विक्षोभ मरने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता

April 1980

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भूत-प्रेतों के अस्तित्व पर कई लोग विश्वास करते है और कई नहीं भी करते है। यह सच है कि अनेक बार सामान्य घटनाओं को भी भूत-प्रेत की लीला समझा जाता है और उनके सम्बन्घ में अतिरंजति कल्पनाएँ की जाती है। भूत-प्रेतों से सम्बन्धित अधिकाँश मामलों में मूल में अन्धविश्वास, धोखाधड़ी और अज्ञान ही कारण होते है, पर यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि भूत-प्रेतों का अस्तित्व है और वे कई तरह से अपने अस्तित्व का पचिय देते है। कौन सी घटना से भूत-प्रेतों का अस्तित्व सिद्ध होता है और कौन-सी बातें मात्र अन्धविश्वास है, यह भेद करना कठिन है। किन्तु परामनोविज्ञान की शाधों के अनुसार अब यह शास्त्रीय मान्यता पुष्ट हो चुकी है कि मरने के बाद और जन्म लेने के पूर्व जीव कुछ समय तक अशरीरी अवस्था में रहता है।

कुछ शान्त आत्माएँ इस अवस्था में चुपचाप रहती है और उपयुक्त गर्भ का चुनाव करने के लिए प्रतीक्षा करती रहती है। किन्तु कई विक्षुब्ध आत्माएँ अशरीरी अवस्था में भी अपने जीवन काल की मनःस्थिति का परिचय देती रहती है। भूत-प्रेतों के अस्तित्व सम्बन्धी प्रचलित कथा-गाथाओं के सम्बन्ध में यह तथ्य सदा ही सामने आया है कि जो व्यक्ति मरते समय अत्यधिक आवेश में रहे है, उन्होंने प्रेत कलेवर में उसी मनःस्थिति का परिचय दिया है। जैसे धन या मकान से अत्यधिक लगाव रखने वाला व्यक्ति मरते समय उन वस्तुओं से अत्यधिक मोह प्रकट करते हुए विलग हुए है तो उनका प्रेत उन्हीं स्थानों के इर्द-गिर्द भटकता रहता है। जमीन में गढ़े हुए धन की उन्होने चौकीदारी की है और यदि किसी ने उसे निकाला, भोगा या निकालने का प्रयास किया है तो उसको तरह-तरह के त्रास दिये है।

घृणा और रोष की स्थिति में मरने वाले अक्सर अपने प्रतिपक्षी को कष्ट देते रहे है। इस तरह की एक घटना का विवरण नाइजीरिया के एक अंग्रेज अफसर फ्रेंक हाइब्स ने प्रकाशित किया था। अफ्रीका का यह देश किसी समय अंग्रेजों का उपनिवेश था। अब यों वहाँ आजादी है, पर प्रभुत्व वहाँ स्थाई रुप से बसे हुए गोरों का ही है, फ्रेंक हाइब्स भी वहाँ बसे हुए अंग्रेजों में से ही है। एकबार वह किसी काम से ‘इसुइंगु’ नामक देहाती क्षेत्र में गया। वहाँ एक पुराना और टुटा-फुटा डाक बंगला था। फ्रेंक हाइब्स ने उसी डाकबंगले में ठहरने का निश्चय किया।

उस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों ने फे्रंक हाइब्स को बताया कि इस बंगले में प्रेत रहते है इसलिए वहाँ न ठहरें। अफसर उनकी बातों पर हंसता रहा। उस बंगले में काफी दिनों से शायद कोई नहीं ठहरा था। फें्रक ने मजदूरों से उसे साफ करवाया। मजदूरों ने बंगले की सफाई कर दी, ठहरने और खाने-पीने के साधन जुटा दिये, पर जब उनसे वहाँ रात को रुकने के लिए कहा गया तो कोई भी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। निदान फें्रक को अकेले ही वहाँ ठहरना पड़ा।

आधी रात गए तक तो कोई विशेष बात नहीं हुई। पर रात के बारह बजे बाद फें्रक को लगा कि कोई उसाक बिस्तर खींच रहा है। उठकर देखा तो कोठ नजर नहीं आया किन्तु फें्रक ने अनुभव किया कि वहाँ बहुत तेज बदबू फैली हुई है। इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और बंगले की खिड़कियाँ जोरों से खड़खड़ाने लगीं, मेज पर रखी चा की प्लेटें जमीन पर गि पड़ी। फ्र ने इन बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। किन्तु थोड़ी देर बाद ही फें्रक को बाहर किसी ने भारी पैरों से चलने की आवाज सुनाई दी। उन्होनें बाहर निकलकर देखा तो प्रतीत हुआ कि कोई छाया जैसी आकृति बरामदे में टहल रही है। फें्रक ने आवाज दी, पर कोई उत्तर नहीं मिला। इस पर उन्होने दो गोलियाँ उस आकृति पर दाग दी, लेकिन उस आकृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह छाया पास में बढ़ती आई और आकृति स्पष्ट दिखाई देने लगी। भयावह डरावना चेहरा, बैठी हुई नाक, खुले हुए होठ, गन्जा सिर, स्थिर और एक ही तरफ अपलक ताकती हुई आँखे, गड्ढों और झुर्रियों से भरे हुए गाल। वह सोच न सका कि यह कौन है और क्या कर रहा है ? धीरे-धीरे वह आकृति वह पीछे हटने लगी और एक खम्भे के पास पहुँचकर उसके ऊपर चढने लगी। फ्रेंक ने निशाना बाँधकर फिर दो गोलियाँ चलाई, पर वे लगी किसी को भी नहीं। यह सब देखकर फ्रेंक हाइब्स बुरी तरह डर गया और बंगले से निकलकर बेतहाशा भागने लगा। कुछ दूर भागने पर वह एक चीख के साथ बेहोश होकर गिर पड़ा।

जब होश आया तो देखा कि कुछ आदिवासी उसकी झाड़फूँक कर रहे है। स्वस्थ होने के बाद फ्रेंक हाइब्स ने आदिवासियों से डाक बंगले के प्रेत की बावत पूछताछ की तो इसुइंगई लोगों ने बताया कि जिस जगह यह डाक बंगला बना है, इस स्थान पर पहले एक टीला था। इस टीले पर आदिवासियों के जू-जू देवता की पूजा होती थी और जानवरों तथा मनुष्यों की बलि दी जाती थी। जब अंग्रेज आये तो उन्होने इस स्थान की मूर्तियों को उठाकर फिकवाँ दिया, नर बलि बन्द करा दी और वहाँ एक डाक बंगला बनवा दिया।

इस कृत्य से उस क्षेत्र का देव पुरोहित बहुत बिगड़ा और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उसने गाँव वालों को इकट्ठा करक कहा कि डाक बंगल को जला दो और वहाँ फिर से देवताओं की पूजा शुरु करो। अगें्रजों से भयभीत आदिवासी इसके लिए तैयार नहीं थे। निराश पुरोहित गुस्से में आकर उन्मत पागलों की तरह बड़-बड़ाता हुआ डाक बंगले के चारों ओर चक्कर लगाता रहा। फिर एक रस्सी से वहीं बरामदे में फाँसी लगा कर मर गया। तब से अब तक पुरोहित का प्रेत डाक बंगले में रहता है। कोई उधर जाने की हिम्मत नहीं करता, इससे पहले भी जब कोई अगं्रेज अफसर वहाँ आया और उसमं ठहरा तो पुरोहित के प्रेत ने उसे नहीं ठहरने दिया। फ्रेंक हाइब्स ने डाक बंगले के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी एकत्रित की और जब उसके भुतहे होने पर विश्वास हो गया तो भविष्य में किसी अफसर पर संकट न आये, यह ध्यान में रखते हुए फ्रेंक ने बंगले में अपने सामने आग लगवा दी।

कानपुर की सर्वाधिक धनी बस्ती काहू कोठी में एक ऐसी तिमंजली हवेली है जो पिछले लगभग 40 वर्षों से खाली पड़ी ह। बताया जाता है कि सन् 1642 में एक लोहा व्यवसायी ने इस हवेली को खरीदा जो इसके पहले काफी जीर्ण-शीर्ण हालत मं था इस मकान को नये ढंग से बनवाने के लिए उक्त लोहा व्यवसायी ने मकान की नींव खुदवाई। नींव खोदते समय एक कब्र निकली। लोगों ने कहा कि या तो मकान का निर्माण रोक दिया जाये अथवा उस कब्र को सम्मान के साथ उचित स्थान दिया जाये, मगर इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और खुदाई जारी रखते हुए भवन का निर्माण यथावत् चालू रखा। इस भवन के निर्माण कार्य के दौरान ही उक्त व्यवसायी और उनका एक पुत्र अकस्मात् चल बसे। कुछ दिनों बाद मृत मौतों के कारण भयभीत होकर सेठ की विधवा ने भवन बनवाने का विचार त्याग दिया।

इस अध-बने मकान में जो कोई भी आकर ठहरता है, वह बुरी तरह संतप्त होता है। प्रतीत होता है कि कोई प्रेतात्मा मकान में उसका ठहरना सहन नहीं कर पाती। अब तक जिस किसी ने भी इस मकान में रहने की कोशिश की है वह बुरी तरह पेरशान होकर मकान छोड़ने के लिए बाध्य हो गया है। सन् 1960 में कोई फक्कल और अलमस्त फकीर इस मकान में आकर रहा वह बताया करता कि रात में यहाँ भंयकर आकृतियाँ और काले भुजंग साँप घूमते दिखाई देते है। रात में ऐसे भयकंर दृश्यों को देखकर वह फकीर बुरी तरह डर जाता था। लोगों ने उसे मकान छोड़कर अन्यत्र कहीं रहने की सलाह दी, पर वह इतना गरीब था कि अन्यत्र कहीं अपना ठिकाना नहीं बना सका। आखिर वह इसी मकान में टिका रहा और एक दिन सुबह वह मकान की देहरी में मृत पाया गया।

कलकत्ता में जैसोर रोड़ पर स्थित क्लाइव हाउस भी इसी प्रकार के अभिशिप्त भवनों में से एक है। ब्रिटिश राज्य के दिनों यह इमारत लार्ड क्लाइव का निवास स्थान था। वास्तव में लार्ड क्लाइव का निवास तो फोर्ट विलियम क्षेत्र में था, वहीं से वह राजकाज निबटाया करता था। लेकिन ऐशो-आराम और रास विलास के लिए वह जैसोर रोड़ पर गोराँ बाजार में स्थित इस इमारत में आया करता था। इतिहास प्रसिद्ध प्लासी की लड़ाई लार्ड क्लाइव के शासन काल में ही हुई। इस लड़ाई में सिराजुद्दौला के बाद मीरजाफर को नवाब बनाया गया। मुर्शिदाबाद के खजाने में बेशुमार हीरे, सोने के आभूषण और अशर्फियाँ थी, जिन्हें लार्ड क्लाइव ने ले लिया। क्लाइव ने यह खजाना उक्त इमारत में ही कहीं गाढ़ दिया, बताया जाता है।

इस खजाने के बारे में क्लाइव ने ईस्ट इन्डिया कम्पनी को कुछ भी नहीं बताया और जब वह इंग्लैण्ड गया तो खजाने को इस आशा में यहीं छोड़ गया कि फिर कभी वह इसे यहाँ से ले जायेगा। पर वह ‘फिर कभी’ काला समय कभी आया ही नहीं, आया तो क्लाइव का अन्त काल। क्लाइव का वह खजाना इस इमारत में कहाँ गढ़ा है, यह किसी को कुछ नहीं मालूम। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस इमारत के कमरों में कई लोग आकर रहने लगे। इमारत में रहने वाले लोगों को कई बार रात में घोड़ों के टापों की आवाज सुनाई देती है और उसके साथही कुछ ऐसी आवाजें भी जिससे लगता है कि घुड़सवार अपने साथ हथियार आदि भी रखे हुए है। कई बार खाली पड़े मकरों में किसी महफिल के जमने, युवतियों के खिलखिलाने और हँसी-ठिठौली करती अंग्रेजी आवाजें भी सुनाई देती है।

क्लाइव हाउस में कई बार औरतों के साथ मार-पीट करने और उनके चीखने-चिल्लाने की आवाजें भी सुनाई देती है। रात के सन्नाटे में कभी-कभी कत्थई रंग के घोड़े पर सवार फौजी वर्दी पहने कोई अंगे्रज अफसर भी दिखाई देता है, जिसके सिर के बाल उड़े हुए और खोपड़ी चमकती हुई दीखती है। छोटी-छोटी मूँछों और हलकी दाढी वाले, कमर में तलवार लटकाये यह आकृति लार्ड क्लाइव की प्रेतात्मा बताई जाती है।

इस प्रकार की घटनाएँ विक्षुब्ध आत्माओं द्वारा किये गए उत्पात ही प्रतीत होते है। ऊपर की घटना वाला पुरोहित प्रेत, टीला हटाने के कारण रुष्ट हुआ और उस आक्रोश की स्थिति में ही आत्महत्या कर बैठा। मरने के बाद भी उसका रोष शान्त नहीं हुआ और उद्विग्न आत्मा उस टीले की जगह बने हुए डाकबंगले को अपनी प्रतिहिंसा का केन्द्र बनाये रही। मिश्र के पिरामिडों में बलि दिये गये मनुष्यों के चीत्कार जो प्रायः सुनाई पड़ते है, इतने उद्विग्न रहते हैं कि उन स्थानाअं को छेड़छाड़ करने वालों पर ही बरस पड़ते हैं और घातक हमले कर बैठते हैं। कब्रिस्तानों और मरघटों में भी इसी प्रकार के उपद्रव घटित होते रहते हैं।

उपद्रव भूत-प्रेत प्रायः इसी स्तर की विक्षुब्ध और उद्विग्न आत्माएँ हुआ करती है। मरते समय तथा उसके उपरान्त मृत्यु स्थान पर धार्मिक वातावरण बनाने की उपयोगिता, महत्व धर्मशास्त्रों में इसीलिए बताई गई है कि उससे दिवंगत आत्मा को यदि कोई विक्षोभ रहा हो तो उसका समाधान होने से सद्गति प्राप्त कर सकना सम्भव हो सके। अन्यथा विक्षोभ मरने के बाद भी चैन से नहीं बैठने देता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118