मनुष्य प्रकृति की मर्यादा से बंधा तो है, पर वे सीमा बन्धन ऐसे नहीं हैं जो चेतना की प्रखरता को किसी भी दिशा में बढ़ चलने से अवरुद्ध कर सें। चेतना प्रकृति से बड़ी है। वह चाहे तो उसक नियम प्रतिबन्धों को व्यतिक्रम भी कर सकती है। सामान्य स्थिति और सामान्य मनोबल के व्यक्ति सामान्य पुरुषार्थ ही कर पाते हैं, इसलिए उनकी गतिविधियों को भी नियति क्रम के सामान्य नियम प्रतिबन्ध पालन करने पड़ते है। इससे अगली स्थिति वह है जिसमें चेतना अपनी विशिष्टताओं को जागृत करती है और उस प्रखरता को उपलब्ध कर लेती है, जिसमें स्तर के अनुरुप वैसा कुछ कर दिखाना सम्भव हो जाता है, जिसे चमत्कार कहा जा सके। चमत्कारों के पीछे भी सृष्टि का वह विशेष नियम लागू होता है, जिसमें चेतना की सत्ता को सर्वोपरि कहा गया है। प्रकृति उसकी सुविधा के लिए है। साथ ही इतनी लचकदार भी है कि चेतना की प्रखरता का वर्चस्व स्वीकार करके उसका अनुगमन करने लगे। भले ही इसमें उसके सामान्य नियम-क्रम का उल्लंघन ही क्यों न होता हो। सिद्धियों और चमत्कारों के पीछे एक ही तथ्य काम करता है कि सृष्टि का व्यवस्था क्रम उपयुक्त होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। मनुष्य उससे एक सीमा तक ही बंधा है। अन्धनों से मुक्त होने की स्थिति की प्रतिक्रिया में जहाँ लोभ, मोह, के भव बन्धनों से छुटकारा पाने की बात है। वहाँ एक तथ्य यह भी है कि इस स्थिति में पहुचा हुआ मनुष्य प्रकृति का अनुयायी न रहकर उसे अपनी अनुगामिनी बना लेता है।
‘सर बाइबल आफ बाडीली डैप’ पुस्तक के लेखक ने जर्मनी की एक ऐसी घटना का उल्लेख किया जिससे भविष्य में घटने वाली घटना का पूर्वाभास मिलता है। कैप्टेन ‘कोल्ट’ नामक सेना के कैप्टन का छोटा भाई सेवसटोपल स्थान पर कमाण्डर था। उस समय युद्ध चल रहा था। रात्रि के समय कैप्टन कोल्ट ने जागृतावस्था में अपने भाई की छाया देखी। उसके चारों ओर पीला कोहरा था। वह छाया कैप्टन के सिर के चारों ओर घूमी तथा पलंग क पास उसने घुटने टेक दिये। उसके दाहिनी करपटी पर एक बड़ा घाव था, जिससे रक्त स्त्राव हो रहा था। दूसेर दिउन कैप्टन को सूचना मिली कि उसके भाई की मृत्यु हो गई है। पहुँच कर देखने पर पाया कि भाई का शव घुटने टेकती अवस्था में है तथा दाहिनी कनपटी पर गोली का घाव था।
कलकत्ता प्रेसीडेंसी कालेज में योग प्रदर्शन की व्यवस्था बनाई गई। व्यवस्था का भार विश्वविद्यालय ने उठाया। प्रदर्शन स्थल पर वैज्ञानिकों, डाक्टरों एवं बुद्ध-जीवीयाँ की बड़ी भीड़ जमा हो गई। इनमें भारत के भूतपूर्व नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सर सी. बी. रमन भी उपस्थित थे। योगी नरसिंह स्थायी प्रदर्शन कक्ष के मध्य में खड़े थे। भयंकर विष पहले से ही प्रयोशाला से मंगाकर रख लिया गया था। योगी ने सर्वप्रथम गंधक का तेजाब (सल्फ्यूरिक एसिड) जिसकी परख वैज्ञानिकों ने पहले कर ली थी, हाथ में लिया तथा जीभ से चाट गये। इसके उपरान्त कारवोलिक एसिड को भी पी गये। वैज्ञानिक तथा अन्य उपस्थित व्यक्ति यह देखकर हैरत में पड़ गये। अब बारी थी विज्ञान जगत के सबसे भयंकर विष पोटेशियम सायनाइड के परीक्षण की। पोटेशियम विष की भयंकरता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मात्र इसके स्वाद चखने के प्रयास में तीन व्यक्तियों की मृत्यु कुछ मिनट में हो गई। सभी व्यक्ति कौतुहल से योगी नरंिसंह की ओर देख रहे थे। सभी के मन में एक ही प्रश्न उत्पन्न हो रहा था कि इस विष को खाकर भी बचना क्या सम्भव है ? यह देखकर दंग रह गये कि स्वामी नरसिंह विष को सामान्य चीज जैसे फाँकने के बाद भी मुस्का रहे है। सी. पी. रमन क मुँह से यह निकल पड़ा कि “यह अद्भुत प्रदर्शन विज्ञान को चुनौती दे रहा है।” पोटेशियम सायनाइड को खाने क अतिरिक्त भी योगी ने एक अन्य प्रदर्शन किया। मोटी काँच की बोतल चूर्ण बनाकर उनको दिया गया। वे चूर्ण को प्रसाद के समान खा गये। वैज्ञानिक हतप्रभ रह गये कि इन भयंकर विषों के सेवन का योगी के ऊपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। एक डाक्टर ने यंत्र की सहायता से बाद में पेट से सारे विष बाहर निकाले जो बिना पचे, ज्यों के त्यों इस तरह रखे मानों उन्हें बाहर से भीतर हस्तान्तरित भर किया गया हो।
24 फरवरी 1978 को उदयपुर (राजस्थान) में भारतीय लोक कला मण्डल का समारोह था। उसमं एक हठयोगी ने जलती आग में प्रवेश करके नृत्य किया। पैट्रोल छिड़क-छिड़क कर कई बार आग भड़काई जाती रही और योगी का नृत्य चलता रहा इस प्रदर्शन से पूर्व योगी के शरीर पर कोई विशेष लेप आदि न होने की आशंका का भली प्रकार निराकारण कर लिया गया था। उपस्थितों और परीक्षकों में दूर-दूर के ऐसे भूर्धन्य लोग बुलाये गये थे। जो यदि बाजीगरी चल रही हो तो तुरन्त जाँच और पकड़ सकें।
‘ए सर्च इन सिक्रेट इजिप्ट’ के लेखक ने अपनी इस पुस्तक में विभिन्न योगियों के चमत्कारों का वर्णन किया है। इसमें टर्की के कुस्तु-तुनिया के प्रसिद्ध फकीर डा. ताहा का उल्लेख किया गया। विद्यालय से विधिवत् डाक्टरी परीक्षा पास कराने के उपरान्त इनकी अभिरुचि योगिक क्रियाओं में उत्पन्न हुई। हठयोग की क्रियाओं में लम्बे साधना से दक्षता प्राप्त कर ली और अन्वेषक परीक्षकों की उपस्थिति में ऐसी क्रियाएँ कर दिखाई जो सामान्य शरीर धारी के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकती।
डेनमार्क क एक व्यक्ति के शरीर से नोकदार काँटे उभरते थे और उन्हें बार-बार आपरेशन करके निकालना पड़ता था। यह क्रम जीवन भर चलता रहा। 248 बार कई-कई स्थानों के आपरेशन हुए और कुल मिलाकर 32131 काँटे निकाले। यह काँटे क्यों उगते थे इसका रहस्य टाी भी उतना ही बना हुआ है जितना कि आज से दस वर्ष पूर्व रोगी के जीवित रहने तक बना रहा।
मानवी काया में न जाने क्या-क्या चित्र-विचित्र भरा हुआ है। साधारणतया उतने भर की जानकारी सर्व साधारण को रहती है जितनी कि अधिकाँश लोगों में दृष्टिगोचर होती है। किन्तु यह मानकर नहीं चला जा सकता कि जो है वह उतना ही है जितना जाना गया।
जीवन भर नर, नर ही रहता है और नारी, नारी ही। सामान्य नियम यही है, पर इन दिनों लिंग परिवर्तन के जो तथ्य अस्पतालों से छनकर बाहर हा रहे है उनसे प्रतीत होता है कि संसार भर में सैंकड़ों व्यक्ति हर साल लिंग परिवर्तन करते है। नर को नारी का और नारी को नर का पूर्ण जीवन बिताने का अवसर मिलता है। आपरेशन के अभाव में जो पूर्ण परिवर्तन नहीं हो पाते उनकी संख्या तो उससे भी कहीं अधिक होनी चाहिए।
मानवी संरचना के अनुरुप नारी के शरीर में ही गर्भ धारण की क्षमता होती है। किन्तु ऐसी घटनाएँ कम घटित नहीं होती जबकि नर के पेट में गर्भ पाये गये और वे आपरेशन करके हटाये गये। अभी-अभी उत्तर प्रदेश के बादाँ जिले के गधेश्वर गाँव में एक पुरुष के पेट से पाँच मास का गर्भ हटाया गयाहै। इसी जिले के बडौसा थाने के गधेश्वर गाँव में एक अन्य पुरुष के पेट में गर्भ पाया गया था और शल्य क्रिया द्वारा हटाया गया था।
यह घटनाएँ बताती है कि मनुष्य सामान्य भर दीखता अवश्य है वस्तुतः वह वैसा है नहीं। उसके अन्तराल में एक से एक बढ कर विचित्रताएँ, विभूतियाँ और सम्भावनाएँ भरी पड़ी है, जो उन्हें जगाते और क्रियान्वित होते है वे सिद्ध पुरुष अथवा प्रखरता सम्पन्न कहलाते है। प्रकृति उनके कार्य में बाधक नहीं बनती, वरन् अपनी नियम क्रमों को भी चेतना के अनुरुप ढालने, बदलने में भी संकोच नहीं करती।