सूक्ष्म बंधनों को काट डालना सरलता से सम्भव नहीं हो पाता। उसके लिए अनथकश्रम, अंडिग साहस, अगाध शौर्य अविचलित बुद्धि तथा अविराम प्रयत्नों की आवश्यकता होती है। आँतरिक मुक्ति के लिए भी वैसे ही प्रयास उससे कहीं अधिक गहराई तक किये जाने होते है। वस्तुतः बाह्य स्वतन्त्रताएँ आन्तरिक मुक्ति से गुँथी रहती है। जिस सीमा तक आन्तरिक मुक्ति होगी, उसी सीमा तक बाह्य स्वतन्त्रता भी विकसित होगी। जो व्यक्ति समाज या संस्थाएँ आन्तरिक मुक्ति एवं विकास की अवहेलना कर बाहरी स्वतन्त्रता तक ही ध्यान देते रहते है। उनकी वह स्वतन्त्रता विकार-ग्रस्त होकर विषाक्त होने लगती है और विनाश के खतरे उत्पन्न हो जाते है। बाह्य स्वतन्त्रता की पूर्णता अन्तरिक मुक्ति पर निर्भर है।

मुक्ति का वास्तविक सम्बन्ध अन्तश्चेतना से ही है। आत्मचेतना में ही आत्म स्वातन्त्रय सन्निहित है। बिना आत्मचेतना के बाहरी स्वतन्त्रताएँ बहुधा परतन्त्रताओं का ही छद्य रुप आ करती है। किसी बाहरी स्वतन्त्रताओं में जो कारणभूत आवेग है, स्वातन्त्रय भाव का स्फुरण है, मात्र वह अन्तश्चेतना का भाव एवं आवेग होता है। किन्तु उसके साथ-साथ मनुष्य आन्तरिक अज्ञानता क कारण अपनी कामनाओं, वासनाओं की आँधी में उड़ते फिरने को ही स्वतन्त्रता समझे रहता है, और मूर्खतापूर्ण गर्व पाले रहता है। यह वैसा ही है, जैसे नशे में डूबा शराबी गन्दी नाली में पड़े पड़े र्स्वग की काल्पनिक अनुभूति करता रहे। अपनी दयनीय दुदर्शा, अपनी कातर परतन्त्रता तो उसे तब विदित होती है जब नशा उतरता है, होश आता है।

मोह, माया, तृष्णा-अहता, वासना-कामना की आकर्षक, मादक मदिरा अन्तश्चेतना को सदा लुभाती रहती है। कहते है, बीन की मधुर धुन से मृग समूह विमुहित होकर वहीं पहुँच जाते है, जहाँ वह धूर्त वादक उन्हें पकड़ने को जाल बिछाये तान छेड़ता रहता है। वासनाओं की बीन अन्तःकरण का मृग भी ऐसे ही सुख-बुध खो बैठता है। शरीर और मन को रुचिकर इन मदिराओं-मादकताअं का त्याग ही मुक्ति है। इन्द्रियों की रसानुभूति में रमना सबसे जटिल, सबसे सूक्ष्म बंधन में बंधना है। उन बन्धनों को तोड़ना निश्चय ही परम पुरुषार्थ है।

सुनते तो सभी रहते है कि जीवन आत्मा कल्याण के लिए मिला है। वही लक्ष्यहै। शरीर और मन के वाहनों पर आरुढ जीवन-रथ पर उसी दिशा में विवेक के मार्गदर्शन, संयम के नियन्त्रण के साथ हाँका जाना चाहिए। पर हजार बार भी इसे सुनकर भी भतर तक इस सचाई को कोई स्वीकार नहीं करता। अन्तःकरण को यह प्रतिपादन अपनी यथार्थता से पूर्णतः अभिभूत नहीं कर पाता। वासना के आवेग उसे अधिक गहराई से अभिभूत आच्छादित किये रहते है। उनके प्रभाव से लोग स्वयं को ही छलने लगते है। कोई यह भ्रम पालते है कि बार-बार बंधनाँ की निन्दा और मुक्ति की प्रंशसा सुनने से ही मुक्ति के लक्ष्य की दिशा में प्रगति होने लगेगी। कुछ इससे भी आगे बढते है। वे उत्साह और आवेग के साथ, मुक्ति की महत्ता का प्रतिपादन करने लगते है। माने इस प्रवयन से ही उन्हें जीवन लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी। कुछ अधिक चालाक लोग इससे भी आगे बढते है। वे मुक्ति और बन्धन के बौद्धिक विश्लेषण बड़ी बारीकी से करने लगते है। बौद्धिक दाँव पेंचों के सहारे वे अपनी आसक्ति को अनासक्ति दुर्बलताओं को उदारता, असुरता से समझौता और गठ बन्धनको सन्तुलन तथा स्वार्थ पूर्ण जोड़-तोड़ को लोकसंग्रह जनसेवा आदि बताते अधाते नहीं। किन्तु इससे उन्हें वस्तुतः न तो आन्तरिक मुक्ति मिल पाती और नहीं बाह्य।

अतः मुक्ति का एक मात्र उपाय यही है कि हम आत्मासत्ता को सत्यतः स्वीकारं, उसे यथार्थतः जानें, उसके प्रति अज्ञान भाव न पालें रहें। जीवन के प्रत्येक क्रिया कलाप उसी केन्द्रीय सत्ता के प्रकाश से निर्देशित, नियन्त्रित हों, वासनाओं के अंधड़ आवेग से नहीं। तभी हम सर्वोच्च पुरुषार्थ मुक्ति के अधिकारी होंगे।


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